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जमीन पक रही है- भारत डोगरा

जनसत्ता 23 जून, 2012: अगर हमारे देश में ग्रामीण निर्धन वर्ग और विशेषकर भूमिहीन वर्ग को टिकाऊ तौर पर संतोषजनक आजीविका मिले इसके लिए भूमि-सुधार बहुत जरूरी है। इसके अलावा, अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण द्वारा जिस तरह तेजी से बहुत-से किसानों खासकर आदिवासियों की जमीन लेकर उन्हें भूमिहीन बनाया जा रहा है, उस पर रोक भी लगानी होगी। ऐसे महत्त्वपूर्ण सवालों के न्यायसंगत समाधान के लिए इस वर्ष के आरंभ से एक प्रयास निरंतरता से चल रहा है जो गांधी जयंती के आसपास अपने निर्णायक दौर में पहुंचेगा। ‘जन-सत्याग्रह’ के नाम से चल रहे इस प्रयास में प्रमुख भूमिका एकता परिषद की है, पर साथ ही अनेक अन्य जन-संगठन इससे जुड़ते जा रहे हैं।

एकता परिषद के अध्यक्ष और जाने-माने गांधीवादी पीवी राजगोपाल के नेतृत्व में विभिन्न राज्यों में लगभग नौ महीनों से इस मुद्दे पर पदयात्राएं चल रही हैं जो ग्वालियर में मिलेंगी और दो अक्तूबर को वहां से ये पदयात्री दिल्ली की ओर कूच करेंगे। इससे पहले वर्ष 2007 में पचीस हजार सत्याग्रही असरदार भूमि-सुधार और भूमि के मामलों में न्याय के लिए ग्वालियर से दिल्ली तक पैदल मार्च कर चुके हैं।

आजादी के बाद के लगभग पैंतालीस वर्षों तक हमारे देश में कम से कम विचार के स्तर पर इस बारे में व्यापक सहमति रही कि गांवों के भूमिहीन (या लगभग भूमिहीन) परिवारों में भूमि वितरण कर उन्हें किसान बनने का अवसर दिया जाएगा। इस दिशा में प्रगति संतोषजनक भले न रही हो, कृषि और ग्रामीण विकास के एक अभिन्न अंग के रूप में भूमि सुधार कार्यक्रम को कम से कम नीतिगत तौर जरूर स्वीकार किया जाता रहा। पर पिछले लगभग बीस वर्षों में तो भूमि सुधार कार्यक्रम से केंद्र और राज्य सरकारें निरंतर पीछे हट रही हैं।

इस कड़वी हकीकत की पुष्टि कई सरकारी दस्तावेजों से भी होती है। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में योजना आयोग ने कहा है कि भूमि पुनर्वितरण के संदर्भ में नौवीं योजना के अंत में स्थिति वही थी जो योजना के आरंभ में थी। दूसरे शब्दों में नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इस क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई। यह दस्तावेज स्पष्ट कहता है कि छिपाई गई भूमि का पता लगाने और उसे ग्रामीण भूमिहीन निर्धन परिवारों में वितरित करने में कोई प्रगति नहीं हुई। इतना ही नहीं, आगे यह दस्तावेज स्वीकार करता है, ‘‘1990 के दशक के मध्य में लगता है कि भूमि-सुधारों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। हाल के समय में राज्य सरकारों की पहल इससे संबंधित रही है कि भूमि कानूनों का उदारीकरण हो ताकि बड़े पैमाने की कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा मिल सके।’’

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में भूमि संबंधों के मुद्दों का आधार तैयार करने के लिए योजना आयोग ने एक कार्यदल नियुक्त किया था। कार्यदल इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ‘‘लगता है आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के बाद सरकार की भूमि-सुधार में रुचि लुप्त हो गई।’’ इतना ही नहीं, कार्यदल ने स्पष्ट शब्दों में अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है ‘‘भूमि हदबंदी (लैंड सीलिंग) की सीमा को बढ़ाने या इस कानून को समाप्त ही कर देने के लिए एक मजबूत लॉबी सक्रिय है।’’

आगे यह रिपोर्ट कहती है ‘‘1980 के दशक के मध्य में भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण का प्रवेश गुपचुप तौर पर होने लगा था और वर्ष 1991 से तो एक तूफान की तरह आ गया, फिर भारतीय नीति निर्धारण के पटल से भूमि सुधार गायब हो गए। भूमि सुधार भुला दिया गया एजेंडा बन गया। सरकार में बाजारवाद की वकालत करने वाले इन भूमि सुधारों के बारे में बात भी नहीं करना चाहते हैं ताकि कहीं भूमि के सौदागर इस क्षेत्र में सरकार की भूमिका से घबरा न जाएं। सत्तर के दशक में केंद्रीय निर्देशों पर आधारित जो भूमि-सुधार लाए गए थे वे इन बाजारवादियों को न केवल अनचाहे अवरोध बल्कि भूमि के बाजार में पंूजी के खुले खेल के लिए एक मुसीबत लग रहे हैं।’’

