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जजों की नियुक्ति : अपने-अपने तर्क

कॉलेजियम सिस्टम पर चल रही बहस के दो छोर हैं। एक का दावा है कि हमारे देश के सर्वशक्तिमान न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले का अधिकार कुछ न्यायाधीशों के पास केवल इसलिए रहना चाहिए, क्योंकि वे न्यायपालिका परिवार का हिस्सा होने के कारण उनके बारे में बेहतर समझ रखते हैं। दूसरा छोर कहता है कि उसमें आम जनता के नुमाइंदों की भी भागीदारी होनी चाहिए, क्योंकि न्यायाधीश केवल न्यायपालिका के ही नहीं, बल्कि पूरे समाज कि हितरक्षक होते हैं और उनकी नियुक्ति प्रक्रिया में आम जनता की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को स्वर मिलना चाहिए। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की सिफारिशों से जुड़ी व्यवस्था को रद्द करने के लिए तीन कारण दिए गए। पहला, यह कि न्यायिक नियुक्तियों में गैरन्यायिक सदस्यों के होने के कारण न्यायपालिका के लोग अल्पमत में आ जाएंगे, जिससे न्यायिक सर्वोच्चता बरकरार नहीं रह पाएगी।

 

दूसरा, यह कि इस प्रकार की नई व्यवस्था की वजह से न्यायिक स्वतंत्रता को चोट पहुंचेगी जो संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करेगी और तीसरा, यह कि न्यायिक परिवार की जरूरतों के बारे में न्यायपालिका के लोगों के पास ही समुचित जानकारी और समझ होती है जिससे अन्य लोगों के आने पर उस प्रक्रिया की गुणवत्ता प्रभावित होगी। शुरू में इस तरह का कोई विवाद नहीं था। संविधान में यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। अनुच्छेद 124 और 217 में राष्ट्रपति से जरूर यह अपेक्षा की गई थी कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय देश के मुख्य न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वहां के राज्यपाल से भी मशविरा करें। तमाम दूसरे लोकतांत्रिक देशों में भी न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के पास ही है। अमेरिका में तो इसे और भी अधिक पारदर्शी बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के चयन को सीनेट में मंजूरी के लिए भेजे जाने से पहले जन सुनवाई जैसी व्यवस्था है। इस प्रक्रिया में न्यायाधीश के रूप में संस्तुत किए गए व्यक्ति के बारे में उपलब्ध सभी पहलू न्यायिक समिति के सामने लाए जाते हैं। उसकी पृष्ठभूमि की व्यापक छानबीन होती है। उन पर व्यापक चर्चा होती है इसलिए चूक की गुंजाइश नहीं रह जाती। 1993 से पहले हमारे यहां भी इस विषय पर कोई विवाद नहीं था।

 

इस साल सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के मामले में न्यायपालिका की राय को सर्वोच्चता देने की बात कही। नौ न्यायाधीशों की पीठ ने मत व्यक्त किया कि न्यायाधीश चूंकि न्यायिक परिवार का हिस्सा होता है इसलिए उसके बारे में जितनी समझ न्यायाधीशों को होती है, उतनी दूसरों को नहीं हो सकती। इसलिए उसकी नियुक्ति और स्थानांतरण से जुडेÞ विषयों पर न्यायपालिका को ही निर्णय लेना चाहिए। इसे अंजाम देने के लिए न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम की परिकल्पना की गई, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और कुछ अन्य वरिष्ठ न्यायधीश हों। संविधान पीठ के कुछ न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में न्यायिक स्वायत्ततता और निष्पक्षता के लिए इस कदम को जरूरी बताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अपने वरिष्ठ साथियों के कॉलेजियम की मदद से इसे अंजाम देंगे। इस मुकदमें में, चूंकि, कॉलेजियम के न्यायाधीशों की संख्या और सहयोगियों न्यायाधीशों की भूमिका के बारे में बहुत कुछ साफ नहीं था इसलिए इसके क्रियान्वयन में शुरू से ही व्यावहारिक दिक्कतें आने लगीं। कॉलेजियम सिस्टम की विश्वसनीयता को पहला झटका तब लगा जब इसकी शुरूआत के साथ ही इस पर विवाद शुरू हो गया।

 

