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छोटे किसानों के हित में- एम के वेणु

अधिकांश विदेशी राजनयिकों और आर्थिक विशेषज्ञों की सोच है कि व्यापार सुगमता समझौता (टीएफए) पर तब तक हस्ताक्षर न करने की बात कहकर, जब तक कि खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में एक अरब भारतीयों की चिंता दूर नहीं कर दी जाती, भाजपा ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी की भारत यात्रा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिया बयान स्थितियां स्पष्ट करने वाला था। मोदी का कहना था कि व्यापार सुगमता समझौता भारत के लिए बेहतर जरूर है, लेकिन इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा से जुड़े सवालों का हल निकालना भी आवश्यक है।

उनकी इस टिप्पणी को घरेलू राजनीति के संदर्भ में समझने की जरूरत है। प्रधानमंत्री उन छोटे किसानों को, जिनके पास पांच एकड़ से कम जमीन है, आर्थिक नीति निर्माण के केंद्र में ले आना चाहते हैं। देश में करीब 80 फीसदी किसानों के पास पांच एकड़ से भी कम जमीन है। राष्ट्र की खाद्यान्न जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त उत्पादन तभी संभव है, जब ये छोटे किसान खुशहाल होंगे। लिहाजा छोटे किसानों के हितों की रक्षा सीधे-सीधे लाखों भारतीयों की खाद्य सुरक्षा से जुड़ी हुई है।

यह जानते हुए भी, कि टीएफए का विरोध कर भारत विकासशील देशों की बिरादरी में अलग-थलग पड़ जाएगा, भाजपा ने विश्व व्यापार संगठन के खिलाफ जाने का फैसला क्यों लिया? इसका जवाब संभवतः मोदी के उस वायदे में छिपा है, जिसमें उन्होंने एक नई तरह की राजनीतिक अर्थनीति की बात कही थी, और जो गांधी, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय की सोच पर आधारित होगी। बेशक यह विचार सरकारी योजनाओं में अब तक परिवर्तित नहीं हो पाया है, लेकिन कोई भी इसे भाजपा के घोषणापत्र में आकार लेते हुए देख सकता है, जिसके तहत आर्थिक नीति में कृषि क्षेत्र के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान देने की बात कही गई है।

लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में किसानों ने, जिनमें ज्यादातर समाज के निचले तबके से थे, भाजपा को वोट दिया। ऐसे में, मोदी अब मानते हैं कि वह उनकी आकांक्षाओं को उस सामाजिक-आर्थिक ढांचे में साकार कर सकते हैं, जो गांधी और लोहिया द्वारा प्रतिपादित आत्मनिर्भर, टिकाऊ और पर्यावरण हितैषी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित होगी। दीनदयाल उपाध्याय की भी सोच थी कि तमाम वृहद आर्थिक नीतियां छोटे किसानों का हित साधने वाली अर्थनीति के जरिये ही संचालित होनी चाहिए। जीन संवर्धित बीजों की खेती के जमीनी परीक्षण की समीक्षा के लिए सरकार को बाध्य कर स्वदेशी जागरण मंच ने इसी नई सोच को गति दी है। इन पंक्तियों के लेखक से भी एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री ने निस्संकोच कहा कि सरकार 'गांधी-लोहिया-दीनदयाल' की सामाजिक आर्थिक सोच को साकार करने की कोशिश कर रही है। उनका यह बयान विश्व व्यापार संगठन में सरकार के बदलते रुख के संदर्भ में था।

लेकिन यहां समस्या यह है कि जिस गांधीवादी ढांचे की बात की जा रही है, वह अमूर्त है। वह अमूर्त इसलिए है, क्योंकि ऐसी कोई वास्तविक योजना अब तक तैयार नहीं हो सकी, जो बता सके कि कृषि सहित हर क्षेत्रों में जड़ जमा चुकी औद्योगिक पूंजी और तकनीक के इस दौर में एक आत्मनिर्भर, ग्रामीण अर्थव्यवस्था कैसे आकार लेगी। क्या विश्व व्यापार संगठन के भीतर आर्थिक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया गांधीवादी मॉडल के अनुरूप है? ये ऐसे मौलिक सवाल हैं, जिन्हें अब तक सामूहिक रूप से हमने नजरंदाज किया है।

गांधीवादी मॉडल खपत के ऐसे तरीकों की वकालत करता है, जो आडंबरहीन और सादगीपसंद आदतों और पर्यावरण हितैषी सार्वजनिक वस्तुओं के संरक्षण पर टिका है। क्या उपभोक्तावाद में जीता देश का महत्वाकांक्षी युवा खपत के इस गांधीवादी मॉडल को स्वीकार करेगा? यह बहस बहुत महत्वपूर्ण है। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि एक अरब भारतीय उन वस्तुओं का उपभोग कर पाने में अब भी समर्थ नहीं हैं, जिनका प्रयोग पश्चिमी समाज पिछली एक सदी से कर रहा है। उपभोग का यह तरीका संसाधनों की आक्रामक और अधिकाधिक दोहन पर आधारित है, जो लंबे समय तक कायम नहीं रह सकता। क्या यह मानना चाहिए कि विश्व व्यापार संगठन में भारत का रुख इन्हीं चिंताओं का संकेत है? हमें इस पर बहस करने की जरूरत है।

बहरहाल, कुछ ऐसी भी खबरें आई हैं कि अगर विश्व व्यापार संगठन कृषि में मौजूद विसंगतियों के स्थायी समाधान होने तक भारत को खाद्यान्न की सरकारी खरीद कार्यक्रम चलाने की अनुमति देता है, तो भाजपा व्यापार सुगमता समझौते का समर्थन कर सकती है। भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को यह बताना शुरू कर दिया है कि उसने इस समझौते पर हस्ताक्षर क्यों नहीं किए। संभव है कि पार्टी अगले कुछ महीनों में अपने किसान मतदाताओं तक पहुंच बनाए और उसे बताने की कोशिश करे कि बेहतर कृषि समझौते के लिए उसने विश्व व्यापार संगठन को चुनौती दी है।

आगामी विधानसभा चुनाव के लिहाज से भाजपा का यह कदम उसके लिए राजनीतिक फायदे का सौदा साबित हो सकता है। लेकिन दीर्घावधि में सरकार को अपना वह वायदा पूरा करना ही होगा, जिसमें एक अरब लोगों के लिए रियायती दरों पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किए जाने की उसने बात कही थी। कृषि क्षेत्र में मोदी सरकार का प्रदर्शन कुछ वर्षों बाद इसी आधार पर आंका जाएगा। विश्व व्यापार संगठन से टकराने की सार्थकता तभी है, जब मोदी किसानों से किए गए वायदों पर खरा उतरें।