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जंगल से सीखें कुपोषण का इलाज- प्रताप सोमवंशी

ओडिशा देश के पिछड़े राज्यों में से एक है। इस राज्य के आदिवासी इलाके अकाल, भुखमरी, कुपोषण के विशेषण को अपनी पहचान के साथ ढोते रहते हैं। इन्हीं आदिवासी इलाकों का एक दूसरा सच भी जान लीजिए- लिविंग फार्म की ओर से दो जिलों के छह गांवों की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक यहां खाने-पीने की 121 चीजें पाई जाती हैं। इनमें 30 किस्म के मशरूम, जिसे स्थानीय बोली में छाता कहते हैं, 26 प्रकार की पत्तियों वाली सब्जियां और आलू व शकरकंद की तरह 23 प्रकार के कंद शामिल हैं। इन गांवों में 14 प्रकार के फल भी पाए जाते हैं। इस विवरण को देश के स्तर पर देखें और अलग-अलग संगठनों की संग्रह सूची को मिलाएं, तो कुल 1,600 किस्मों के फल, सब्जियां, अनाज और फूल की प्रजातियां हमारी प्राकृतिक संपन्नता के उदाहरण देती हैं। कितनी प्रजातियां तो नष्ट हो गईं, उन पर बात फिर कभी और। अभी जो हैं, उन्हें बचाने और बढ़ाने की आवश्यकता पर बात करते हैं।

देखा जाए, तो कुपोषण से लड़ने का सारा सूत्र प्रकृति ने यहीं सौंप रखा है, बस हमारी नीतियों की नजर यहां तक नहीं जाती। सब भूख से लड़ने का इलाज सिर्फ दो रुपये किलो चावल देने में तलाश रहे हैं। होना यह चाहिए था कि जंगल की इन विविध पोषक वस्तुओं की हम कद्र करते और इससे पूरे देश की थाली में पोषक तत्वों की उपस्थिति बढ़ती। जंगल में मौजूद विविध प्रकार की खाद्य वस्तुओं को भी खाद्य सुरक्षा की योजनाओं में शामिल करके इसे भी कार्यक्रम का हिस्सा बनाते।

जंगल से मिलने वाली इन सभी खाद्य सामग्रियों में पोषक तत्वों की प्रचुरता कभी भी देखी-परखी जा सकती है। आदिवासियों के पूरे भोजन चक्र में बाकायदा महीने और मौसम के हिसाब से खान-पान का पूरा इंतजाम बना रहा है। ठीक वैसे ही, जैसे हमारे मैदानी क्षेत्रों के गांवों की परंपराओं में मौजूद है। हजारों साल से आदिवासी अपने इन्हीं अतिरिक्त पोषक तत्वों वाले अन्न, फल व सब्जी पर जीवन जीते आए हैं।

दरअसल, हुआ यह है कि आबादी बढ़ी, जंगल घटे और सरकार का जंगल पर नियंत्रण बढ़ता चला गया। नतीजा यह हुआ कि आदिवासियों में भूख और कुपोषण से होने वाली मौतें बढ़ने लगीं। सरकारों ने फिर चावल और गेहूं देने की योजनाएं बनाईं। अब फिर से जन्म-मृत्यु दर के घटने और सरकारों के सफल होने के आंकड़े बांटे जा रहे हैं। खाद्य सुरक्षा के नाम पर आदिवासी इलाकों को दो रुपये किलो चावल की योजना को हर सियासी दल अंतिम हल के तौर पर बता-सुना रहा है। यह समझा ही नहीं जा रहा कि खाली चावल और आलू खाने से कुपोषण नहीं खत्म होने वाला।

गजब का विरोधाभास देखिए। शहरों के समझदार लोगों ने अपने खाने में तरह-तरह के अनाज व दालों को पोषण के लिहाज से शामिल कर लिया है। मल्टीग्रेन आटा एक ऐसा महंगा उत्पाद बन चुका है कि लगभग हर बड़ा आटा ब्रांड इसका उत्पादन कर रहा है। जौ, बाजरा, रागी महंगी कीमतों पर ऑर्गेनिक स्टोर्स पर उपलब्ध हैं। जिन आदिवासियों के भोजन चक्र में ये पहले से शामिल थे, उनकी थाली से ये सब अनाज गायब होते जा रहे हैं।

