Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/जननि-जग-अंधियारा-अनुपमा-5346.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | जननि जग अंधियारा- अनुपमा | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

जननि जग अंधियारा- अनुपमा

देश में प्रति एक लाख में से 254 महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाती है. झारखंड में यह आंकड़ा 312 है और राज्य के गोड्डा जिले में 700. अनुपमा की रिपोर्ट. 

 

केस 1

11  जुलाई, 2012. गोड्डा जिले के बालाजोर गांव में 28 साल की एक गर्भवती महिला दमयंती तुरी को शाम करीब पौने छह बजे जिला अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. 10 दिन पहले टिटनस का इंजेक्शन लेने के बाद से उसकी हालत खराब थी. अस्पताल में बेड खाली नहीं मिला तो साथ आए पति ने महिला को जमीन पर लिटाकर डॉक्टरों से जल्दी जांच करने की गुहार लगाई. साथ ही वहां के सहायकों से जमीन पर बिछाने को कुछ देने की याचना की. डॉक्टर जांच करने नहीं आए. सहायकों ने नसीहत दी कि जमीन पर बिछाने के लिए कुछ घर से ही लेकर आना था. महिला को अस्पताल तक लाने में एक सहिया बहन (ग्रामीण इलाकों में गर्भवती महिलाओं को सुविधा व जानकारी देने के लिए तैनात सहायिकाएं) मददगार साबित हुई थी लेकिन वह भी लौट गई. परेशान पति मदद के लिए पास में अपनी बहन को लाने गया. जब तक बहन के साथ लौटा पत्नी गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ दम तोड़ चुकी थी. 

केस 2

23 साल की रूपा मरांडी गोड्डा जिले के पुरईटोला गांव में रहती थी. 19 मई, 2012 की शाम उसे प्रसव पीड़ा हुई. रूपा को पास के अस्पताल पहुंचाया गया. आधे घंटे बाद ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया. लेकिन रूपा के शरीर से खून बहना बंद नहीं हुआ. थोड़ी देर बाद शरीर में सूजन आने लगी. डॉक्टरों ने सदर अस्पताल भेजा. सदर अस्पताल के डॉक्टरों ने उसे वहां से 70 किलोमीटर दूर भागलपुर अस्पताल रेफर कर दिया. वहां डॉक्टरों ने उसकी गंभीर हालत को देखते हुए उसे कोई इंजेक्शन लगाया और फिर सदर अस्पताल भेज दिया. सदर अस्पताल के डॉक्टरों ने भी उसे वहां से 70 किलोमीटर दूर भागलपुर के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल अस्पताल में रेफर कर दिया. वहां पहुंचते-पहुंचते रूपा अचेत हो चुकी थी. उसे 1.5 यूनिट खून चढ़ाया गया, लेकिन वह बचाई नहीं जा सकी. 

केस 3

गोड्डा जिले के बोरुआ गांव की निवासी 19 वर्षीया सीता सोरेन पहली बार मां बन रही थी. गर्भावस्था के दौरान वह कभी समेकित विकास केंद्र नहीं जा सकी थी. न ही उसे टिटनस का टीका लग पाया था. 30 जून, 2012 को अचानक वह तेज बुखार से तड़पने लगी और बेहोश हो गई. तब गर्भ का नौवां महीना चल रहा था. परिवार के लोगों ने उसकी हालत बिगड़ती देख रात को ममता वाहन (ग्रामीण क्षेत्रों की गर्भवती महिलाओं के प्रसव एवं बेहतर इलाज के लिए स्वास्थ्य विभाग द्वारा अनुबंध पर रखे गए वाहन) बुलाने के लिए फोन किया लेकिन वाहन नहीं पहुंचा. आखिर में लोगों ने ओझा-गुणी को ही बुला लिया और झाड़-फूंक करवाने लगे. स्थिति बिगड़ती गई और सीता रात एक बजे अपने अजन्मे बच्चे के साथ ही दुनिया से विदा हो गई. 

