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चुनावी हंगामे में रोजगार का मसला- हरजिंदर

इस बार आम चुनाव के दो थीम सॉन्ग हैं- रोजगार और कैश ट्रांसफर। ये दोनों गरीबी हटाने के सपने का हिस्सा हैं। कैश ट्रांसफर के सारे वादे सीधे और स्पष्ट हैं, जो छह हजार रुपये सालाना से शुरू होकर 72 हजार रुपये तक जाते हैं, साथ में कुछ पेंशन योजनाएं वगैरह भी हैं। लेकिन रोजगार के बारे में इतनी स्पष्ट बात नहीं की जा रही। पिछली बार भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में एक संख्या दी थी, बता दिया था कि इतने नौजवानों को रोजगार दिया जाएगा। इस बार उसने वह गलती नहीं दोहराई। कांग्रेस ने जरूर एक संख्या दी है, लेकिन वह सरकारी नौकरियों के खाली पदों के भरने के बारे में है। हालांकि भाजपा ने भी एक संख्या दी है, लेकिन वह किसी नौकरी के लिए नहीं, बल्कि 30 लाख युवाओं को अपना उद्यम या स्टार्टअप शुरू करने के लिए कर्ज देने के बारे में है। दिलचस्प यह भी है कि भाजपा के जो मुख्य 10 संकल्प हैं, उनमें सबको पक्का मकान देने का संकल्प जरूर है, लेकिन सबको पक्का रोजगार देने का संकल्प नहीं है।


यह इतना आसान भी नहीं है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां इसे अच्छी तरह समझती हैं। भारत की बेरोजगारी की समस्या न तो सरकारी नौकरी देकर हल हो सकती है, न ढेर सारे स्टार्टअप ही इसके लिए पर्याप्त हैं, और भारत ग्रामीण व कुटीर उद्योगों से हर हाथ को काम दे देगा, इसे तो अब लोगों ने सोचना तक बंद कर दिया है। इस तरह की कोई भी एकांगी सोच हमारी कुल जमा समस्या का शायद सूक्ष्म समाधान भी नहीं है। सच तो यह है कि हमें ग्रामीण व कुटीर उद्योग भी चाहिए, ढेर सारे छोटे-बड़े-मंझले स्टार्टअप भी चाहिए, बहुत सारे बड़े उद्योग भी चाहिए, जहां नौजवानों को बड़ी संख्या में नौकरियां मिलें, ऐसे कल-कारखाने और उत्पादन क्षेत्र भी चाहिए, जहां अकुशल, कम कुशल या अद्र्धकुशल लोगों की श्रम-शक्ति का उपयोग हो सके और बदले में उन्हें सम्मानजनक जीवन का जरिया मिले। हमें सेवा क्षेत्र के उद्यम भी चाहिए, मैन्युफैक्र्चंरग क्षेत्र के भी, सिर्फ वैल्यू एडीशन करने वाले भी और साथ ही ऐसे ढेर सारे कारोबार भी, जो इन सारे क्षेत्रों के बीच तमाम तरह के पुलों, खिड़की-दरवाजों का काम करते हों। जब हम बरोजगारी की बात करते हैं, तो इसका अर्थ सिर्फ रोजगार कार्यालयों में दर्ज नौजवान या शहरों में काम की तलाश में भटकते लोग नहीं हैं, ग्रामीण क्षेत्र की अतिरिक्त श्रम-शक्ति भी है। हमारे पास गांवों की अद्र्धबेरोजगारी तो है ही, साथ ही हमारे खेतों में प्रति हेक्टेयर श्रम-शक्ति का इस्तेमाल शायद सबसे ज्यादा है, उन देशों से भी ज्यादा, जहां कृषि का मशीनीकरण अभी नहीं हुआ है। इस श्रम-शक्ति को आधुनिक उद्योग-व्यवस्था से जोड़कर हम कृषि संकट को भी कुछ कम कर सकते हैं। फिर, हमें उन लोगों के बारे में भी सोचना होगा, जिनके श्रम का इस्तेमाल हम अभी तक मनरेगा में ही कर रहे हैं। उन लोगों के रोजगार की चिंता भी करनी होगी, जिनके लिए कैश ट्रांसफर की योजनाएं बन रही हैं।


