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जन-गण का 'अधिनायक' कौन? - मृणाल पांडे

राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने हाल में राजस्थान विवि के दीक्षांत समारोह के अवसर पर कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर के लिखे राष्ट्रगान 'जन गण मन" के एक शब्द 'अधिनायक" पर आपत्ति जताई है। महामहिम के अनुसार टैगोर ने यह गान तत्कालीन ब्रिटिश राजा जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर 26 दिसंबर, 1911 को आयोजित ऐतिहासिक दिल्ली दरबार में उनकी स्तुति में लिखा था और इसमें 'अधिनायक" विशेषण ब्रिटिश बादशाह का वर्चस्व बताने के लिए रखा गया है। इस गीत से हमारी मौजूदा संप्रभुता से पराधीनता की कड़वी यादें जुड़ती हैं और इसकी आपत्तिजनक पंक्ति को 'जन गण मंगल गाये" कर देना बेहतर होगा।

कल्याण सिंह पहले दक्षिणपंथी नेता नहीं हैं, जिन्होंने भारत के मौजूदा राष्ट्रगान की आलोचना की हो। पर इस मामले में उनका इतिहास ज्ञान कुछ संदिग्ध है। पांच छंदों की यह कविता जॉर्ज पंचम की स्तुति में तैयार नहीं की गई थी और ना ही कविगुरु ने इसे दिल्ली दरबार में गाया था। यह कविता तो 26 और 27 दिसंबर को राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता में होने जा रहे अधिवेशन के लिए टैगोर ने बहुत उल्लास से बंग भंग आंदोलन की सफलता से प्रेरित होकर लिखी और इसे अधिवेशन के दूसरे दिन यानी 27 तारीख को पहली बार बहू बाजार स्थित अधिवेशन स्थल पर टैगोर की भतीजी सरला देवी ने स्कूली लड़कियों के साथ गाया था। 1917 में जब कांग्रेस का सम्मेलन फिर कोलकाता में थियोसॉफिकल सोसायटी ने आयोजित किया तो उसमें रबींद्रनाथ को सादर बुलाया गया। उसमें 'जन गण मन" का गायन खुद कविगुरु ने किया, जिसके साथ महाराजा बहादुर नट्टौर का तैयार किया पार्श्व संगीत भी बजाया गया।

दरअसल यह सारी गलतफहमी सबसे पहले उस समय के कुछ अंग्रेजी अखबारों की गलत रिपोर्टिंग से पैदा की गई, जो बंग भंग की अंग्रेज मुहिम के निरर्थक होने से काफी कुढ़े हुए थे। टैगोर की जीवनी पर किए गए शोध से भी साफ होता है कि 26 तारीख को दिल्ली दरबार में किन्हीं रामभुज चौधरी ने जॉर्ज पंचम के आगमन पर उनकी स्तुति में स्वरचित एक हिंदी गीत गाया था, पर उसकी भी कोई लिखित या रिकॉर्डेड प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं है। उसके अगले दिन यानी 27 दिसंबर को कांग्रेस का कोलकाता में अधिवेशन था, जिस पर अंग्रेज सरकार की पहले से वक्रदृष्टि थी। इस अधिवेशन में उद्घाटन से पूर्व एक अमर कृति 'जन गण मन" (जो संस्कृतनिष्ठ बांग्ला में थी) का गान बच्चियों द्वारा किया गया, परंतु अंग्रेजी अखबारों ने खबरों को मिलाकर लिख दिया कि दोनों ही रचनाएं मूलत: दो नेटिव्स यानी मूल नागरिकों द्वारा जॉर्ज पंचम की तारीफ में लिखी गई हिंदी रचनाएं थीं, जिनको कवियों ने खुद दिल्ली दरबार में और फिर कोलकाता में गाया।

