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जंगल-जमीन बचाने के लिए सतपुड़ा में आंदोलन- बाबा मायाराम

इन दिनों सतपुड़ा के जंगलों के आदिवासी आंदोलित हैं। इसकी एक झलक होशंगाबाद में जब दिखाई दी तब आदिवासियों के जोशीले नारों से यहां की गलियां गूंज उठीं। दूरदराज के गांवों से सैकड़ों की तादाद में यहां आकर आदिवासियों ने जता दिया कि शेर पालने के नाम पर उनकी रोजी-रोटी पर लगाई जा रही रोक उन्हें मंजूर नहीं है। इसका पूरी ताकत से विरोेध किया जाएगा।

इस जुलूस का फौरी असर यह हुआ  किया कि कलेक्टर को अपने लोहे के गेट खोलकर आदिवासियों को बातचीत के लिए बुलाना पड़ा। और अब खबर आई है कि मुख्यमंत्री ने भी कहा है कि अगर स्थानीय लोग प्रस्तावित कानून का विरोध कर रहे हैं तो इस पर विचार किया जाएगा। और जरूरत पड़ी तो इसे बदला जाएगा।

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में गत 3 मई को नर्मदा किनारे से जब आदिवासियों की रैली शुरु हुई और छोटी गलियों व सड़क से होती हुई कलेक्टर कार्यालय पहुंची। इतनी बड़ी संख्या में ग्रामीणों को देखकर शहरवासी भौचक्के रह गए। वे अपने मकानों और दुकानों से आदिवासियों को देखने बाहर निकल आए। करीब हजार भर आदिवासियों में आधी महिलाएं थी, जिनमें से कई शायद पहली बार आई और जब वे नारे लगा रही थी तब उनका उत्साह देखते ही बन रहा था।

 जल, जंगल, जमीन और जीवन बचाओ की इस रैली में रंगबिरंगी पोशाकों में महिलाएं रैली की अगली पंक्ति में चल रही थीं। सुंदर क्यारी सी सजी उनकी टोली आकर्षण का केंद्र थी, जिसमें बुजुर्ग महिलाओं से लेकर स्कूली बच्चियां भी शामिल थीं।  एक पिता अपने छोटे बेटे को लेकर आया था जिसकी वह अंगुली पकड़कर जुलूस में चल रहा था। साथ में उनके बेटा भी मुटठी बांध कर हवा में हाथ नारा लगा रहा था। रैली में आदिवासी खुद चंदा करके अपने गांवों के ट्रेक्टर-ट्राली से आए थे, जैसे नर्मदा स्नान करने जाते हैं। इस रैली का आयोजन समाजवादी जन परिषद व किसान आदिवासी संगठन ने किया था।

कलेक्टर कार्यालय में पहुंचकर आदिवासियों ने जमकर नारेबाजी की। मढ़ई मास्टर प्लान को रद्द करो, आदिवासियों को उजाड़कर शेर पालना बंद करो आदि। चिलचिलाती धूप में घंटे भर बाद कलेक्टर कार्यालय से संदेश आया और लोहे का खुला और कलेक्टर ने आदिवासियों की बात सुनी और आश्वासन दिया कि वे उनकी बात उपर तक पहुंचा देंगे। यहां कलेक्टर के माध्यम से मुख्यमंत्री के नाम एक ज्ञापन भी सौंपा गया जिसमें कहा गया कि मढ़ई निवेश योजना को रद्द किया जाए।

ज्ञापन में कहा गया कि इसके तहत जो खेती, सिंचाई व मकान बनाने पर जो प्रतिबंध लगाए  जा रहे हैं, वह हमें मंजूर नहीं है। यह योजना पर्यटन एवं रिसोर्ट का धंधा करने वालों के हित में है। इसकी लिखित आपत्ति ग्रामवासियों द्वारा 24 अप्रैल को भोपाल जाकर आवास व पर्यावरण विभाग के सचिव को दे दी गई है।

ज्ञापन में कहा गया है कि हम इलाके के पुराने एवं मूल निवासी हैं। खेती, पशुपालन, मछली, वनोपज संग्रह एवं मजदूरी से पेट भरते हैं, पहले तवा जलाशय बनने से देनवा में हमारे गांव, जमीन, जंगल डूब गए। सतपुड़ा टाईगर रिजर्व बनने से हमारे निस्तार पर रोग लगने से हमारा जीवन प्रभावित हो रहा है। यह योजना का मूल उद्देश्य पर्यटन को बढ़ावा देना है। इसमें नए रिसोर्ट खोलने का प्रस्ताव है।  जबकि स्थानीय लोगों का कोई ध्यान नहीं रखा गया है।

ज्ञापन के मुताबिक योजना को बनाने में ग्रामीणों से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया है। ग्रामसभा से भी कोई अनुमति नहीं ली गई है और न ही ग्राम पंचायत को इसकी कोई जानकारी दी गई।

सतपुड़ा के जंगलों के बाशिन्दों पर हाल में आया यह संकट सतपुड़ा टाईगर रिजर्व का बफर जोन व मढ़ई निवेश योजना के तहत लगाई जा रही कई तरह की रोक है। खेेती, सिंचाई, और मकान बनाने पर रोक लगाई जा रही है। 2 अप्रैल को प्रस्तावित मढ़ई मास्टर प्लान टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग ने जारी किया है जिसके तहत 7 गांवों श्रीरंगपुर, रैनीपानी, कामती, घोघरी, टेकापार, बीजाखारी, सारंगपुर को षामिल किया है। इससे आदिवासियों की रोजी-रोटी पर संकट  आ गया है।