भारत की आबादी इस समय इतिहास के ऐसे मोड़ पर है, जहां नौजवानों की संख्या देश में सबसे ज्यादा है, दुनिया के सबसे ज्यादा नौजवान तो खैर भारत में हैं ही। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘डेमोग्राफिक डिवीडेंड' कहा जाता है, यानी यह आबादी की एक ऐसी स्थिति है, जो किसी भी देश को बहुत बड़ा लाभ पहुंचा सकती है, क्योंकि आपके पास उत्पादक श्रम-शक्ति का अनुपात सबसे ज्यादा है। लेकिन हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे, क्योंकि हमारे पास इस श्रम-शक्ति को देने के लिए पर्याप्त काम ही नहीं है, रोजगार के अवसर ही नहीं हैं। यह काम बहुत बड़े पैमाने पर निवेश से ही हो सकता है और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इतने बड़े पैमाने पर निवेश देश में तभी आएगा, जब यहां श्रम सुधार किए जाएंगे, यानी श्रम कानूनों को बदला जाएगा। तकरीबन वैसे ही, जैसे चीन ने अपने यहां किया। श्रम सुधार एक टेढ़ा व संवेदनशील मामला है और कोई भी दल इसे हाथ लगाने से बचता है, इसलिए हमारे यहां यह विमर्श कभी नहीं शुरू हो सका कि भारत जैसे श्रम-बहुल देश में किस तरह के श्रम सुधारों की जरूरत है।


इसे लेकर एक कोशिश विशेष आर्थिक क्षेत्र, यानी सेज की योजना के रूप में की गई थी। इसके तमाम मकसदों में एक यह भी था कि औद्योगिक निवेश के लिए पूरे देश में कुछ ऐसे क्षेत्र विकसित किए जाएं, जो देश के मौजूदा श्रम कानूनों की पकड़ से मुक्त रहें। उम्मीद थी कि ऐसे औद्योगिक क्षेत्रों में बड़ा निवेश आएगा और बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे। लेकिन कई कारणों से यह योजना फ्लॉप हो गई। एक तो शुरू से ही इसके साथ बहुत सारे विरोध और विवाद जुड़ गए, दूसरे बहुत सारे उद्योगपतियों ने इस पर सस्ती अचल संपत्ति हासिल करने के इरादे से दांव लगा दिया, रही-सही कसर उस दौर में आई विश्वव्यापी मंदी ने निकाल दी। यूपीए सरकार ने इस योजना पर दांव खेला था, मगर अब यूपीए की प्रमुख घटक पार्टी कांगे्रस भी इसका नाम नहीं लेती। बाद में इसकी उम्मीद नरेंद्र मोदी सरकार से बांधी गई, जिसकी एक वजह प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया का नीति आयोग का उपाध्यक्ष बनना भी थी। पनगढ़िया अरसे से श्रम सुधारों की हिमायत करते रहे हैं, लेकिन इस मामले में जिस तेजी की उम्मीद थी, वह दिखी नहीं। यह जरूर है कि सरकार ने श्रम आयोग की रिपोर्ट के बाद इस बाबत एक विधेयक अगस्त 2017 में संसद में पेश किया था, जो संसद की स्थाई समिति के हवाले हो गया। आज भी इसका दस्तावेज श्रम मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद है। यह ऐसी कोशिश थी, जो सिरे नहीं चढ़ी।

लेकिन इस कोशिश का जिक्र न तो प्रधानमंत्री के लुभावने भाषणों में मिलेगा और न ही भाजपा इसका कहीं बखान करती दिखेगी। चुनाव के समय कौन मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना चाहेगा? दरअसल, रोजगार का मामला इतना गंभीर और जटिल है कि यह पूरी तरह चुनावी-विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकता। इसलिए चुनावी हंगामे और तमाशे के बीच देश की रोजगार समस्या का कोई हल हमें मिलेगा, इसकी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)