भूमि सुधारों का यह पक्ष सदा सबसे महत्त्वपूर्ण रहा है कि भूमिहीन ग्रामीण परिवारों खासकर खेत मजदूर परिवारों में भूमि वितरण किया जाए। यह उद्देश्य आज भी सबसे महत्त्वपूर्ण है कि भूमिहीन को किसान बनाया जाए। पर इसके साथ ही यह नया खतरा तेजी से बढ़ने लगा है कि बहुत-से किसानों की भूमि छिनने की स्थिति कई कारणों से उत्पन्न हो रही है। इस पर रोक लगाना भी बहुत जरूरी है। इस तरह अब भूमि-सुधारों का एजेंडा दोतरफा हो गया है। एक तरफ भूमिहीन को किसान बनाया जाए, और दूसरी तरफ, किसान को भूमिहीन बनने से रोका जाए।

कुल मिलाकर लगभग दो से तीन करोड़ तक भूमिहीन और सीमांत किसान परिवारों को कृषि-भूमि और आवास-भूमि वितरण का समयबद्ध कार्यक्रम बनाना चाहिए। एक परिवार को औसतन कम से कम दो एकड़ भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। इसके साथ ही लघु सिंचाई, मिट्टी और जल संरक्षण, भूमि समतलीकरण संबंधी सहयोग मिलना भी जरूरी है। तभी वे सपफल किसान बन सकेंगे।

दूसरी ओर किसानों को भूमिहीन बनने से रोकने के प्रयास भी जरूरी हैं। आज कुछ स्थानों पर किसानों की उपेक्षा और छोटे किसानों के हितों के प्रतिकूल नीतियों की मार इतनी बढ़ गई है कि किसान टिक नहीं पा रहे हैं। पर छोटे किसानों के हितों के अनुकूल नीतियां अपनाकर इन किसानों की आजीविका की रक्षा अवश्य की जा सकती है। इसके लिए जल-संरक्षण और संग्रहण, लघु सिंचाई, वनीकरण, वनों और चरागाहों की रक्षा के उपाय, स्थानीय संसाधनों पर आधारित   सस्ती तकनीकों और कुटीर उद्योगों में सरकार को अधिक निवेश करना चाहिए। इनके लिए आज से कई गुना अधिक सहायता उपलब्ध करवानी चाहिए।

इसके अलावा, सरकार को उन कानूनों को बदलना चाहिए जो किसानों को उपजाऊ भूमि से वंचित करने में अन्यायपूर्ण सिद्ध हुए। भूमि अधिग्रहण अधिनियम के कई पक्षों को बदलने की जरूरत सरकार ने खुद स्वीकार की है। सेज या विशेष आर्थिक क्षेत्र के कानून पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है। इसी तरह वन्यजीव संरक्षण जैसे कानून में इस तरह बदलाव होना चाहिए कि किसान विस्थापित होने के स्थान पर वन्यजीव संरक्षण से जुड़ सकें।

भूमि-सुधार एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें करोड़ों गांववासियों को स्थायी लाभ पहुंचाने की क्षमता है, मगर पर इसका सरकारी बजट पर कोई भार नहीं है। इसे अच्छी तरह लागू करने के लिए प्रशासनिक तंत्र पहले से मौजूद है, बस उसे मुस्तैद करने की जरूरत है। फिर भी अगर कुछ अतिरिक्त प्रशासनिक व्यवस्था करनी भी पड़ी तो इसमें सरकारी बजट का इतना कम हिस्सा खर्च होगा कि उसे नगण्य ही माना जाएगा।

विशेष ध्यान देने की बात यह है कि चीन जैसे साम्यवादी देश ने ही नहीं बल्कि जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे कई अन्य देशों ने भी समतावादी भूमि-वितरण पर आगामी आर्थिक प्रगति के लिए एक ठोस आधार तैयार किया। चीन में माओ के समय वैसे तो गलत नीतियों के कारण लाखों लोग अकाल में मारे गए, पर समतावादी भूमि बंटवारा वहां भी आगे चल कर (जब भुखमरी पैदा करने वाली नीतियों को वापस ले लिया गया था) काम आया। इन चार देशों में तैंतीस से तैंतालीस फीसद के बीच भूमि पुनर्वितरण हुआ।