ढाबा गांव के आदिवासी व तवा मत्स्य संघ के अध्यक्ष मोतीराम का कहना है कि सरकार आदिवासियों को भगा रही है और शेरों को पाल रही है। पूंजीपति व उद्योगपतियों को जंगलों में वन पर्यटन के नाम पर बुला रही है।

टेकापार गांव के सुंदर दादा कहते हैं हम यहां जंगलों में पुश्त-पुश्तान से रह रहे हैं। जंगली जानवरों व मनुष्य साथ साथ रहते आए हैं । वे भी रहते हैं और हम भी। बल्कि जंगली जानवर भी आदमियों के सहारे से जंगलों में रहते हैं। कहीं कोई विरोध नहीं हैं।

किसान आदिवासी संगठन के कार्यकर्ता व जिला पंचायत सदस्य फागराम मढ़ई मास्टर प्लान का कड़ा विरोध करते हुए कहते हैं कि इसके तहत रासायनिक खेती पर रोक लगाई जा रही है। यह सही है रासायनिक खेती से पर्यावरण का नुकसान होता है। लेेकिन क्या सरकार इसके लिए आदिवासियों के साथ कोई बात कर रही है? कानून बनाकर प्रतिबंध लगाना आपत्तिजनक है। फिर सरकार ने ही पूरे देश में रासायनिक खेती को बढ़ावा दिया है। अगर रासायनिक खेती से नुकसान है तो सभी जगह बंद होनी चाहिए। सिर्फ कुछ गांवों में ही प्रतिबंध क्यों? इससे तो गरीब आदिवासियों के सामने रोजी-रोटी की समस्या सामने आ जाएगी?

सतपुड़ा घाटी का होशंगाबाद जिला एक तरह से विस्थापित का  जिला बन गया है। कई परियोजनाओं से आदिवासियों का विस्थापन हुआ है और यह सिलसिला अब भी जारी है। अब तक तवा बांध, प्रूफरेंज, आर्डिनेंस फैक्ट्री, सतपुडा राष्ट्रीय उद्यान से कुल मिलाकर 80 गांव विस्थापित किए जा चुके हैं।

होशंगाबाद जिले में वन्य प्राणियों के लिए तीन सुरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं- सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, बोरी अभयारण्य और पचमढ़ी अभयारण्य। तीनों को मिलाकर सतपुड़ा टाईगर रिजर्व बनाया गया है। सतपुड़ा टाईगर रिजर्व का क्षेत्रफल करीब 1500 कि.मी. है। इसमें आदिवासियों के लगभग 75 गांव हैं और इतने ही गांव बाहर इसकी सीमा से लगे हुए हैं। इनमें से गांव हटाने की प्रकिया जारी है। बोरी अभयारण्य के चार गांव विस्थापित किए जा चुके हैं।

सतपुड़ा टाईगर रिजर्व के तहत जंगल के अंदर से गांवों को बाहर लाया जा रहा है। अब तक चार गांव- धांई, बोरी, साकोट और खकरापुरा को बाहर लाया जा चुका है। इनमें से तीन गांव धांई, बोरी और साकोट को होषंगाबाद जिले के बाबई विकासखंड में बसाया गया है। जबकि एक गांव खकरापुरा को बैतूल जिले में बसाया गया है।

इन गांवों को बसाने के लिए भी बाहर का जंगल साफ किया जा रहा है क्योंकि अब कहीं कोेई खाली जमीन नहीं है। पहले विस्थापित गांव धांई को ही बसाने के लिए करीब 40 हजार पेड़ों को काटा गया। इसके बड़ी बिडंवना और क्या होगी कि षेरों को बचाने की कोशिश का प्रयास जंगल काटकर किया जाए।

जंगल के अंदर से विस्थापित गांव के परिवार के हरेक वयस्क व्यक्ति को पहले जमीन दे रहे थे, अब जमीन नहीं दे रहे हैं। अब कह रहे हैं कि घर के मुखिया को ही जमीन देंगे। लेकिन जिनको जमीन मिली भी है, उनका कहना है वह हल्की व सिंचाई की कोई पर्याप्त व्यवस्था भी नहीं है।

समाजवादी जन परिषद के  राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व आदिवासियों के बीच बरसों से काम कर रहे सुनील भाई का कहना हैं कि वन्य प्राणी संरक्षण की वर्तमान योजनाएं दोषपूर्ण हैं। वन्य प्राणी संरक्षण की योजनाओं में आदिवासियों की भागीदारी की सोच नहीं है। उल्टे उन्हें अपने पारंपरिक अधिकारों से वंचित कर विस्थापित किया जा रहा है। इससे न वन बचेगा और न ही वन्य प्राणी।

उनका कहना है कि मनुष्य और वन्य प्राणियों में टकराव है, इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ है। यह एक  अंधविश्वास है। इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।  वन्य जीव संरक्षण के लिए कोई विस्थापन का औचित्य नहीं है। षेर बचाने के लिए आदिवासियों को जंगल से भगाने की जरूरत नहीं है। वे तो हजारों सालों से साथ-साथ रहते आए हैं। इसी प्रकार मढ़ई मास्टर प्लान के तरह आदिवासियों की खेती, सिंचाई व मकान बनाने पर रोक लगाने की जरूरत नहीं है। इस पर पुनर्विचार करना चाहिए, अन्यथा आदिवासियों का जीवन और कठिन होता जाएगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और विकास संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं)