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चेन्नई बनाम बुंदेलखंड: क्या राजनीतिक ताक़त के आधार पर सहायता मिलेगी?-- सुदीप श्रीवास्तव

आज इस समय पूरा देश और दुनिया भी, टीवी और सोशल मीडिया पर चेन्नई बारिश और बाढ़ की तस्वीरों से पटा पड़ा है। देश का ही एक दूसरा हिस्सा उत्तर प्रदेश का बुंदेलखण्ड, लगातार दूसरे साल भयानक सूखे का सामना कर रहा है। सूखा भी इतना भयंकर कि लोगों को खाने के लाले पड़े हुए हैं। पर यहां न तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के दौरे हो रहे हैं और न ही टीवी पर इसकी तस्वीरें आ रही हैं। ये सही है कि भारी बारिश और बाढ़ टीवी के लिए परफेक्ट विजु्अल्स देता है जो 'स्लो प्वाइजन' की तरह मारने वाला, भयंकर सूखा नहीं दे सकता। ड्रम के सहारे तैरती 70 साल की बुढ़िया, गले तक पानी में डूबे लोग और इस सबसे बढ़कर पानी भरने से चेन्नई एअरपोर्ट का बंद हो जाना, ऐसा कोई कारण नहीं छोड़ता कि चेन्नई बाढ़ की खबरें सब तरफ न छा जाएं।

पर इस सबसे हटकर, एक और कड़वी सच्चाई है जो हमें अपने प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बारे में सोचने को मजबूर करती है। वो सच्चाई है संसद और विधानसभाओं में आपकी ताकत। क्योंकि उसी के आधार पर सत्ता के गलियारों में फैसले लिए जाते हैं। चेन्नई, उस तमिलनाडु की राजधानी है जहां से 39 लोकसभा और 16 राज्यसभा के सांसद चुने जाते हैं। सदा से क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व में रहा यह राज्य, संसद में बड़े महत्व का है। विशेषकर केंद्र सरकार को कानून बनाने हों या किसी और बड़े मुद्दे पर समर्थन चाहिए हो, क्षेत्रीय दल को मैनेज करना किसी आदर्शवादी राष्ट्रीय पार्टी से ज्यादा आसान होता है। जाहिर है पहले 940 करोड़ और अब 1000 करोड़ रुपए जारी करने में केंद्र ने कोई कोताही नहीं की, और आगे भी बड़ी सहायता चेन्नई को दी जाएगी।

इसके विपरीत बुंदेलखण्ड की त्रासदी बड़ी दुःखद है। एक तो यह दो राज्यों मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में बंटा होने से राजनीतिक महत्व आधा ही रह गया और ऊपर से यहां जनसंख्या घनत्व कम होने से लोकसभा, विधानसभा सीटों की संख्या कम है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड जिसमें 7 जिले आते हैं, इनमें लगातार दूसरे साल मानसून पूरी तरह फेल हुआ है। अमूमन 55-60 सेंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाके में दो साल से आधी बारिश भी नहीं हो रही है। वैसे मानसून का ये बिगड़ा हुआ चक्र 2007 से जारी है पर मीडिया में इसकी चर्चा बहुत कम ही। अभी पिछले महीने मैंने एनडीटीवी इंडिया की एक टीम के साथ और हाल ही में न्यूज पोर्टल स्क्रॉल डॉट इन की टीम ने यहां के हालात के बारे में रिपोर्टिंग की है। स्थिति इतनी भयावह है कि लोग-बाग अनाज और दाल की पिसाई में निकले हुए वेस्ट को भी खाने के लिए मजबूर हैं। दोनों वक्त आधा भोजन या फिर एक वक्त ही भोजन, ऐसे विकल्प हैं जिनका चुनाव अत्यंत कठिन है। जब आदमियों के यह हालात हैं तो जानवरों को तो चारा मिलने का सवाल ही नहीं है। पीने के पानी के स्रोत भी तेजी से सूख रहे हैं।

उत्तर प्रदेश वैसे तो राजनीतिक रूप से सबसे अधिक ताकत वाला राज्य है पर इसके 80 में से महज 6 सांसद ही बुंदेलखण्ड से आते हैं। अगर राज्य की विधानसभाओं का गणित देखा जाए तो कुल 404 में से महज 30-32 यानी दस फीसदी से भी कम सीट यहां से आती हैं। इस गणित ने उत्तर प्रदेश में बुंदेलखण्ड को उपेक्षित बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई है। संसद में सपा और बसपा की राजनीति सीबीआई के मुकदमों की प्रगति से तय हो रही है। बुंदेलखण्ड के सूखे का सवाल संसद के काम में कोई गतिरोध पैदा कर ही नहीं सकता।

राजनीति की ताकत का कितना असर होता है इसे समझाने के लिए मध्य प्रदेश का गणित समझाना होगा जिनमें भी बुंदेलखण्ड का बड़ा हिस्सा आता है। यहां भी लगभग 5 लोकसभा और 40 विधानसभा सीट इस क्षेत्र में आती हैं। पर यह संख्या 230 सीट की मध्य प्रदेश विधानसभा में 15 फीसदी से ऊपर है। खासकर 2000 में छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद जहां विधानसभा की 90 सीट थी, मध्य प्रदेश में बुंदेलखण्ड का प्रभाव बढ़ गया। ऐसा उत्तराखण्ड अलग होने से इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि तब यूपी की केवल 21 विधानसभा सीट अलग हुई थी।

मध्य प्रदेश के बुंदेलखण्ड की हालत आज भी यूपी वाले हिस्से से बेहतर है जबकि मानसून का हाल लगभग यहां भी वैसा ही है। आज यूपी के बुंदेलखण्ड को अनाज, दवाइयां, कपड़े और रोजगार सबकी दरकार है, पर कोई संस्था, सरकार या फिर मीडिया हाउस इसका कैंपेन चलाता नजर नहीं आ रहा है।

आज के समय में सोशल मीडिया का माध्यम इतना सशक्त है कि वो छोटी से छोटी जगह की बात भी ताकत से उठा देता है। पर इसके लिए भी बड़ी संख्या में स्मार्ट फोन बुंदेलखण्ड के लोगों के पास होने चाहिए। जिनके पास दो वक्त का खाना नहीं है और मीडिया हो या सरकार किसी का ध्यान नहीं है, उनके लिए कहा जाता है कि 'अब बस भगवान का ही आसरा है।'