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छत्‍तीसगढ़ में शिक्षा से कोसों दूर बैगा बच्चों के हाथ मछली का जाल

नई दुनिया,कोरबा (निप्र)। संरक्षित बैगा आदिवासी जनजाति वर्ग आज भी शिक्षा से कोसों दूर है। इस वर्ग को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लाख दावे सरकार कर ले, पर हकीकत कुछ और है। बैगा आदिवासी के बच्चे स्कूल का मुंह तक नहीं देखे हैं। कापी पुस्तक की जगह हाथ में जाल थाम लिया है और पूरा दिन मछली पकड़ने में बीत रहा। गांव से 5 किलोमीटर दूर स्कूल होने की वजह से शिक्षा के प्रति जागरूकता की तमाम कोशिशें सिपᆬर साबित हो रही।

हम बात कर रहे हैं जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर पोड़ी ब्लॉक अंतर्गत आने वाले ग्राम पनगवां की। ग्राम पंचायत जल्के का यह आश्रित ग्राम हसदेव नदी के पावन तट पर बसा हुआ है। इस क्षेत्र में करीब 40 संरक्षित आदिवासी बैगा जनजाति का परिवार निवासरत्‌ है।

यहां बिजली तक की व्यवस्था नहीं है। सूर्यास्त के बाद गांव अंधेरे में डूब जाता है। सड़क के नाम पर केवल पगडंडी है। गांव के विभिन्न उम्र वर्ग के 40 से 50 बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। बच्चे अपने माता-पिता के साथ दिनभर हसदेव नदी में मछली आखेट करते अपना पूरा दिन व्यतीत करते हैं। नदी के तट पर इन बच्चों के हाथ में जाल व नाव का पतवार देखा जा सकता है।

ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनका आने वाला भविष्य कैसा होगा। यूं तो हर वर्ग को शिक्षित करने शासन दुनिया भर की योजनाएं चला रही है। विलुप्त होती जातियों में शामिल बैगा आदिवासी जनजाति वर्ग को संरक्षित करने का अभियान भी सरकार द्वारा चलाया जा रहा है। इसके लिए लाखों रुपए खर्च किए जा रहे। कभी पहाड़ के ऊपर रहने वाले इन आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने नीचे उतारा गया है।

समझा जा सकता है कि जिनके बच्चे स्कूल न जा रहे हों, भला उनका जीवन स्तर कैसे सुधर सकता है। कहने को तो इस वर्ग के उत्थान के लिए कृषि सामाग्री, मछुआरा प्रशिक्षण सहित कई योजनाएं चलाई जा रही है, ताकि ये आत्मनिर्भर हो सकें। लगता है पहाड़ में रहकर कंदमूल खाने वाले इन आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास केवल सरकारी दस्तावेजों में सिमट कर रह गया है।

पनगवां तक कच्ची सड़क का निर्माण किया गया है, पर यहां से 3 किलोमीटर दूर है बैगा आदिवासी बस्ती। यहां पहुंचना टेढ़ीखीर साबित होती है। पथरीले रास्ते होने की वजह से बाइक चल पाना भी मुश्किल है। यहां तक पहुंचने पदयात्रा करनी पड़ती है। बरसात के दिनों में नदी-नाले उपᆬान पर रहते हैं, तब यह गांव टापू में बदल जाता है। स्कूल जाने में होने वाली परेशानियों को देखते हुए बैगा परिवार के लोगों ने बच्चों को स्कूल भेजना ही बंद कर दिया है।

शिक्षा को बढ़ावा देने किए जा रहे प्रचार-प्रसार का असर इस क्षेत्र में दिखाई नहीं देता। बैगा आदिवासियों का कहना है कि पढ़ाई करने से भी नौकरी नहीं मिलती। इसके अलावा हम पढ़ाई का खर्च भी वहन नहीं कर सकते। आखेट हमारा पुश्तैनी काम है। बचपन से यदि बच्चों को यह गुर नहीं सिखाएंगे तो आगे चलकर वे अपना भरण पोषण कैसे करेंगे। पनगवां में ही रहने वाली बैगा आदिवासी सुराजी बाई प्रशासन से मिलने वाली क्षतिपूर्ति मुआवजा राशि के लिए लंबे समय से भटक रही है। उसके पति नोहर साय की नदी में मत्स्याखेट करते वक्त डूब जाने से मौत हो गई थी। अब तक उसे केवल 30 हजार रुपए प्रदान किया गया है, जबकि डेढ़ लाख रुपए मिलने हैं। बताया जा रहा है कि पूरी राशि प्रशासन की ओर से उसके बैंक खाते में राशि जमा कराई जा चुकी है। माना जा रहा है कि बिचौलिए शेष रकम डकार गए।

गांव तक न तो सड़क है और न ही बिजली। पीने के लिए पानी तक की व्यवस्था नहीं है। ढोढ़ी व नदी पर बैगा बस्ती के लोग निर्भर हैं। कई बार प्रशासनिक दफ्तरों का चक्कर काटकर थक चुके हैं। अब तक पहल नहीं की गई है। हमारी सुनने वाला कोई नहीं। स्कूल दूर होने की वजह से बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते।

- राय सिंह, बैगा

शासन की ओर से संरक्षित जातियों के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा। केवल दिखावे के लिए कुछ सामाग्रियां प्रदान कर अपᆬसर वापस लौट जाते हैं। बैगा आदिवासियों के जीवन स्तर पर सुधार हो सके, इसके लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा।

- मनोज कुमार, पनगवां

चल रही हैं योजनाएं

संरक्षित जनजाति के लिए विशेष तौर पर शासन की ओर से योजनाएं चलाई जा रही है, जिसका क्रियान्वयन किया जा रहा है। रहा सवाल ग्राम पनगवां के बैगा आदिवासियों का, तो वहां की सुविधाओं का जायजा लिया जाएगा। जो भी कमी होगी दूर कर ली जाएगी। मैं स्वयं गांव जाऊंगा।

- एसके दुबे, प्रभारी सहायक आयुक्त, आदिवासी विकास विभाग