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जन्म से बंधी सामाजिक बेड़ियां : हर्ष मंदर

लाखों महिलाएं, पुरुष और बच्चे आज भी उन अपमानजनक सामाजिक बेड़ियों में बंधे हुए हैं, जो उनके जन्म से ही उन पर लाद दी गई थीं। आधुनिकता की लहर के बावजूद आज भी भारत के दूरदराज के देहातों में जाति व्यवस्था जीवित है। यह वह व्यवस्था है, जो किसी व्यक्ति के जाति विशेष में जन्म लेने के आधार पर ही उसके कार्य की प्रकृति या उसके रोजगार का निर्धारण कर देती है। ऊंची और निचली जाति का विभाजन आज भी हमारे समाज में बरकरार है। दलितों के बीच भी सबसे वंचित जातिसमूह वे हैं, जिन्हें समाज द्वारा वे कार्य करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, जिन्हें ‘अस्वच्छ’ माना जाता है। इन समुदायों की त्रासदी यह है कि एक तरफ जहां देश २१वीं सदी में बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में तरक्की के नए सोपान छू रहा है, वहीं वे परंपराओं, सामंती दबावों और आर्थिक जरूरतों के कारण ‘अस्वच्छ’ कार्य करने को मजबूर हैं।

दलितों को सौंपे गए अनेक अस्वच्छ कार्यो में से एक है मृतकों के लिए कब्रें खोदना, दाह संस्कार के लिए लकड़ियां जुटाना और अंतिम संस्कार से संबंधित कार्य करना। हमारे समाज में मृत्यु को इतना अपवित्र और अस्वच्छ माना जाता है कि ग्रामीण भारत के कई क्षेत्रों में मृतकों के सगे-संबंधियों को मृत्यु की सूचना देने का कार्य भी दलितों को ही सौंपा गया है, चाहे इसके लिए उन्हें कितनी ही लंबी दूरी क्यों न तय करनी पड़े। कई राज्यों में आज भी दलितों से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वे पशुओं के शवों को घरों से या गांव से उठाकर ले जाएंगे। वे मृत पशुओं की खाल उतारते हैं, उन्हें साफ करते और सुखाते हैं और उनसे चमड़े के विभिन्न उत्पादों का निर्माण भी करते हैं। हमारे समाज में चमड़े के दूषित या अपवित्र होने की मान्यता इतनी व्यापक है कि आंध्र प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सामाजिक-धार्मिक समारोहों में ढोल बजाने जैसे कार्य भी दलितों से ही कराए जाते हैं। आज भी देश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में ढोल-नगाड़े-मुनादी बजाकर ही सार्वजनिक घोषणाएं की जाती हैं। यह जिम्मेदारी दलितों को ही सौंपी गई है।

अस्वच्छ कार्यो की एक अन्य श्रेणी है अवशिष्ट पदार्थो का निस्तारण। प्रतिबंधात्मक कानूनों के बावजूद आज भी देश के अनेक क्षेत्रों में दलित कूड़ा-करकट, गंदगी और मैला साफ करने को बाध्य हैं। सामाजिक रूप से घृणित और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कार्यो को आजीवन करते रहने की विवशता के कारण दलितों को कई शारीरिक और मानसिक यंत्रणाएं झेलनी पड़ती हैं, जबकि आज इन कार्यो को करने के लिए बेहतर तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध हैं। किन्हीं कार्यो के स्वच्छ और किन्हीं के अस्वच्छ होने की रूढ़िपूर्ण मान्यताओं के कारण सामाजिक विकास की संभावनाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। मिसाल के तौर पर चमड़ा कारखानों की स्थापना होने से दलितों को उनके परंपरागत कार्य से मुक्ति जरूर मिली है, लेकिन उन्हें अब भी मृत पशुओं की खाल उतारना और उसे एक निश्चित मूल्य पर चमड़ा कारखानों को बेचना पड़ता है। यहां यह भी दिलचस्प है कि चमड़ा कारखानों में दलित कर्मचारियों की संख्या सबसे अधिक होती है। जिन नगर पालिकाओं और नगर निगमों में कचरा ढोने के लिए वाहन का इस्तेमाल किया जाता है, उनके चालक भी आमतौर पर दलित समुदाय के ही होते हैं। निगम अधिकारी स्वीपिंग के लिए केवल दलितों को ही नियुक्त करते हैं। यहां तक कि अस्पतालों में पोस्टमार्टम का कार्य भी दलितों से ही कराया जाता है।