भारत सरकार के पूर्व ग्रामीण विकास सचिव एसआर शंकरन इस विषय के जाने-माने विद्वान रहे हैं। उन्होंने लिखा, ‘‘चीन में 43 प्रतिशत भूमि का पुनर्वितरण हुआ, ताइवान में 37 प्रतिशत का, दक्षिण कोरिया में 32 प्रतिशत का और जापान में 33 प्रतिशत का। इसकी तुलना में भारत में केंद्रीय और राज्य सरकारों के पैंतीस वर्षों तक हदबंदी या सीलिंग कानून बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने से जोती गई भूमि के सवा फीसद हिस्से का ही पुनर्वितरण हो सका।’’

नवीनतम आंकड़ों के आधार पर हम हदबंदी कानून के अंतर्गत दो प्रतिशत कृषिभूमि का भी पुनर्वितरण मान लें और उसमें ग्राम समाज भूमि का वितरण और भूदान भूमि का वितरण जोड़ लें तो भी कुल कृषिभूमि की करीब चार प्रतिशत के आसपास ही भूमि गरीबों में वितरण के लिए उपलब्ध हुई है। फिर, अगर यह हिसाब लगाएं कि तरह-तरह के विस्थापन या भूमि घोटालों के चलते छोटे और सीमांत किसान कितने बड़े पैमाने पर भूमि से वंचित हुए हैं तो स्पष्ट हो जाएगा कि गरीब परिवारों में उतनी जमीन बंटी नहीं है जितनी उनसे छिनी है। विशेषकर पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान तो निश्चित तौर पर यही स्थिति रही है।

भूमि-सुधारों को हमारे देश में अपेक्षित सफलता न मिल पाने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह रहा है कि जब भूमिहीन अपने हकों की आवाज उठाते हैं तो बडेÞ भूस्वामी वर्ग के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन का रवैया भी प्राय: दमन-उत्पीड़न का ही रहता है। सरकार को इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कडेÞ निर्देश जारी करने चाहिए कि भूमि सुधारों संबंधी या इससे मिलती-जुलती मांगों के लिए जो भी सांगठनिक प्रयास या आंदोलन होते हैं, उनके प्रति दमन की नहीं बल्कि प्रोत्साहन की नीति अपनानी चाहिए, क्योंकि जब तक भूमिहीनों या नई भूमि प्राप्त करने वाले परिवारों के मजबूत संगठन नहीं बनेंगे तब तक भूमि सुधार सफल नहीं होगा।
आज स्थिति यह है कि बरसों से पट््टा प्राप्त बहुत-से कथित लाभार्थियों को भी अभी तक भूमि पर वास्तविक कब्जा नहीं मिल पाया है और वे भूमि नहीं जोत सके हैं। इस बारे में राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलना चाहिए कि पट््टा प्राप्त करने वाले परिवारों को वास्तविक कब्जा मिल सके और वे इस भूमि को जोत सकें।
सरकार के पास ऐसी रिपोर्टों और अध्ययनों की कमी नहीं है जो विस्तार से यह बताने में सक्षम हैं कि भूमि सुधार कानूनों और उनके क्रियान्वयन में कहां कमी रह गई। लाल बहादुर शास्त्री अकादमी (मसूरी) में इस मुद्दे पर अच्छा अनुसंधान हुआ और कई सरकारी अधिकारियों ने भूमि सुधार को बेहतर करने और सब भूमिहीन (या लगभग भूमिहीन) परिवारों को कुछ भूमि उपलब्ध कराने की राह बताई। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना तैयार करते समय भूमि संबंधों पर जो कार्यदल गठित किया गया था उसकी रिपोर्ट में भी कई महत्त्वपूर्ण सुझाव हैं। ऐसी रिपोर्टों और अध्ययनों के आधार पर सरकार को ऐसे नीति-निर्देश तैयार करने चाहिए जो राज्य सरकारों के लिए भूमि सुधारों संबंधी कमियों को दूर करने में वास्तव में सहायक सिद्ध हों।

केंद्र सरकार ग्रामीण और कृषि विकास की कुछ ऐसी योजनाएं भी शुरू कर सकती जो पूरी तरह भूमिहीनों में भूमि वितरण से जुड़ी हों। जिन राज्यों में भूमि वितरण का लाभ अधिक भूमिहीनों तक पहुंचा है, वहां इन नए किसानों की सफल खेती के लिए लघु सिंचाई, जल और मिट्टी संरक्षण, भूमि समतलीकरण आदि के लिए सहायता उदारता से उपलब्ध करानी चाहिए। जो राज्य सरकार जितने अधिक भूमिहीनों को भूमि वितरण करेगी, उसे उतनी ही अधिक सहायता राशि मिले। दूसरी ओर, जो सरकारें इन मामलों में उदासीन हैं उन्हें इस सहायता के लाभ से वंचित रखा जाए।