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चुनौती और अवसर, दोनों है प्रदूषण--- मोंटेक सिंह अहलूवालिया

दिल्ली का वायु प्रदूषण अब भी सुर्खियों में है। इस मसले का हल निकालना इसलिए जरूरी है, क्योंकि दिल्ली देश का एकमात्र प्रदूषित शहर नहीं है। दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 11 भारत के हैं। इतना ही नहीं, अगले 20 वर्षों में शहरी आबादी में बड़े विस्तार की संभावना है। इसे देखते हुए हमें बेहतर रोजगार के लिए निवेश बढ़ाने की जरूरत है और शहरों को रहने योग्य भी बनाना होगा। स्पष्ट है, दिल्ली में मिलने वाली सफलता दूसरे शहरों के लिए आदर्श उदाहरण बनेगी।


इस समस्या का सही समाधान तभी निकल सकता है, जब हम असल समस्या को पहचानेंगे। अच्छी बात है कि इस दिशा में प्रगति हुई है। कुछ वर्ष पहले अपने विदाई संदेश में एक अमेरिकी पत्रकार ने लिखा था कि वह दिल्ली इसलिए छोड़ रहा है, क्योंकि अमेरिकी दूतावास में वायु प्रदूषण को जांचने वाली मशीन बता रही है कि यहां उसके बच्चे की सेहत को खतरा है। तब यह कहा गया था कि दूतावास समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है। मगर बाद में, जब दिल्ली में सरकारी जांच केंद्र स्थापित किए गए, तो उन्होंने भी इसकी पुष्टि की कि समस्या वाकई गंभीर है। आबोहवा में हद से अधिक पीएम 2.5 की मौजूदगी से न सिर्फ बच्चे समय पूर्व अस्थमा के शिकार बन सकते हैं, बल्कि गर्भवती महिलाएं ऐसे बच्चे को जन्म दे सकती हैं, जो तमाम तरह की स्वास्थ्यगत समस्याओं के साथ-साथ कम वजन का शिकार हो जाए। ऐसे सूक्ष्म कण तो बुजुर्गों के लिए घातक हो सकते हैं।


पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले कई लोग जागरूकता फैलाने में लगे हुए हैं। वे अदालत भी जा रहे हैं। मगर अदालती सक्रियता की एक सीमा होती है। न्यायपालिका उन मामलों में कारगर होती है, जहां गतिविधियों पर प्रतिबंध की जरूरत है। वह कई मोर्चों पर रणनीति बनाने का माध्यम नहीं बन सकती। यह काम सरकार का है। कुछ वर्ष पहले तक दिल्ली से कहीं अधिक प्रदूषित शहर बीजिंग था। 2008 ओलंपिक गेम होने वाले थे, सो अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसे लेकर खूब बातें हो रही थीं। चीन की सरकार ने स्थानीय औद्योगिक प्रदूषण से निपटने के लिए ठोस कदम उठाए। बिजली संयंत्रों में कोयले के इस्तेमाल को कम किया, साथ ही बीजिंग में कारों की बिक्री सीमित कर दी। नासा की तस्वीर बताती है कि 2010 से 2015 के बीच चीन में सूक्ष्म कणों का जमाव 17 फीसदी तक कम हुआ, जबकि इसी दरम्यान हमारे यहां इसमें 13 फीसदी की वृद्धि हुई। चीन में प्रदूषण का स्तर निश्चय ही खराब है, पर वह इसे धीरे-धीरे नियंत्रित कर रहा है, हमारे यहां यह बढ़ ही रहा है।


अगर हम चाहते हैं कि दिल्ली में प्रदूषण का औसत स्तर राष्ट्रीय स्तर के समान हो, तो सबसे पहले हमें प्रदूषण में 72 फीसदी की कमी लानी होगी, और फिर यह सुनिश्चित करना होगा कि जनसंख्या व आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बाद भी यह इसी स्तर पर बना रहे। जाहिर है, इसके लिए कई मोर्चों पर काम किए जाने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित ईपीसीए (पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण) ने इसके लिए बहु-आयामी कार्य-योजना बनाई है। इसमें अपेक्षाकृत कम प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों व ईंधनों का इस्तेमाल, कारों की बढ़ती संख्या पर लगाम, सार्वजनिक परिवहन का विस्तार, कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों पर रोक, औद्योगिक प्रदूषण पर नियंत्रण जैसे प्रस्ताव शामिल हैं। इनमें से कुछ प्रस्तावों पर केंद्र सरकार को अमल करना होगा, तो बाकी पर दिल्ली सरकार व स्थानीय निकायों को।


