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छोटी-सी गुड़िया की लंबी कहानी : हर्ष मंदर

हॉलैंड का एक गांव। गिरजे की खिड़कियों से छनकर आ रही दोपहर की नर्म धूप में हम प्रेम के एक चमत्कार के साक्षी हुए। इस कहानी की शुरुआत 24 साल पहले कराची के एक यतीमखाने से होती है। एक परित्यक्त बच्ची सड़क पर जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी, जिसे यतीमखाने के कर्मचारी अपने यहां ले आए थे।

यतीमखाने को एक समृद्ध और दयालु डच महिला संचालित करती थी। उन्होंने उस बेसहारा लड़की का नाम रखा रफायले। डॉक्टरों ने पाया कि उसके दिल में एक छेद था और उसकी जान बचाने के लिए सर्जरी की दरकार थी। लेकिन यह खर्च वहन करना यतीमखाने की क्षमता से बाहर था। इसके बाद हॉलैंड में एक अपील प्रसारित की गई कि यदि कोई दंपती इस बेसहारा बच्ची को अपनाकर उसकी जान बचाना चाहें तो संपर्क करें।

अपील का असर हुआ। हॉलैंड के एक बिजनेस कंसल्टेंट फर्दिनांद वान कूलविक और उनकी पत्नी लोसे, जो कि एक नर्स थीं, ने फौरन इस बच्ची को अपनाने का निर्णय लिया। महज चंद दिनों बाद वे कराची में थे। उन्होंने उस बेसहारा लड़की को देखा, जो मौत से संघर्ष कर रही थी। लेकिन लोसे ने उसे बांहों में ले लिया और ऐसा लगा उस बच्ची ने भी खुद को लोसे की बांहों में सहज महसूस किया।

यह पहली नजर का प्यार था। रफायले को गोद लेने के लिए कुछ कानूनी औपचारिकताएं पूरी करनी थीं, लेकिन पाकिस्तान की जड़तापूर्ण नौकरशाही से पार पाना कठिन था। कुछ लोगों ने उन्हें सुझाया कि उन्हें अग्रणी पारसी वकील रुस्तम कैकोबाद की सेवाएं लेनी चाहिए। रुस्तम पहले तो जरा हिचकिचाए, लेकिन अंतत: वे राजी हो गए और महज एक हफ्ते में ही उन्होंने यह मुश्किल काम कर दिखाया। उन्होंने अपनी फीस के लिए एक रुपया भी नहीं लिया।

अच्छी देखरेख के कारण रफायले की हालत दिन-ब-दिन सुधरने लगी। अपने सांवले रंग-रूप के बावजूद वह अन्य डच लड़कियों-सी ही थी। वह खुशमिजाज और सहृदय लड़की थी और उसके अभिभावकों को उस पर गर्व था। लेकिन तभी एक और दुर्घटना हो गई। जब वह बारह वर्ष की थी, तब उसका एक्सीडेंट हो गया।

उपचार के दौरान डॉक्टरों ने पाया कि उसे ब्रेन टच्यूमर भी है। वह छह हफ्तों तक अस्पताल में रही और उसकी मां ने एक बार भी उसे अकेला नहीं छोड़ा। उसके ऑपरेशन में दस घंटे लगे। डॉक्टरों ने कह दिया था कि उसके बचने की उम्मीदें कम ही हैं, लेकिन इसके बावजूद रफायले ने मौत को एक बार फिर मात दे दी।

हालांकि उसके देखने और सुनने की क्षमता पर इस ऑपरेशन का गहरा असर पड़ा था। उसकी पढ़ाई प्रभावित होने लगी। स्कूल संचालकों ने सुझाया कि रफायले की जगह विकलांग बच्चों के स्कूल में होनी चाहिए, यहां नहीं। रफायले के अभिभावकों के लिए इस स्थिति को स्वीकार पाना मुश्किल था।