धीरे-धीरे यह साफ होने लगा कि कॉलेजियम के नाम पर मुख्य न्यायाधीश मनमाना फैसले ले रहे हैं। अन्य न्यायाधीशों की राय को तरजीह नहीं देने की बातें भी सामने आने लगीं, लेकिन सब कुछ इतना गोपन था कि इस पर स्वस्थ बहस नहीं हो सकी। यह सब कुछ उस समय सतह पर आ गया जब 1998 में मुख्य न्यायाधीश मदन मोहन पुंछी ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए मनमाने ढंग से अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को भेज दीं। सरकार ने उसे रोक लिया और कॉलेजियम और मुख्य न्यायाधीश के संबंध में सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। नौ सदस्यीय संविधान पीठ की ओर से न्यायमूर्ति एसपी भरूचा ने कॉलेजियम व्यवस्था को विस्तार से परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि उसमें मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठ न्यायाधीश होंगे, निर्णय यथासंभव सर्वानुमति से लिया जाए और किसी नाम पर अगर कॉलेजियम के दो सदस्य असहमत हों तो उसका नाम नहीं भेजा जाएगा। सैद्धांतिक रूप से यह व्यवस्था अब तक कायम है।

 

कॉलेजियम व्यवस्था शुरू होने के बाद से समाज में व्यापक बदलाव आया है। समाज पारदर्शिता के प्रति आग्रही हो गया है और अब अपने आसपास के घटनाक्रमों पर बारीकी से नजर रख रहा है। मीडिया की व्यापकता ने छोटी-छोटी बातों तक भी समाज की पैठ बना दी है। दुर्भाग्यवश इस बीच न्यायाधीशों की सत्यनिष्ठा पर अंगुली उठी है। दो मामले में तो मामला महाभियोग तक भी पहुंच चुका है। कम से कम पैंतीस छोटे-बड़े मामलों में न्यायाधीशों की भूमिका सार्वजनिक तौर पर सवालों के घेरे में रही है। अवमानना कानून को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की खबरें अब आम होती जा रही हैं। ऐसे माहौल में कॉलेजियम सिस्टम की साख पर अंगुली उठना इसलिए लाजिमी है कि क्योंकि यह अपने उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर कॉलेजियम सिस्टम के बावजूद न्यायाधीशों की सत्यनिष्ठा पर गंभीर आरोप लग रहे हैं तो उस पर पुनर्विचार क्यों न किया जाए। ऐसी परिस्थिति में संविधान में संशोधन करके राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की स्थापना को हरी झंडी दी गई, जिसे न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और अन्य प्रशासनिक मामलों को निपटाने का अधिकार दिया गया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया।

 

इस निर्णय को देते समय सुप्रीम कोर्ट को कॉलेजियम सिस्टम में अंतर्निहित खामियों का अंदाज था, इसलिए उन्होंने इस व्यवस्था में सुधार के लिए सुझाव मांगा है, जिसकी सुनवाई चल रही है। न्यायपालिका के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि अपनी कमियों को दूर करने के लिए सुझाव मांगा है सुप्रीमकोर्ट ने। मौजूदा कॉलेजियम सिस्टम का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह गोपनीयता के अंधेरे में काम करता है। ऐसे देश में जहां पर पारदर्शिता की संस्कृति विकसित करने में न्यायपालिका की सबसे बड़ी भूमिका रही हो, न्यायाधीशों की नियुक्ति जैसे अहम मामले में सब कुछ गोपनीय रखने के प्रति उसका आग्रही होना समझ से परे है। हमारे देश में न्यायाधीशों को बहुत महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई है। वे नागरिक अधिकारों के प्रहरी हैं। देश भर से चुन कर आए सांसदों द्वारा पारित कानून पर एक न्यायाधीश रोक लगा सकता है। देश के करोड़ों लोग अपनी परेशानी के क्षणों में अदालतों पर भरोसा करते हैं। बाढ़, सूखा और महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी आम आदमी को अदालतों ने राहत पहुंचाई है। ऐसे में न्यायाधीश अब केवल न्यायपालिका के परिवार का सदस्य मात्र नहीं है। वे करोड़ों लोगों के भरोसे के केंद्र भी हंै। इसलिए उनकी नियुक्ति को न्यायपालिका का आंतरिक मामला नहीं माना जा सकता। न्यायालय की प्रतिष्ठा उसके किसी भी इकाई की प्रतिष्ठा से बहुत बड़ी है और न्यायालय की प्रतिष्ठा तब बढ़ेगी जब उसमें अच्छे लोगों की नियुक्ति होगी।

 

