Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/जजों-की-नियुक्ति-का-जटिल-सवाल-प्रो-मक्खनलाल-13182.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | जजों की नियुक्ति का जटिल सवाल - प्रो. मक्खनलाल | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

जजों की नियुक्ति का जटिल सवाल - प्रो. मक्खनलाल

हाल में सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की नियुक्ति के बाद कोलेजियम व्यवस्था एक बार फिर सवालों से दो-चार है। इस व्यवस्था पर विचार करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने ऐसा क्या कुछ किया कि मौका मिलने पर न्यायाधीशों ने अदालती निर्णयों के माध्यम से सरकार से काफी कुछ न केवल छीन लिया, बल्कि जजों की नियुक्ति के मामले में शासन और प्रशासन के हाथ भी बिल्कुल बांध दिए। आपातकाल के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को प्रताड़ित, अपमानित एवं भयभीत करने के लिए स्थानांतरण प्रक्रिया अपनाई। हालांकि पहले भी उनके स्थानांतरण हुए थे, किंतु वे सब जजों के निवेदन और उनकी सहमति से हुए थे। आपातकाल में जबरन स्थानांतरण किए गए और अधिकतर उन जजों के जिन्होंने आपातकाल या उससे पहले सरकार की मर्जी के खिलाफ फैसले दिए थे। पहली किस्त में जिन 16 जजों के स्थानांतरण किए गए, उनमें बंगलौर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चंद्रशेखर एवं सदानंद स्वामी थे, जिन्होंने लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते आदि की याचिकाएं सुनी थीं। इसी तरह मध्य प्रदेश के एपी सेन थे, जिन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका सुनी थी। मनमाने स्थानांतरण को लेकर जजों की असहमति पर उन्हें परोक्ष तौर पर अपमानित किया गया। इस पर कभी इंदिरा गांधी की ही सरकार में शिक्षा और विदेश मंत्री रहे जस्टिस छागला ने कहा था कि हमारी न्यायिक परंपरा एवं इतिहास का यह सबसे निकृष्ट काल है। सरकार इतना सब इसलिए कर सकी, क्योंकि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अजित नाथ रे अत्यंत कमजोर एवं भीरू व्यक्ति थे। वह हर बात के लिए श्रीमती गांधी या उनके सहयोगियों के मार्गदर्शन का इंतजार करते थे।


बदले की भावना से भरी इंदिरा गांधी ने उच्च न्यायालयों के कई अतिरिक्त न्यायाधीशों को सर्वोच्च न्यायालय की संस्तुति के बाद भी स्थायी करने से इनकार कर उन्हें बर्खास्त कर दिया। ये वे न्यायाधीश थे, जिन्होंने आपातकाल के दौरान सरकार के खिलाफ निर्णय दिए थे। इनमें से एक दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस आरएन अग्रवाल भी थे, जिन्होंने कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी को अवैध करार दिया था। सरकार यहीं नहीं रुकी। तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री एचआर गोखले और कुमारमंगलम, चंद्रजीत यादव, केपी उन्न्ीकृष्णन जैसे अन्य कांग्रेसी नेता तो प्रतिबद्ध न्यायिक व्यवस्था व प्रतिबद्ध न्यायाधीशों की बात करने लगे। लोकसभा में कुमारमंगलम ने कहा, हम ऐसे न्यायाधीशों को आगे बढ़ाना चाहेंगे, जो हमारे दर्शन एवं विचारधारा से सहमति रखते हों, न कि असहमति। एक मंत्री ने तो पूरी न्यायिक व्यवस्था को विपक्षी दल करार दिया था। विधि एवं न्याय मंत्री गोखले ने न्यायाधीशों के नाम एक खुले पत्र में लिखा कि सरकार उन सभी न्यायाधीशों से सहानुभुति रखती है, जो सिद्धांतत: सरकार के खिलाफ निर्णय नहीं देते। ऐसे सभी जजों को हम उच्चतम न्यायलय तक ले जाने का विचार रखते हैं।


इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका से खिलवाड़ करने के साथ संविधान में जो मनमाने संशोधन किए, उससे ईमानदार और निष्पक्ष न्यायाधीशों का चिंतित होना स्वाभाविक था। जजों की नियुक्ति में सरकार की मनमानी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहले से ही क्षुब्ध था। उसने कुछ करने का मन बना लिया। तब तक संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217 के तहत राष्ट्रपति स्वहस्ताक्षर से उच्च एवं उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते थे। वह सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एवं संबंधित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से विचार-विमर्श भी करते थे, लेकिन कोलेजियम व्यवस्था बनाकर यह सब किनारे कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता संघ बनाम भारत सरकार मामले में दिया गया फैसला (06.10.1993) कोलेजियम का आधार बना। सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश नियुक्ति संबंधी सभी अधिकार राष्ट्रपति से छीनकर अपने हाथ में ले लिए। यह व्यवस्था 1993 से ही लागू हो गई और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश अपने वरिष्ठ सहयोगियों से विचार-विमर्श कर नियुक्त किए जाने वाले जजों के नाम सीधे राष्ट्रपति को भेजने लगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि राष्ट्रपति को संस्तुत किए गए नामों का अनुमोदन हर हाल में करना होगा। धीरे-धीरे इस व्यवस्था के विरोध में अंदर से ही यानी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों द्वारा ही आवाज उठाई जाने लगीं। यह तो कहा ही गया कि इसके कहीं कोई मानदंड नहीं कि जजों को कैसे चुना जाए और संबंधित बैठकों का विवरण नहीं तैयार किया जाता। इसके अलावा जजों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद का बोलबाला होने और हद से ज्यादा गोपनीयता बरतने की बात भी कही गई। यह सब कहने वालों में जज भी शामिल थे। सेवानिवृत्त जस्टिस रूमा पाल ने एक बार कहा था कि पूरी प्रक्रिया न केवल बहुत ही गोपनीय है, बल्कि एक तरह की बंदरबांट है। जस्टिस चेलमेश्वर तो पूरी प्रक्रिया से इतने क्षुब्ध थे कि उन्होंने कई बार कोलेजियम की मीटिंग में शामिल होने से ही इनकार कर दिया।

कोलेजियम व्यवस्था में जजों की वरिष्ठता का किस तरह उल्लंघन होता है, इसका संकेत इससे मिलता है कि अल्तमस कबीर 13वें, अमिताव राय 35वें, वीएन कृष्णा 33वें और एसएच वरियावा 38वें नंबर पर होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त हुए। 1993 में कॉलेजियम व्यवस्था लागू होने के बाद कुछ जजों को सुप्रीम कोर्ट पहुंचने में 14-15 वर्ष लगे, लेकिन कुछ जज मात्र नौ वर्ष उच्च न्यायालय में बिताने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। वीआर कृष्ण अय्यर तो उच्च न्यायालय में तीन साल बिताने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट के जज बने केएम जोसेफ वरिष्ठता सूची में 42वें स्थान पर थे। सुप्रीम कोर्ट के कम से कम छह पूर्व जजों के बेटे भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। ये हैं पीएन भगवती, एसएम फजल अली, बीपी सिंह, एन संतोष हेगड़े, बीएन अग्रवाल और डीवाई चंद्रचूड़। तमाम पूर्व न्यायाधीशों के पुत्र और पौत्र भी उच्च न्यायलय के जज बने। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ऐसे भी बहुत से जज हैं, जिनके पिता, भाई, रिश्तेदार या दोस्त राजनीति, बार या प्रशासन में काफी रसूख वाले थे। यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है, न तो न्याय व्यवस्था के लिए और न ही न्यायालयों और न्यायधीशों की प्रतिष्ठा के लिए।


राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनने और लागू होने के बाद यह जो आशा बंधी थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न केवल पारदर्शिता आएगी, वरन उनका मान सम्मान भी बढ़ेगा, वह ध्वस्त हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ चार-एक के बहुमत से इस आयोग और संबंधित संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर चुकी है। यह आयोग एक दिन भी काम नहीं कर सका। इस आयोग को अंसवैधानिक बताने वाले फैसले में जजों ने यह भी कहा था कि कोलेजियम व्यस्था में सब कुछ ठीक नहीं है। जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही कहा था कि वह एक नीति निर्धारित करेगा। तबसे तीन वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन वह नीति नदारद है। एक तरह से अब हम फिर से चौराहे पर आ खड़े हैं। अपेक्षा की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट खुद ही पहल कर इस स्थिति को जल्द खत्म करे, ताकि न्यायालयों एवं न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा को लेकर किसी तरह के कोई सवाल न उठें।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, दिल्ली के संस्थापक निदेशक हैं)