प्रदूषण में करीब 38 फीसदी हिस्सा सड़कों की धूल का होता है। इसे नियंत्रित करना मुश्किल है, क्योंकि अव्वल तो सड़कों की दशा खराब है और फुटपाथ कच्चे हैं, फिर साफ-सफाई के लिए परंपरागत तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं, जैसे हाथों से झाड़ू लगाना। लिहाजा वैक्यूम क्लिनिंग मशीनों की जरूरत है, पर इसके लिए बड़े निवेश की दरकार होगी, क्योंकि ऐसी मशीनों की खरीदारी में नगर निगमों द्वारा आवंटित बजट से ज्यादा रकम खर्च हो सकती है। इसी तरह, सड़कों पर पानी का छिड़काव शहर में जल की उपलब्धता को प्रभावित करेगा। वाहनों से निकलने वाला धुआं 20 फीसदी प्रदूषण की वजह है। इस आंकड़े के बढ़ने की आशंका है, क्योंकि कारों की संख्या बढ़ रही है। इसीलिए इस क्षेत्र में ज्यादा काम किए जाने की जरूरत है। साल 2018 से दिल्ली में बीएस-6 ईंधन व 2020 से पूरे देश में ऐसे ईंधन वाले वाहनों के इस्तेमाल का फैसला स्वागतयोग्य है। ये दोनों मिलकर सूक्ष्म कणों से होने वाले प्रदूषण को 70 से 80 फीसदी तक कम कर सकते हैं।


इसके साथ ही, हमें कारों पर टैक्स बढ़ाने की भी दरकार है। इसके लिए सालाना अथवा द्विवार्षिक लाइसेंस फीस की व्यवस्था बनाई जा सकती है, जैसा कि हम बसों के लिए करते हैं। जिस इलाके में कारों का ज्यादा बोझ है, वहां पार्किंग चार्ज ज्यादा होनी चाहिए। डीजल, खासकर एसयूवी जैसी गाड़ियों को भी हतोत्साहित करने की कोशिश होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने डीजल को तंबाकू की तरह ही कैंसर का कारक माना है। हालांकि दीर्घावधि में पर्यावरण मसले का हल इलेक्ट्रिक कारों व स्कूटरों में छिपा है। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि जैसे ही उपलब्धता हो, हमें दिल्ली में टैक्सियों व तिपहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक किया जाना अनिवार्य कर देना होगा।


कारों की तरफ लोगों का रुझान कम करने के लिए जरूरी है कि बस व मेट्रो जैसी सार्वजनिक सेवाओं का विस्तार किया जाए। इसके लिए ईपीसीए ने एक ‘अर्बन ट्रांसपोर्ट फंड' बनाने का प्रस्ताव दिया है। पार्किंग फीस और कार व बसों की लाइसेंस फीस इस फंड में डाली जानी चाहिए। इसी तरह, कोयला संयंत्रों की जगह पर गैस-आधारित संयंत्रों की स्थापना पर जोर देना होगा। कचरे के निपटारे के लिए भी एक प्रभावी तंत्र बनाना होगा, क्योंकि कचरे को जलाने से भी दिल्ली काफी प्रदूषित होती है।
ऐसे ही प्रयासों से राजधानी में प्रदूषण कम होगा। बेशक इसमें वक्त लगेगा, पर हमें पता तो चलेगा कि आखिर कब हम साफ हवा में सांस लेंगे? अगर किसी को स्वच्छ आबोहवा पर होने वाले खर्च को लेकर शक हो, तो उन्हें हालिया शोध पर नजर डाल लेनी चाहिए, जिमसें कहा गया है कि दिल्ली में प्रदूषण का स्तर यदि राष्ट्रीय स्तर से कम हो जाता है, तो यहां के बाशिंदों की उम्र छह साल तक बढ़ जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)