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जनता ने जिन्हें संसद से सड़क तक पहुंचाया- संदीप जोशी

संसदीय बहुमत पाकर भाजपा सरकार बना चुकी है। लेकिन अपन को हारने वालों के लिए हरिनाम सूझ रहा है। जनता ने प्रगतिवादी, विकासवादी बहुमत दिया है और अपन हार की नकारात्मकता देखे जा रहे हैं? क्योंकि सामाजिक अवरोधों को समझ कर ही अविरल विकास किया जा सकता है। इसलिए हारने में ही जीवन का सीखावन है। बेशक जीते को जग भला हो, शांति तो हरिनाम में ही है। इसलिए हारने वाले सांसदों में ही लोकतंत्र का निस्वार्थ भी निहित है।

देश के किस प्रधानमंत्री प्रत्याशी ने पहली बार संसद पहुंचने पर गरीबों की सेवा का बहुमत स्वीकारा? यह महज जिज्ञासा नहीं है। अप्रत्याशित बहुमत मिलने पर नरेंद्र मोदी का यह व्यवहारिकता पूर्ण, राजनीतिक सत्ता का भाषण संसदीय गरिमा लिए हुए था। समयकाल ही सद्बुद्धि भी लौटाता है। जिन शब्दों का मोदी ने संसद में महिमामंडन किया, वे पिछले कई वर्षों से शब्दकोश भर का हिस्सा रहे हैं। सांसदों से संसद सर्वोपरि होती है। जीते सांसदों को सेवा करने की जग भलाई मिली। हारने वाले हरिनाम जपेंगे।

अन्ना आंदोलन को तीन साल हो गए हैं। वर्ष 2011 में अन्ना आंदोलन के दौरान माहौल देख कर खुद से वायदा किया था कि पचहत्तर प्रतिशत वर्तमान सांसदों को देश की जनता बदल देगी। 2009 में चुने गए सांसदों में से 2014 की संसद में केवल पच्चीस प्रतिशत ही सांसद वापस आए हैं। जनलोकपाल आंदोलन को बेवजह सरकारी दखलंदाजी मानने वाले पचहत्तर प्रतिशत सांसद अब सड़क पर पहुंचा दिए गए हैं। राहत इंदौरी के एक शेर को जरा मरोड़ते हैं- ये कुछ लोग जो फरिश्तों से बने फिरते थे/जनता के हत्ते चढ़े तो इंसान हो गए। यह लोकतंत्र की बाजीगरी ही है- भाजपा के अरुण जेटली और कांग्रेस के कपिल सिब्बल का हारना और आप के भगवंत मान का जीतना। जहां केजरीवाल राजनीतिक शहीद होते रहे, वहीं मनीष तिवारी जनमत से छिपकर भागते रहे।

पिछली सरकार के नब्बे प्रतिशत मंत्रियों के हारने की खुशी है, तो वर्षों से जनसेवा में लगे ग्रामीण भारतीय नेताओं की जीत का आंनद भी है। दिल्ली में बैठकर केवल वाद-विवाद की राजनीति, और टेलीविजन पर दिखावटी विचार दर्शाने वाले वकालती राजनीतिज्ञों को जनता ने ठिकाने लगाया है। सोलहवीं लोकसभा में करीब पचहत्तर प्रतिशत नए सांसद आए हैं। आर्थिक नीतियों और सामाजिक उत्थान की जिम्मेदारी इन्हीं सांसदों पर रहेगी।

पिछले प्रधानमंत्री बेशक एक बार भी चुनाव जीतकर लोकसभा नहीं आए हों, लेकिन इस बार का प्रधानमंत्री दो जगह से ऐतिहासिक जीत लेकर आया है। संसद पहुंचने की आकांक्षा में सभी नेता चुनाव लड़ते हैं, लेकिन जनमत उनको जमीनी हकीकत भी समझाता है। संसद की सीढ़ियों पर मोदी ने सिर नवाजा, तो संसद की गरिमा ही बढ़ी। कांग्रेस राज में भाजपा लगातार संसद को स्थगित करती रही थी। अब देखना होगा सरकार में आने पर भाजपा कैसा संसदीय संस्कार गढ़ती है। जनता की पैनी नजरें लगातार संसद पर टिकी रहेंगी। लालू प्रसाद, मायावती और मुलायम सिंह की जातिवादी राजनीति ने संसदीय लोकाचार को आहत किया था। जनता ने इन सभी की नत्थी ठिकाने लगा दी है।

जनता ने हाई कमान नीति पर टिके कमांड लेने वाले कांग्रेसी नेताओं को ही नहीं बख्शा। सिर्फ ‘हाई’ बचे हैं, और ‘कमांड’ लेने वालों को निपटा दिया है। जो सांसद पिछले पांच वर्षों में संसद को अपना घर मान बैठे थे, वे अब बेघर हैं। नए सांसदों को भी जनता ने सिर माथे पर यों ही नहीं बैठाया है। मोदी ने अपने संसदीय साथियों को सत्ता का पाठ पढ़ाया और गरीबों की सोचने को, गरीबों की सुनने को और गरीबों के लिए जीने का उपदेश दिया। सबके विकास के लिए सबका साथ मांगा, क्योंकि नई संसद को ही नए संसदीय संस्कार गढ़ने होंगे।