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चुनौती है पहचान की राजनीति- सुभाषिनी अली

इस वर्ष की शुरुआत कमोबेश उसी तरह की घिनौनी घटनाओं के साथ हुई, जिनके साथ 2013 का अंत हुआ था। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले की एक आदिवासी पंचायत ने अपने ही समुदाय की एक 20 वर्षीय लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किए जाने का फरमान जारी कर दिया और दिल्ली के लाजपत नगर मार्केट में अरुणाचल प्रदेश के एक 19 वर्षीय नौजवान को लाठी-सरियों से इतनी बुरी तरह पीटा गया कि कुछ घंटों बाद उसकी मौत हो गई। और जैसा कि ऐसी घटनाओं के बाद होता है, पूरे देश ने सामूहिक तौर पर अपना सिर पीटते हुए यह कोशिश की कि इन घटनाओं के पीछे के कारणों का पता लग सके। तमाम माथा-पच्ची के बीच इस बात का बहुत ही कम जिक्र सुनने को मिला कि शायद पहचान की राजनीति के जबर्दस्त असर और फैलाव का इनसे कोई संबंध हो सकता है।

पहचान की राजनीति सिर्फ राजनीतिक दलों पर हावी नहीं है। इसका असर बड़े और छोटे विश्वविद्यालयों के समाज शास्त्र, राजनीतिक शास्त्र, इतिहास इत्यादि विभागों में ऊपर से नीचे तक दिखाई देता है। एनजीओ तो इसी से ओत-प्रोत होकर काम करते हैं। इसमें तमाम आकर्षण मौजूद हैं, पर अब इसका घिनौना चेहरा पर्दे के पीछे से झांकने लगा है। पहचान की राजनीति उत्तर आधुनिकतावादी विचारधारा से पनपी है। इस विचारधारा का सहारा शीतयुद्ध के दौरान साम्यवाद का आकर्षण खत्म करने के लिए किया गया था। वैसे तो इन विषयों पर बहुत कुछ लिखा गया है, पर इनका सार इस प्रकार है- समाज समूहों का जमावड़ा है, जो सांस्कृतिक भिन्नता पर आधारित है; यह केवल भिन्न ही नहीं, बल्कि आपस में प्रतिद्वंद्विता और शत्रुता भी रखते हैं; यह एक-दूसरे का शोषण करते हैं; कोई भी परंपरा अच्छी या बुरी नहीं होती (वह चाहे सती प्रथा हो या दहेज), शोषण और अन्याय का खात्मा सत्ता के माध्यम से संभव नहीं है, क्योंकि हर तरह की सत्ता तानाशाही का ही रूप है।

साम्यवादी सोच तो इसके बिल्कुल ही विपरीत है। मगर सच यह है कि देश के हर हिस्से में पहचान की राजनीति हावी है। सामाजिक न्याय की इतनी ढेर सारी बातों के बावजूद, दलितों और पिछड़ों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के अनगिनत नारों के बावजूद असलियत यह है कि समाज में गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के साथ, एक समुदाय पर दूसरे के हमले बढ़ते जा रहे हैं। इसके साथ ही एक धनाढ्य तबका पनप रहा है, जिसमें कुछ दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी और पिछड़ी जाति के लोगों ने प्रवेश पा लिया है। यह तबका हर राजनीतिक दल पर हावी है। इसकी पकड़ प्रशासनिक तंत्र पर है, इसका जोर न्यायपालिका पर भी दिखाई देता है और वह अपनी ताकत, आपराधिक चरित्र और धन बल का इस्तेमाल अपनों और दूसरों के बीच अपनी दूरी को लगातार बढ़ाने के लिए करता है।

इस तबके के सदस्यों को अपनी बिरादरी की कोई खास चिंता नहीं रहती, लेकिन वह उसके बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ने की कई तरकीबें ईजाद कर चुके हैं- अपने महापुरुषों के इतिहास की रचना करना, उनका महिमंडन करना, अपनी परंपराओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, चाहे वे कितनी भी महिला विरोधी क्यों न हों, अपनी बिरादरी के कुछ नेताओं को हर तरह की मदद पहुंचाना और हो सके, तो अपनी बिरादरी का राजनीतिक दल खड़ा करना। इसके साथ ही सत्ता में उपस्थित तमाम ताकतों के साथ अपनी साठगांठ को बनाए रखना। राजनीतिक दल भी इन्हीं लोगों के माध्यम से उनकी बिरादरियों का समर्थन जुटाने की कोशिश करते हैं। मसलन, हरियाणा में जाट-दलित टकराव की स्थिति में अंदरखाने तय कर लिया जाता है कि समर्थन जाट को ही करना है। इसी तरह से तमिलनाडु में, जो शायद पहचान की राजनीति की नर्सरी रही है, दलितों और अन्य पिछड़ी जाति के टकराव में शासक दल बाहुबली पिछड़ों का ही समर्थन करते हैं।

हाल की दोनों घटनाओं में पहचान की राजनीति का हाथ ढूंढने से मिलता है। नीडो तानियन की मौत के मामले में पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध रही। पूर्वोत्तर की ही मणिपुर की दो लड़कियों को कुछ दिन पहले दिल्ली में ही लड़कों के झुंड ने खूब पीटा था और नस्लवादी गालियां सुनाई थीं। एक के पैर में एक लड़के ने अपने कुत्ते का पट्टा बांध दिया और फिर उसे दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। उनकी शिकायत भी दूसरे दिन ही दर्ज हो सकी। पूर्वोत्तर के लोगों को दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में बेहूदा और अपमानजनक व्यवहार और हिंसा बर्दाश्त करनी पड़ती है। महिलाएं सर्वाधिक निशाने पर होती हैं।

राहुल गांधी पूर्वोत्तर के लोगों के धरने में बैठ सकते हैं, लेकिन उनकी पार्टी की सरकार, जो दिल्ली की कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती। नरेंद्र मोदी नीडो तानियान की मृत्यु पर शोक व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन संघ परिवार द्वारा पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ उगले जाने वाले विष को नहीं रोक सकते हैं।

बीरभूम की घटना बताती है कि पहचान की राजनीति के चलते महिलाएं समुदाय के अंदर और बाहर, दोनों ही क्षेत्रों में हिंसा की शिकार बनती हैं। परंपराओं के अनुसार, महिला समुदाय, परिवार, बिरादरी की इज्जत की रखवाली होती है, उसका शरीर इस इज्जत का खजाना होता है। अगर एक समुदाय दूसरे पर हमला करता है, तो उसकी इज्जत लुटती रहती है और अगर वह खुद समुदाय के बाहर अपना जीवनसाथी ढूंढ़ती है, तो भी उसके साथ ऐसा ही होता है। पहचान की राजनीति के आगे सब अपनी मजबूरी का दावा करते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि कुछ न करने के पीछे असली वजह है कि इस किंकर्तव्यविमूढ़ता से उनकी लूट जारी रहती है, उनके वोट कम नहीं होते। यही कारण है कि तमाम शासक वर्गों के प्रतिनिधि दल पहचान की राजनीति के सामने अपने हथियार डाल देते हैं और परंपरा के नाम पर हर तरह का अन्याय होने देते हैं।