झारखंड में संथाल परगना के गोड्डा जिले में ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है. आरोहण नामक संस्था चलाने वाले सौमिक बनर्जी जैसे लोग केस स्टडीज दिखाते हैं जिनमें गर्भवती महिलाओं के मर जाने की विडंबना नियति की तरह दिखती है. लोग किस्सागोई के अंदाज में सुनाते हैं कि कैसे कुछ अस्पतालों में कैसे भी कुछ जुगाड़ करके ऑपरेशन थियेटर बना दिया गया है और कई बार तड़पती प्रसूताओं को उनके हाल पर छोड़कर डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की टीम गायब रहती है. ऐसे ही किस्से और यथार्थ मिलकर गोड्डा जिले को उन हालात में पहुंचा चुके हैं जहां मातृत्व मृत्यु दर राज्य के औसत से दो गुना से भी ज्यादा है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के नए आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में मातृत्व मृत्यु दर 312 है यानी एक लाख में 312 जननियों की मृत्यु हो जाती है. राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 254 है. उधर, सौमिक बनर्जी की मानें तो गोड्डा में यह औसत करीब 700 है. 

सौमिक की बातों को अध्ययन बल देते हैं. पिछले डेढ़ साल में यहां सिर्फ दो प्रखंडों के अस्पतालों में 36 प्रसूताओं की मौत हुई है. संथाल परगना में स्वास्थ्य पर अध्ययन कर रहे सरफराज अली कहते हैं, ‘यह तो अस्पतालों में हुई मौत का ब्यौरा है. उन मौतों का कोई लेखा-जोखा नहीं होता जिनमें महिला अस्पताल नहीं पहुंच पाती.’ 

सिर्फ गोड्डा या दुमका ही नहीं बल्कि पूरे संथाल में स्थिति ऐसी ही है. नेटवर्क फॉर एंटरप्राइजेज इनहांसमेंट ऐंड डेवलपमेंट स्टडीज (नीडस) नामक संस्था ने भी पिछले साल एक रिपोर्ट तैयार की थी जिससे देवघर जिले में स्थिति का पता चलता है. इसमें देवघर की रहने वाली सविता देवी, नेहा देवी, सोनू मुरमू जैसी कई महिलाओं की मौत के बारे में विस्तार से जानकारी दी है. रिपोर्ट में जिक्र है कि कैसे देवघर की रहने वाली निवासी सविता को जब खून की कमी और प्रसव के दौरान होने वाली मुश्किलों से निजात के लिए अस्पताल ले जाया गया तो अस्पताल में उसे दाखिल नहीं किया गया और देखते ही देखते वह अजन्मे बच्चे के साथ मर गई. संथाल परगना में महिलाओं के स्वास्थ्य पर अध्ययन कर रही प्रिया जॉन कहती हैं, ‘एक तो इलाके में अस्पतालों की ही कमी है. जो अस्पताल हैं, वे किसी तरह चल रहे हैं. पोस्टमार्टम रूम को ही लेबर रूम बना दिया गया है.’

संथाल परगना झारखंड का एक ऐसा हिस्सा है जहां की राजनीति साधने में सबसे ज्यादा ऊर्जा लगती है. यहां बदलाव कर देने, लाने की उम्मीद सब दल जगाते रहे हैं. लेकिन अब तक आए तथ्य बताते हैं कि उन बदलावों की प्राथमिकताओं में जननी को बचाना शामिल नहीं है. वैसे संथाल ही क्या, पूरे झारखंड की स्थिति पर नजर डालें तो माताओं की भयावह हालत का अंदाजा मिल जाता है.  दरअसल झारखंड में रह रही जननियों के लिए हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं.

झारखंड की माताओं के संबंध में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बता रहे हैं कि झारखंड की एक महिला औसतन 3.3 बच्चों को जन्म देती है. राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 2.7 है. अनपढ़ महिलाओं के बीच यह औसत तो और भी ज्यादा है. वे 3.9 बच्चों को जन्म देती हैं. पांचवीं से नौवीं तक पढ़ी औरतों के बीच यह औसत 2.9 हो जाता है और दसवीं तक पढ़ी औरतों के बीच यह दो में ही सिमट जाता है. अशिक्षा की मार जननियों पर दोहरी होती है. वे ज्यादा बच्चे तो जन्मती ही हैं, कम उम्र में ही मां भी बन जाती हैं. झारखंड में 15 से 19 साल की 28 प्रतिशत महिलाएं मां बनती हैं और राज्य में 60 प्रतिशत आबादी उन महिलाओं की है जो दो बच्चों के बीच तीन साल का अंतराल नहीं रख पातीं. 

ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति आंकड़ों के बिना भी साफ-साफ दिख जाती है. सुदूरवर्ती इलाकों में भी जाएं तो गर्भनिरोधक का प्रचार करता हुआ बोर्ड जरूर दिखेगा लेकिन पड़ताल करने पर पता चलता है कि सारी कवायद सिर्फ बोर्ड लगाने तक सिमट गई है. जो अनपढ़ हैं, वे बोर्ड से कुछ समझ भी पाते हैं या नहीं, इसका मूल्यांकन नहीं होता. नतीजा कई सालों से प्रचार पर प्रचार होते रहने के बावजूद झारखंड में 38 प्रतिशत विवाहित महिलाएं ही गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करती हैं. जननी परियोजना में प्रशासक पद पर रही नीपा दास कहती हैं कि सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि झारखंड अवैध गर्भपात का भी बड़ा केंद्र बनकर उभरा है. नीपा कहती हैं, ‘यहां के अधिकांश नर्सिंग होमों में हर महीने औसतन 15-16 गर्भपात हो रहे हैं, जो प्रशिक्षित नर्सों और डॉक्टरों द्वारा किया जा रहा है. कई बार तो डॉक्टर आठवें माह में भी मोटी रकम लेकर गर्भपात करने को तैयार हो जाते हैं.’ गोड्डा में खुशी क्लीनिक की संचालिका डॉ मीनाक्षी कहती हैं, ‘गर्भपात की समस्या तो यहां दिन-ब-दिन बढ़ ही रही है लेकिन मातृत्व मृत्यु दर यहां अन्य राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा है. सरकारी आंकड़े जो बताते हैं, उससे कई गुना अधिक, और यह सब अस्पतालों की कमी, प्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों के अभाव आदि के कारण है.’ 

इस सबका असर बच्चों की जिंदगी पर दिखता है.  झारखंड में जन्म लेने वाले प्रति 15 बच्चों में से एक बच्चा साल भर के भीतर ही काल-कवलित हो जाता है. और प्रति 11 में से एक बच्चा पांच साल की उम्र पूरी नहीं कर पाता. जानकारों के मुताबिक यह सब गर्भावस्था या बच्चा जन्मने के समय अस्पतालों और चिकित्सीय सलाहों की कमी या उनमें बरती जाने वाली लापरवाही के कारण भी होता है. इस संदर्भ में आंकड़े बताते हैं कि राज्य में महज 19 प्रतिशत महिलाएं अस्पताल में बच्चों को जन्म देती हैं और 29 प्रतिशत महिलाओं को ही बच्चा जनने के वक्त स्वास्थ्यकर्मियों की सहायता मुहैया हो पाती है. 

ये हालात उस राज्य में हैं जिसका जिक्र मातृत्व प्रधान राज्य और बिटियाओं के प्रदेश के रूप में होता रहा है. पिछले वर्ष को राज्य की सरकार ने बिटिया वर्ष के रूप में मनाया. सरकार न भी मनाती तो भी यहां की बिटियाओं का बोलबाला शुरू से ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रहा है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जब झारखंड की चर्चा राष्ट्रीय फलक पर होती है तो अक्सर या तो यहां की अवसरवादी राजनीति की उठापटक की बात होती है या यहां खान-खदान और प्राकृतिक संसाधनों में मची लूट या फिर माओवादी गतिविधियों. लेकिन इन सबके इतर भी इस राज्य में कई दर्द पल रहे हैं. उन्हीं में से एक है प्रदेश में माताओं की हालत. लेकिन जैसे यहां की लड़कियों या महिलाओं की सकारात्मक पहल का गुणगान नहीं होता वैसे ही उनके जीवन पर पड़ रहे नकारात्मक असर की आवाज भी सुनाई नहीं देती.