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जमीन से जुड़े जरूरी सवाल : हर्ष मंदर

स्वतंत्रता के इतने सालों के बाद भी लाखों देशवासी और उनके संघर्ष हमारी नजरों से ओझल हैं। भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के कारण लाखों लोगों ने अनगिनत कष्ट सहे, लेकिन उनकी तकलीफों की कहानी कभी भी पूरी तरह सामने नहीं आई। ‘विकास’ की कीमत किसानों और खेतिहर श्रमिकों की अनेक पीढ़ियों को चुकानी पड़ी है। उन्हें बलपूर्वक अपनी धरती से बेदखल करने का अर्थ है अपने सबसे निर्धन अन्न उत्पादकों को सताना, ताकि देश विकास की राह पर आगे बढ़ सके।


कभी-कभी इन दबे-कुचले लोगों का गुस्सा फूट पड़ता है और हिंसक प्रतिरोध का रूप ले लेता है। हाल के समय में इनके आक्रोश के विस्फोट के कारण सरकारों का उत्थान और पतन भी हुआ है। औद्योगीकरण व शहरीकरण की बेलगाम रफ्तार के कारण यह समस्या और विकट हो जाती है। आज वास्तविक खतरा जिस संसाधन पर है, वह पूंजी नहीं, भूमि है। निजी उद्योगों की भूमि की मांग के दावानल ने निर्धन किसानों की पुश्तैनी जमीनों को निगल लिया है।


गैरलोकतांत्रिक समाजों में औद्योगीकरण-शहरीकरण के नाम पर लोगों को बलपूर्वक उनकी भूमि से बेदखल कर दिया जाता है और उनके प्रतिरोध को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया जाता है, लेकिन भारत तो खुली लोकतांत्रिक व्यवस्था में तेज विकास दर प्राप्त करने का आकांक्षी है। अपनी आकांक्षा को मूर्त रूप देने के लिए उसे समावेशी और समतापूर्ण विकास की राह अख्तियार करनी चाहिए।


बीच बहस में है वर्ष 1894 में पास किया गया भूमि अधिग्रहण कानून, जिस पर सरकारें आज भी अमल करती हैं। यह औपनिवेशिक कानून इस सिद्धांत का पक्षधर है कि देश की समस्त भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर राज्यसत्ता का ही पूर्ण स्वामित्व हो। लेकिन इतने सालों में यह कानून प्रभावितों के अधिकारों की रक्षा करने में पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। इसकी प्रक्रिया अपारदर्शितापूर्ण है और यह न तो प्रभावितों को उपयुक्त मुआवजा देता है और न ही उनके पुनर्वास संबंधी अधिकारों का संरक्षण करता है।


इसके स्थान पर एक न्यायपूर्ण, मानवीय और पारदर्शी कानून की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है। सरकार ‘सार्वजनिक हित’ का हवाला देकर भूमि अधिग्रहण करती है, लेकिन सार्वजनिक हित वास्तव में क्या है, इसके निर्धारण का अधिकार केवल किसी नौकरशाह या अधिकारी के पास ही होता है। एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह की औपनिवेशिक परंपराओं को समाप्त करना जरूरी है। सरकार को प्रभावितों के सामने स्पष्ट करना चाहिए कि वास्तव में सार्वजनिक हित से क्या आशय है और कृषियोग्य भूमि के अधिग्रहण की जरूरत क्यों है।


मौजूदा कानून के तहत भूमि अधिग्रहण पर दिए जाने वाले मुआवजे का निर्धारण पिछले तीन सालों के दौरान भूमि पंजीयन की सेल डीड्स के आधार पर किया जाता है। यह मुआवजा मौजूदा मूल्य दरों से बहुत कम होता है। देश के ज्यादातर हिस्सों में लोग स्टांप ड्यूटी बचाने के लिए जमीनों का रजिस्ट्रेशन कम भाव में कराते हैं। इसीलिए मुआवजे का निर्धारण भूमि के पंजीबद्ध विक्रय मूल्य से अधिक किया जाना चाहिए। रियल एस्टेट बिल्डर किसानों से जितनी कीमत पर भूमि खरीदते हैं, उससे दसियों गुना अधिक दाम पर उसे बेचते हैं।


इसलिए भी भूमि अधिग्रहण के लिए उचित मुआवजा प्रणाली पर विचार किया जाना जरूरी है। अधिग्रहण के दस वर्ष बाद भूमि पुन: बेचे जाने की स्थिति में हर बार उन्हें २क् फीसदी अधिमूल्यित राशि भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए। चूंकि ग्रामीण आमतौर पर बड़ी नगद राशि का उचित नियोजन या निवेश करना नहीं जानते, इसलिए उन्हें मुआवजे की पूरी राशि मासिक भुगतान के रूप में दी जानी चाहिए, जिस पर उन्हें 12 फीसदी सालाना ब्याज दिया जाए। मुद्रास्फीति के अनुसार इस ब्याज को समायोजित किया जाना भी जरूरी है।


भूमि अधिग्रहण की सबसे ज्यादा मार उन लोगों पर पड़ती है, जो स्वयं भूमिस्वामी नहीं हैं, लेकिन जिनकी आजीविका भूमि पर निर्भर है। मौजूदा कानून में इन लोगों के लिए मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। इसमें सुधार जरूरी है। भूमि आश्रित श्रमिकों व इस तरह के अन्य व्यक्तियों को दस दिन न्यूनतम मजदूरी के समान प्रतिमाह पारितोषिक दिया जाना चाहिए। एक विवादित मसला यह भी है कि क्या सरकार को यह अधिकार होना चाहिए कि वह निजी उद्योगों के लिए भूमि अधिगृहीत करे।


एक धारणा यह है कि जो निजी उद्यम सार्वजनिक हित के होते हैं, उन्हें इससे अलग रखा जाना चाहिए, क्योंकि सरकार को निजी मुनाफे का एजेंट नहीं बनना चाहिए। प्रभावित व्यक्तियों के पास यह विकल्प होना चाहिए कि वे अपनी भूमि बेचना चाहते हैं या नहीं। एक अन्य धारणा यह भी है कि उद्योग भी अपने आपमें सार्वजनिक हित का साधन हैं, क्योंकि इससे रोजगार के अवसर निर्मित होते हैं और इसीलिए सरकार को भूमि अधिग्रहण में सहायता करनी चाहिए।


लेकिन एक मध्यमार्ग भी हो सकता है। यदि सरकार ने अधिग्रहण की प्रक्रियाओं का नियमन नहीं किया तो निजी कंपनियां असंगठित और छोटे उत्पादकों का शोषण करेंगी और भूमिहीन श्रमिकों को भी किसी तरह की राहत नहीं मिलेगी। ऐसे में सरकार को यह करना चाहिए कि वह निजी उद्योगों को किसानों से सीधे जमीन खरीदने से रोके और उन्हें नए न्यायपूर्ण कानून के तहत मुआवजे की ऊंची दर और पुनर्वास की व्यवस्था प्रदान करने के लिए बाध्य किया जाए।


आज हमारे पास यह मौका है कि हम अपने लाखों किसानों और श्रमिकों को औद्योगिक व शहरी विकास की बलि चढ़ने से रोकें। संतोष की बात यह है कि धीरे-धीरे देश जाग रहा है और अन्यायपूर्ण स्थितियों के प्रति एक अपेक्षित नैतिक बोध से भर रहा है।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)