Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/जड़ों-से-पलायन-की-पीड़ा-को-समझिए-राजीव-वोरा-6284.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | जड़ों से पलायन की पीड़ा को समझिए- राजीव वोरा | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

जड़ों से पलायन की पीड़ा को समझिए- राजीव वोरा

तुलसी सिंह के गांव छोड़ने का दर्द मेरी ताजा बिहार यात्रा की भेंट है. बिहार के माओवादी कहलाते बांका जिले के चांदन प्रखंड स्थित फुलहरा गांव का तुलसी इलाके में हिंद स्वराज शिविरों-बैठकों में न केवल आगे बैठ हर बात को समझ कर नोट करता था, बल्कि अच्छे सवाल भी करता था. आम आदिवासियों की तरह निश्छल आंखें, ईमानदार, बुद्धिमान और सेवाभावी. मैंने उसमें वह तड़प देखी थी, जो अपने आसपास की बदहाली, हाथ से फिसलती अपनी दुनिया और उसके कारणों को समझना चाहती है. इन आदिवासी युवाओं की यही तड़प मुझे फिर से बिहार-झारखंड में इनके बीच खींच लाती है.

जहां गांव-के-गांव युवकों से खाली हो रहे हैं- काम की तलाश में शहर या अन्याय के खिलाफ बंदूक उठा कर जंगलों में जा रहे हैं- ऐसी स्थिति में ‘माओवादी’ कहलाते क्षेत्रों के किसी गांव में तेजस्वी युवकों को पाना, गिरते घर को खंभा मिलने के बराबर है. तुलसी में मैंने ऐसा ही एक खंभा देखा था. इसलिए इस बार जब मुङो बताया गया कि ‘तुलसी तो काम की तलाश में कलकत्ता चला गया’, मुझे ऐसा झटका लगा जिसके लिए मैं तैयार नहीं था; जबकि यह यहां सामान्य घटना है. शायद ‘घटना’ है ही नहीं. आदिवासी, किसान, कारीगर के बदलते जीवन का क्रम है. ‘डेवलपमेंट’ या ‘विकास’ की भाषा में ‘सामाजिक परिवर्तन’ है, ‘अपवॉर्ड मोबिलिटी’- ऊपर उठना है, पिछड़ेपन को छोड़ कर. अगर मुझे यह सुनने को मिलता कि तुलसी गलती से माओवादी या पुलिस की गोली का शिकार हो गया, तो चोट उस गहरे में दर्द नहीं देती, जितनी कि यह सुन कर दे गयी कि ‘गांव छोड़ कर काम की तलाश में शहर चला गया.’ इसका साफ मतलब है कि उसकी मातृभूमि, सरजमीं, संस्कृति, समाज, खेत-खलिहान और जंगल-पहाड़, सब उसके लिए निर्थक, बेमायने हो गये. जो इसी मिट्टी से पैदा हुआ, जो इसके लिए जी-जान लगा सकता है, उसके लिए यहां कुछ भी नहीं है. जिस भूमि का अन्न-जल उसकी रगों में है, वहां उसका अन्न-जल समाप्त हो गया. जिस गांव की मिट्टी को सिर पर लगाये बिना देश दूर की चीज है, उसी मिट्टी का प्रताप सिर से उठ गया. जिन्होंने पैदा किया, वे उसे पाल नहीं सकते. जहां पैदा हुआ, वहां पलना संभव नहीं. अपने गांव, समाज का जो भविष्य का मार्गदर्शक, सही नेता, सेवक बन सकता था, वह आज कलकत्ता में है.

तुलसी सिंह धीरे-धीरे निगला जायेगा. न केवल शहर द्वारा, बल्कि इतिहास के उस चक्र द्वारा भी, जिसने किसान समाज और उस पर खड़ी सभ्यता-संस्कृति को, जीवन व्यापार को ‘आधुनिक विकास यात्र’ में भूतकाल का स्थान दे दिया है. इस ‘विकास’ ने आदिवासी, किसान, वनवासी, ग्रामीण का अपना भविष्य- अपने स्वाधीन इतिहास की यात्र का सहज अगला पड़ाव- उनसे छीन कर उन्हें आधुनिकतावादी समाज के लिए भूतकाल बना दिया है. उनका वर्तमान और भविष्य, दोनों उनके हाथ से छीन लिया, या छीना जा रहा है. आदिवासी और ग्रामीण किसान समाज उनके हिसाब से नये भारत का भविष्य नहीं हैं. इसलिए न केवल भविष्य में, बल्कि वर्तमान में भी उनके अपने इतिहास और संस्कृति की निरंतरता का स्वाधीन स्थान नहीं है. जो नया ‘भारत निर्माण’ किया जा रहा है, उसके विकास में, निर्माण में इन समाजों की हैसियत और कीमत संसाधन भर की है. वे नये भारत के संसाधन हैं, उन्हें खप जाना है. वे साधन-रूप हैं, साध्य नहीं. भारत के निर्माण में उनका इतना ही हक है.