जैसा कि हम सब जानते ही हैं, अंग्रेजी अखबार तब सिर्फ गोरे साहबों के लिए उन्हीं के द्वारा छापे जाते थे। इन अखबारों के पत्रकार तथा संपादक भी अंग्रेज हुआ करते थे, जो तमाम भारतीय वर्नाकुलर्स (इस शब्द का मूलार्थ है - दासों की भाषाएं) और उनके बोलने वाले मूल नागरिकों को लेकर उदासीन थे। उनको तमाम उत्तर भारतीय भाषाएं एक जैसी लगती थीं और अंग्रेजी से इतर भाषा की कोई भी रचना वे आराम से हिंदी की बता जाते थे। लिहाजा 27 दिसंबर के अधिवेशन को लेकर 28 दिसंबर को एक अंग्रेजी अखबार ने छापा कि कांग्रेस का अधिवेशन शिक्षाविद् रबींद्रनाथ समेत दो हिंदी(?) कवियों की कविताओं से शुरू हुआ, जो मूलत: ब्रिटिश बादशाह के स्वागत में तैयार की गई थीं। एक अन्य समाचार पत्र संडे टाइम्स ने और भी गोलमाल करते हुए लिखा कि कांग्रेस के अधिवेशन में टैगोर ने उद्घाटन के अवसर पर अपनी एक खास हिंदी रचना 'वंदेमातरम्" (जो कि टैगोर की नहीं, बल्कि बंकिमचंद्र के बांग्ला उपन्यास का अंश थी) स्वयं गाई, जो उन्होंने जॉर्ज पंचम के स्वागत में लिखी थी। कविगुरु की गांधीजी तथा सुभाष चंद्र बोस सरीखे महानायकों से निकटता, 'शांति निकेतन" की भारतीय परंपरानिष्ठता और स्वदेशी आंदोलन के समर्थन से उखड़े राजनीतिक हलकों से साक्ष्यों और खुद टैगोर के कई पत्रों को नजरअंदाज कर इस तरह की खबरों से यह भ्रम लगातार पुष्ट किया गया कि टैगोर तो अंग्रेजों के पिट्ठू हैं।

अगर यह सच होता तो ना तो टैगोर भारतीय भाषाओं में पारंपरिक गुरुकुल पद्धति में शिक्षा देने के लिए 'शांति निकेतन" जैसी संस्था बना पाते और ना ही जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में जॉर्ज पंचम द्वारा प्रदत्त मानद उपाधि लॉर्डशिप तथा सर की उपाधि को लौटाते। ब्रिटिश हुकूमत तो कांग्रेस अधिवेशन तथा नेताओं से टैगोर की सहृदय निकटता से इतनी खफा थी कि उसने तमाम सरकारी अफसरों के लिए हुक्म जारी कर दिया कि टैगोर का 'शांति निकेतन" एक गैर-मुनासिब शिक्षा संस्थान है, इसलिए अपने बच्चों को वहां पढ़ने के लिए भेजने वाले सरकारी अफसर दंडित किए जाएंगे।

यह सच है कि कोलकाता तब भारत की राजधानी थी और बंगालभर में टैगोर का कद बहुत बड़ा था। इसलिए अंग्रेज सरकार चाहती थी कि उनके जैसा ख्याति प्राप्त स्वदेशी लेखक उनके बादशाह के लिए कोई कसीदानुमा कविता मूल भाषा में रचे। 10 नवंबर, 1937 को पुलिन बिहारी महोदय को लिखे अपने एक पत्र में टैगोर लिखते हैं कि उनको बड़ा अचरज हुआ, जब एक बड़े अंग्रेज अफसर ने उनसे बादशाह की तारीफ में मूल भाषा में कोई अच्छा-सा गान लिखने को कहा। यह असंभव था। पर बाद में उससे भी अधिक वह इस अफवाह से खिन्न् हुए कि कांग्रेस अधिवेशन में गाया गया 'जन गण मन" गान दरअसल दिल्ली दरबार के लिए लिखा गया था। उनके अनुसार उन्होंने यह गाना तो भारत का भाग्य लिखने वाले उस विधाता की स्तुति में रचा है, जिसने युगों से हर अच्छे-बुरे समय में भारत के भविष्य को सही दिशा की ओर संचालित किया है। टैगोर की मूल कविता में कुल पांच छंद थे, जिनमें से सिर्फ पहले छंद को ही बाद में हमारे राष्ट्रगान में ढाला गया। इसके अंतिम छंद में प्रयुक्त शब्द 'निद्रितो भारत जागे" भारत भाग्यविधाता की लेखनी की विजय की खुली भविष्यवाणी है।

केतकी कुशारी डायसन सरीखे विद्वानों की राय है कि नेहरूजी ने संभवत: इन्हीं पंक्तियों से संदर्भ लेकर 15 अगस्त की मध्यरात्रि में तिरंगा फहराते समय अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था 'जब शेष विश्व सो रहा है, तब भारत का भाग्य जाग उठा है।" टैगोर भी एक बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे और अपने लेखन का किसी खास व्यक्ति को खुश करने के लिए प्रयोग करने का विचार मात्र भी उनके लिए घृणित था। 13 मार्च को लिखे अपने एक अन्य पत्र में टैगोर कहते हैं - 'जो लोग यह समझते हैं कि मैं जॉर्ज पंचम या षष्ठम की तारीफ में गाना गाने जैसी परम मूर्खता करूंगा तो उनको जवाब देना भी मैं अपनी शान के खिलाफ मानता हूं।"