प्रकृति अगर विविधता में नहीं बची, तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा। मेघालय के किसान लुमलैंग का एक अनुभव जानिए, आपको विविधता का अर्थ और महत्व आसानी से समझ में आ जाएगा। लुमलैंग के पास मौसम्मी के बाग हैं। इनके मुताबिक, 30 साल पहले एक पेड़ से अगर औसत 100 फल मिलते थे, तो इस समय फलों की संख्या 20 तक रह गई है। विविध किस्म के पेड़ों वाले जंगल धीरे-धीरे खत्म हुए, लोगों ने नकद फसल के मोह में बूमस्टिक के झाड़ उगाने शुरू किए। उससे वे चिड़ियां अब पहले की तरह नहीं आतीं, जो मौसम्मी में लगने वाले कीड़े खा जाया करती थीं। अब कीड़े मौसम्मी खा जाते हैं। उत्पादन इसी कारण पांच गुना तक गिर गया है। यानी उत्पादन को विविधता के साथ ही देखा जा सकता है। ऐसा संभव ही नहीं है कि आप सिर्फ मौसम्मी के अपने बाग बचा लें, बाकी सब पेड़-पौधे रहें न रहें।

सरकारी नीतियों के नतीजे के तौर पर जंगल के दोहन की स्थिति ज्यादा दिखती है, संरक्षण की कम। जहां-जहां जंगल बचे हैं, उनमें वहां के स्थानीय निवासियों की बड़ी भूमिका रही है। देश के किसी हिस्से के आदिवासी समुदाय से जब भी मैंने बातचीत की, तो उनके पास दर्जनों ऐसे किस्से मिले, जिनमें जंगल को बचाने के लिए उन्हें वन विभाग के अफसरानों से टकराना पड़ा। पड़ताल की जाए, तो हजारों मुकदमे इस संबंध में अदालतों में लंबित मिलेंगे। वन विभाग के अफसरों, राजनीतिज्ञों और माफियाओं के गठजोड़ की पूरी कथा सुनने को मिलेगी। नक्सलियों के लिए ये मुकदमे उन इलाकों में प्रवेश-द्वार की तरह मिले हैं। आदिवासी राज्यों में वन मंत्रालय सबसे मालदार विभाग माना जाता है। कैग की कोई भी रिपोर्ट देख लें, भ्रष्टाचार की आंकड़ाबद्ध दस्तावेजें मिल जाएंगी।

सरकारें एक तरफ तो वन और वन्य जंतु संरक्षण की बात करती हैं। दूसरी तरफ, वहां मौजूद खनिजों के लिए बड़े कारोबारियों को पूरा जंगल सौंपने को विकास के लिहाज से जरूरी कदम बता देती हैं। दोनों के बीच संतुलन की कोई गुंजाइश कभी दिखाई पड़ती नहीं। नतीजा यह होता है कि उस क्षेत्र की जैव-विविधता को तबाह होने से कोई बचा भी नहीं पाता।

अगर किसी से कहें कि उत्तराखंड में विजय जड़धारी राजमा की 200 किस्में सहेजते हैं, तो लोग चौंकते तो हैं, मगर सरकार और नीतिकारों के लिए उनका यह काम सबक नहीं बनता। देश के किसान संगठन और किसान आंदोलन के लोग अपने-अपने क्षेत्र की तात्कालिक समस्याओं से आगे देख हीं नहीं पाते हैं। सरकारों से मांग करने, धरना देने के बीच इस तरह के सवालों पर समझदारी बनाने का काम भी वे करते, तो चीजें कुछ बेहतरी की ओर बढ़ती नजर आतीं।

संकट तो यह है कि हमने अपनी नासमझी का छूत रोग आदिवासियों की नई पीढ़ी को भी लगा दिया है। उनके यहां भी छात्रावास गए बच्चों को पता ही नहीं होता कि जंगल उन्हें क्या देता है? वे भी अब तरक्की का मतलब जंगल से बाहर शहरी दुनिया में अपने लिए एक ठिकाना ढूंढ़ने को जीवन की सबसे बड़ी सफलता मानते हैं।
यदि हमने यह मान लिया कि बाहर से मंगाकर सस्ता अनाज बांट देने और आदिवासी बच्चों को छात्रावासों में पढ़ा देने से ही विकास हो जाएगा। जंगलों के धीरे-धीरे खत्म होते जाने और खनिज व दूसरे वनोपजों के लिए बाहरी कारोबारियों को लीज पर सब कुछ सौंप देने से सारी तरक्की हो जाएगी, तो हमारी यह समझ आने वाले दिनों में संकट को कई गुना बड़ा करके हमारे सामने रख देगी।