1993 में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में लेते हुए यह कहा था कि न्यायाधीश न्यायिक परिवार के हिस्सा होते हैं, इसलिए उनकी नियुक्ति और स्थानांतरण से संबंधित मामलों में निर्णय लेने का अधिकार न्यायालय के पास होना चाहिए। उस समय से अब तक देश की नदियों में बहुत पानी बह चुका है समाज की सोच में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है आम आदमी के सुख-दुख को आत्मसात करके उन्हें राहत पहुंचाने वाले न्यायाधीश को केवल न्यायिक परिवार का हिस्सा बताकर हम उसकी प्रतिष्ठा को कम करते हैं। ऐसा करके हम इस सोच को भी बढ़ावा देते हैं कि वह न्यायिक परिवार का हिस्सा होने के कारण केवल उसी के प्रति जवाबदेह है। समाज इसे अब मानने को तैयार नहीं है। आम जनता यह मानती है कि न्यायाधीश इस देश के पूरे समाज का हिस्सा हैं। वे भारत के लोगों का गौरव हंै। इसलिए अब समय आ गया है कि हम उसकी नियुक्ति और स्थानांतरण जैसे महत्त्वपूर्ण मामलों को न्यायिक परिवार के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसमें आम लोगों को भागीदार बनाएं। इसके लिए कॉलेजियम व्यवस्था की निर्णय प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

 

न्यायाधीशों की नियुक्ति से पहले उनकी पृष्ठभूमि के व्यापक छानबीन की जरूरत है। इसमें अमेरिका के अनुभवों से हम सीख सकते हैं। वहां पर न्यायाधीश के रूप में नामित किए जाने वाले व्यक्ति को सार्वजनिक कर दिया जाता है। सीनेट की न्यायिक समिति देश के आम और खास लोगों से उस व्यक्ति के बारे में जानकारी मांगती है। लोगों को अपना पक्ष रखने का मौका मिलता है। तय समय सीमा के अंदर उस पर विचार करके निर्णय होता है और इस तरह से असंदिग्ध सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने का मौका मिलता है। कॉलेजियम सिस्टम भी जरूरत के मुताबिक संशोधन करके इस व्यवस्था को अपना सकता है। कॉलेजियम सिस्टम के सामने दूसरी चुनौती यह होगी कि वह न्यायाधीशों की जवाबदेही कैसे सुनिश्चित करे? संविधान में न्यायाधीशों की छोटी-मोटी गलतियों की कोई सजा नहीं होती है। उन पर या तो महाभियोग लग सकता है या कुछ भी नहीं हो सकता है। महाभियोग की कार्यवाही इतनी जटिल और संवैधानिक व्यवहारिकता के लिहाज से इतनी मुुश्किल है कि वह संभव नहीं हो पाता। इसलिए न्यायाधीशों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है। अपने भीतर के ही भ्रष्ट लोंगो को अनुशासित रखने के मामले में हमारी न्यायपालिका के नाम कोई गौरवगाथा फिलहाल नहीं जुड़ पाई है। दूसरों की गलतियों के लिए कठोरतम सजा देने वाले न्यायाधीशों के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज करना आसान नहीं है। प्राविडेंट फंड घोटाले के अभियुक्तों के खिलाफ प्राथमिकी इसलिए दर्ज नहीं हो सकी क्योंकि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने अनुमति ही नहीं दी। जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ आपराधिक दुर्विनियोग के साबित आरोपों के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। जस्टिस निर्मल यादव के ऊपर तो चार्जशीट तक दाखिल हो गई, लेकिन कार्रवाई का अभी तक इंतजार है। मुख्य न्यायाधीश बालकृष्णन ने उनका स्थानांतरण करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। इसी तरह कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दिनाकरन भी उन लोगो में से हैं जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के पुष्ट आरोपों के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। शायद यही कारण है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल ने जब अदालतों में भ्रष्टाचार पर सर्वेक्षण कराया तो सतहत्तर प्रतिशत लोगों ने माना न्यायापालिका में भ्रष्टाचार है। यह चिंता का विषय है क्योंकि इस चुनौती से निपटने की दिशा में कोई पहल नहीं हो पा रही है। दुर्भाग्यवश न्यायपालिका के संबंध में एक गलतफहमी बढ़ती जा रही है कि वह अवमानना कानून को ढाल बनाकर अपनी कमियों को छिपाए रहती है। आवाज उठाने वालों के खिलाफ उसका हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है। गलती के बावजूद उसका कुछ बाल बांका नहीं होता। आम आदमी को देखकर आश्चर्य होता है कि जिस अपराध के लिए देश के सामान्य लोगों को वर्षों जेल में सड़ना पड़ता है और उनकी जमानत भी नहीं हो पाती है, उसी तरह के मामलों में न्यायमूर्ति सौमित्रसेन जैसे लोग केवल इस्तीफा देकर कैसे बरी हो जाते हैं? किसी दोषी या आरोपित न्यायाधीश को सजा क्यों नहीं होती? सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में से आधे से अधिक को भ्रष्टाचारी बताने वाले अधिवक्ता और पूर्वकानून मंत्री शांतिभूषण के आरोप की जांच आज तक नहीं हो पाई! (लेखक कानूनी मामलों के जानकार और एमएच पीजी कालेज मुरादाबाद के प्राचार्य हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)