कुछ अस्वच्छ कार्यो के लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता। जैसे मृत्यु का संदेश पहुंचाना या तमिलनाडु में मंदिरों की सफाई करना या केरल और कर्नाटक में विवाह समारोहों के बाद परिसर की साफ-सफाई करना। आंध्र प्रदेश में कुलीनों के लिए फुटवियर बनाना, पशुओं की खाल उतारना और ढोल बजाना भी ऐसे कार्य हैं, जिनके लिए पैसा नहीं दिया जाता। चर्म उद्योग में काम करने वाले घासी और डोम भूमिहीन होते हैं और अधिकांश गैरदलित, यहां तक कि दलित किसान भी उन्हें अपने यहां काम पर नहीं रखते। ओडिशा में हमने देखा कि दलितों को वेतन के नाम पर पुराने कपड़े, बचा हुआ खाना, मुट्ठीभर अनाज या थोड़ा-सा पैसा दे दिया जाता है। राजस्थान के कई गांवों में परंपरागत अस्वच्छ कार्यो के लिए कभी-कभार ही नगद राशि का भुगतान किया जाता है और इसके स्थान पर उन्हें एकाध रोटी दे दी जाती है।

कई अस्वच्छ कार्य जबरिया करवाए जाते हैं। अगर कोई दलित इन्हें करने से मना करता है तो इसका नतीजा रहता है र्दुव्‍यवहार, प्रताड़ना या सामाजिक बहिष्कार। अगर यह सब न हों, तब भी कई दलितों को आर्थिक विवशताओं के चलते ये परंपरागत कार्य करने को मजबूर होना पड़ता है। एक मृत भैंस की खाल उतारने के दो सौ रुपए मिल सकते हैं, जिससे वे अपने परिवार के लिए जरूरी राशन खरीद सकते हैं। साफ-सफाई करके वे अपने लिए एक नियमित रोजगार का बंदोबस्त कर सकते हैं। चूंकि ये अस्वच्छ कार्य कोई अन्य नहीं करना चाहता, इसलिए वे अपने नियमित रोजगार के बारे में सुनिश्चित रहते हैं। इस मायने में अन्य वंचित समूहों की तुलना में उनके सामने आर्थिक असुरक्षा का प्रश्न नहीं खड़ा होता। लेकिन अपनी इस ‘आर्थिक सुरक्षा’ के लिए उन्हें खासी कीमत अदा करनी पड़ती है। यदि वे सम्मान का जीवन बिताने के लिए इस परिपाटी को तोड़ते हैं तो उन्हें अपनी आर्थिक सुरक्षा को गंवाना होगा।

लेकिन धीरे-धीरे हालात में बदलाव आ रहा है। देश के कई हिस्सों से सशक्त प्रतिरोध की खबरें आती हैं। हाल ही में तमिलनाडु में अस्वच्छ काम करने से इनकार करने पर दलितों को हिंसा का शिकार होना पड़ा, लेकिन बीते कुछ दशकों में जहां प्रतिरोध बढ़ा है, वहीं गैरदलित भी एक जातिनिरपेक्ष समाज का निर्माण करने के लिए उन्हें स्वीकारने लगे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर सफाई कर्मचारी आंदोलन ने अपने लक्ष्यों को अर्जित करने में सफलता पाई है। साहसपूर्ण और गरिमामय संघर्ष ही दलितों को उनकी अपमानजनक स्थितियों से मुक्त करा सकता है।

हर्ष मंदर
लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।