आखिर उन्होंने जर्मनी में उसकी एक विशेष थैरेपी करवाई। थैरेपी के तहत रफायले को कड़ा अभ्यास करना पड़ता था, लेकिन उसने अपने निजी जीवन में छड़ी का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह विकलांगता के किसी भी प्रतीक को नहीं अपनाना चाहती थी।

धीरे-धीरे उसके बचपन के दोस्त उससे दूर होते चले गए और वह अकेलेपन का अनुभव करने लगी। उसे अवसाद ने घेर लिया, लेकिन उसके अभिभावकों ने उसका हौसला बढ़ाया। उन्होंने उसे कहा कि वह अन्य लोगों से किसी भी तरह अलग नहीं है और उसे खुद को बेचारा समझने की जरूरत नहीं है।

धीरे-धीरे उसने हालात पर काबू पाना शुरू किया। वह लोगों से मिलने-जुलने लगी। एक बार उसने साइकिल चलाने का साहस भी किया, क्योंकि साइकिल चलाते समय ही उसका एक्सीडेंट हुआ था और उसे अब भी ठीक से दिखाई नहीं देता था। उसने अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाया कि वह भी अपनी मां की तरह नर्स बनेगी और बुजुर्गो की देखरेख करेगी।

उसने अपनी ट्रेनिंग पूरी की और उसे वृद्धों के एक अस्पताल में काम मिल गया। वह एक बहुत अच्छी नर्स साबित हुई और अस्पताल के स्टाफ में उसकी प्रतिष्ठा बन गई। वह आगे बढ़ती गई और कुछ साल बाद उसके पास एक छोटी-सी कंपनी थी, जो वृद्धजनों को आवासीय चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराती थी।

तीन साल बाद जब रफायले अपनी देखने-सुनने की क्षमता पूरी तरह गंवा चुकी थी, तब उसके पिता फर्दिनांद ने एक अहम फैसला लिया। उन्होंने पार्टनरशिप फाउंडेशन नामक एक सामाजिक उद्यम स्थापित करने का निर्णय लिया। फाउंडेशन को रफायले की ही तरह बेसहारा लड़कियों के पुनर्वास के लिए धन जुटाना था और इसके लिए उन्हें 50 घरों का निर्माण करना था। चूंकि पाकिस्तान में यह करना कठिन था, इसलिए उन्होंने भारत का चयन किया।

ठीक इसी समय कोलकाता के एक दूरस्थ क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित गल्र्स स्कूल के गेट के बाहर एक चार वर्षीय लड़की के साथ दुराचार हुआ। स्कूल की प्रिंसिपल सिस्टर सिरिल, जो कि एक आइरिश नन थीं, ने खेद जताया कि उनके स्कूल में शहर के कुलीन वर्ग की बेटियों को शिक्षा दी जाती है, लेकिन उन्हें नहीं, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।

फर्दिनांद की तरह उन्होंने भी एक अहम फैसला लिया कि वे अपने स्कूल के दरवाजे बेघर लड़कियों के लिए भी खोल देंगी। फर्दिनांद को भारत में एक सहयोगी की तलाश थी। उन्होंने सिस्टर सिरिल के बारे में सुना। वे उनसे मिले और उनसे सहायता मांगी।

उनके साझा प्रयासों से कई बेसहारा लड़कियों को शिक्षा मिली। इसके लिए सिस्टर सिरिल को पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। इसके बाद फर्दिनांद की मुझसे भेंट हुई और हम दोनों ने मिलकर तीन वर्ष की अवधि में दिल्ली में 2 और हैदराबाद में 14 गल्र्स होम्स की स्थापना की।

और फिर उस दोपहर को हॉलैंड के गांव द्रिएबेर्गेन में मैंने वह चमत्कार देखा, जब रफायले का बर्ट से विवाह हुआ। बर्ट एक खूबसूरत और शालीन युवा है और उसने रफायले की नैतिक सुंदरता के लिए उसे पसंद किया था। उस क्षण मैंने मानवता के प्रति एक गर्व की भावना का अनुभव किया। मुझे लगा कि इतनी तकलीफों के बावजूद दुनिया में आज भी प्यार, नेकी और भलाई की अपनी अहमियत है।