मजदूर बनना मिट जाना नहीं है, लेकिन विपरीत जीवन-मूल्यों और जीवन-दृष्टिवाले समाज के भविष्य-निर्माण का संसाधन, मुलाजिम या मजदूर बनना अस्तित्व का मिटना है. एक ऐसे जीवन का निम्न हिस्सा बनना है, जिनका अपना इतिहास ही नहीं. वहां उनकी कथा-कहानियों, सपनों-आदर्शो, मान्यताओं, रीति-रिवाज, देवी-देवता, अनुष्ठान-प्रसंग-उत्सव, भाषा-मुहावरे, नायक-खलनायक किसी का कोई स्थान ही नहीं. तुलसी को तो जगह मिल जायेगी, लेकिन जिन चीजों से तुलसी बना है, उनका वहां न कोई स्थान है, न मूल्य. उनमें से कुछ का स्थान ‘एथनिक’ सजावट का शौक पूरा करने के लिए है. उसी प्रकार की सजावट, जैसी शिकार खेलनेवाले खुद द्वारा किये गये शिकार के शरीर के अंगों से अपनी दीवारों पर करते थे- दिखाने के लिए कि हमने किस-किस का शिकार किया है. तुलसी जब तक अपने समाज में था, वह खुद का और अपने समाज का वर्तमान था, अपने समाज और संस्कृति के इतिहास, जीवनगाथा और जीवन प्रवाह की निरंतरता में था, अपने समाज के भविष्य-निर्माण का सिपाही था. जिस ‘आधुनिक’ भारत-निर्माण और विकास ने तुलसी सिंह को अपनी जड़ों से उखाड़ कर चूस लिया, उसका दर्शन सिखाता है कि विकसित आधुनिक समाज वह है, जो जीवन के हर क्षेत्र में मशीनीकरण पर आधारित, केंद्रीय शासन से संचालित, एक ऐसे औद्योगिक समाज की अवस्था में आता है, जिसकी समस्त ऊर्जा, आंतरिक गतिशीलता का स्नेत स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा और भोगवाद है, न कि पारस्परिकता और सहकार. सीधे भाषा में कहें, तो इस आधुनिकता का, विकास का, भारत-निर्माण का नियम है- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’.

इस ‘आधुनिक’, पर असल में यूरोपीय जीवन-दृष्टि के अनुसार आदिवासी-कृषक-गोपालक समाज व जीवन व्यवस्थाएं भूतकाल की जीवन व्यवस्थाएं हैं. इन्हें आधुनिकता के विकास-यज्ञ में भस्म हो जाना है, हस्ती मिटा देना है. हस्ती मिटती तब है जब सबसे पहले खुद के ही मन में से खुद की हस्ती मिट जाये, जब यह मान लिया जाये कि मैं और मेरी हस्ती जिनसे है, वह सब मिटने लायक ही है. हस्ती तब नहीं मिटती, जब हस्ती बनानेवाली चीजों को समङों- विचार, व्यवहार, परंपरा के स्तर पर समझने का अर्थ है अपने शक्ति-सामथ्र्य को भी समझना-पहचानना और संवारना. गांधीजी ने यही कर के, करना सिखा कर हमें बचाया. आगे हम पर है, उन लाखों तुलसी सिंहों पर है, कि अगर बचना है, अपनी हस्ती मिटने नहीं देना है, तो कौन सा रास्ता तलाशें, अपनाएं.

 

यह सवाल उन सबके सामने है, जिन्हें नये बनाये जा रहे ‘आधुनिक’ भारत में अपनी तसवीर नहीं दिखती. आधुनिक भारत से भूतकाल के रिश्ते में बंधने की शर्त अगर उन्हें मंजूर है, तो आधुनिक भारत का वादा है उनसे कि उन्हें पेट पालने लायक मजदूरी मिलती रहेगी. मोहताज बन कर रहना मंजूर है, तो खाना मिलता रहेगा. लेकिन क्या तुलसी सिंह और उस जैसे लाखों युवाओं की तड़प का कोई ऐसा जवाब नहीं तलाशा जाना चाहिए, जो उनके स्वभाव, प्रकृति, इतिहास और आत्म-छवि के अनुकूल हो. वे चाहते तो यही हैं, कह नहीं पाते, लेकिन जिनमें सुनने-समझने और कहने की शक्ति और धैर्य है, वे तो इनके मन की तड़प और उलझन के मूल में धड़कती-सिसकती यह बात सुन सकते हैं.