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जरूरत रोजगार के अवसर बढ़ाने की- नयन चंदा

अपने देश के 80 करोड़ गरीब लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा मुहैया करवाने की शुरुआत भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है। इस प्रकार की सामाजिक सुरक्षा   वाली लोक कल्याणकारी योजना शुरू करना नैतिक रूप से सराहनीय है, लेकिन आर्थिक नजरिए से यह समस्या पैदा करने वाली भी है।

इतनी बड़ी संख्या में लोगों के लिए शुरू की गई  ऐसी योजना को  निरंतर बनाए रखने और उसके लिए पैसा जुटाने के लिए  यह जरूरी होगा कि देश के क्रियाशील लोगों को अधिकाधिक उत्पादक कार्यों में लगाया जाए ।

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को राष्ट्रीय रोजगार संवद्र्धन योजना शुरू करने की भी जरूरत है। इस प्रकार की योजनाओं के लिए शहरी निर्धनों और बेरोजगार लोगों के लिए सब्सिडी जुटाने की बजाए जरूरत है तो बने पुराने श्रम कानूनों की गैर जरूरी झाडिय़ों को साफ करने की। श्रमिकों को संरक्षण देने के नाम पर बनाए गए इस प्रकार के कानूनों का नतीजा यह है कि श्रमिक को काम का अधिकार हासिल नहीं है।

मनरेगा जैसी ग्रामीणों को रोजगार मुहैया करवाने वाला योजना के  तहत भी निर्धन परिवार के किसी एक सदस्य को भी एक वर्ष में  सौ दिन से ज्यादा काम नहीं मिलता, जो मिलता है वो भी न्यूनतम मजदूरी पर ही।

प्रशासनिक हल्कों में व्याप्त जबर्दस्त भ्रष्टाचार के बावजूद  नरेगा के श्रमिकों द्वारा जो भी दोयम दर्जे की सड़कें और नहरें बनाई गई हैं, उससे यह तो मानना ही पड़ेगा कि ग्रामीण क्षेत्र के निर्धनों को इस योजना से खासी मदद मिली है और इससे उनके शहरों की ओर प्रवास को भी बढ़ावा मिला है।

इसके मूल में देखा जाए तो इसका लक्ष्य हस्तांतरण के जरिए पूंजी का पुनर्वितरण है। पर एक खुशहाल समाज बनाने के लिए देश को जरूरत इस बात की है कि वो इस प्रकार की योजनाएं बनाने की बजाए रोजगार के ऐसे अवसर बढ़ाएं जिससे की पूंजी का प्रवाह हो।

किसी भी एक ऐसे समाज में, जो कि बेहद असमान  हो, वहां भुगतान के हस्तांतरण की यह नीति नैतिक रूप से तो सही कही जा सकती है लेकिन इसके बावजूद भारत अपनी बहुचर्चित शेखी बघारने वाले 'जन सांख्यिकीय लाभांश' को भुनाने में नाकाम रहा है। ग्रामीण रोजगार योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च से ग्रामीणों को कुछ लाभ तो मिला है लेकिन ऐसी योजनाएं ग्रामीणों में कौशल उत्पन्न नहीं कर पाईं हैं।

इसके साथ ही, यह भी गौरतलब है कि ऐसी योजनाओं और अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद देश में आधारभूत ढांचा अब भी विकसित नहीं हुआ है। साथ ही, पुराने व अप्रासंगिक कानूनों ने भी उस मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को भी हतोत्साहित  किया है जो हर साल हर उन करीब सवा करोड़ लोगों के लिए रोजगार जुटा सकता है।

विकासशील देश परंपरागत रूप से प्राय: ऐसा करते हैं कि पूंजी संग्रहण के लिए अपनी क्रियाशील जनसंख्या को मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर और हल्के उद्योगों में समाहित कर देते हैं। लंबे समय से ऐसा हो रहा है कि  अपने जीवन स्तर में हुए सुधार से गरीब और अकुशल निर्धन वर्ग भी अब मध्यवर्ग में शुमार हो गया है। चीन तो इस बारे में अपने यहां पाठ्य पुस्तकों में उदाहरण देता है जबकि भारत एक चिंताजनक उदाहरण पेश करता है।

किसी समय टेक्सटाइल निर्यात में दुनिया का सिरमौर देश रहा अब अपनी जगह से हट चुका है और यह स्थान अब इसके  दक्षिण एशियाई देशों और चीन के पास है। हाल यह है कि मैन्यूफैक्चरिंग लगभग थम सा गया है। जहां 1995 में सकल घरेलू उत्पादन में मैन्यूफैक्चरिंग का हिस्सा 17 फीसदी था वहीं 2012 में घटकर 14 फीसदी रह गया है।

घटिया आधारभूत ढांचे, नीतियों में अस्थिरता और श्रम कानूनों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि  क्रियाशील वर्ग अब मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर से पीछे हटने लगे हैं।
भारतीय संविधान के उपबंध 41 में देश को अपने नागरिकों के रोजगार की सुरक्षा के लिए प्रभावी व्यवस्था करने के जो निर्देश दिए गए हैं, उनको कई दशकों में बनाए गए अनेक कानूनों ने अमल में लाने से ही रोक दिया है।

वर्ष 1947 में बने इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट अधिनियम में इतने ज्यादा संशोधन हो चुके हैं कि किसी भी संस्था के लिए मुसीबत बन चुके हैं। दशकों पहले कानूनों में आज भी ऐसे नियम-कायदे हैं कि इंटरनेट और डिजिटल रिकॉर्ड के जमाने में भी फैक्ट्रियों, उद्योगों के लिए अपने कर्मचारियों के आज भी कागजी दस्तावेजों के रूप में फाइलें रखना जरूरी हैं।

ऐसे अप्रासंगिक कानून भी मुसीबत बने हुए हैं और जाहिर है, निवेशकों को हतोत्साहित करने वाले भी हैं। एक ऐसे दौर में जब निर्यात बाजार बुरी तरह से डांवाडोल है, उस समय भारी-भरकम ऐसे दस्तावेजों को नियमित रूप से संभाल कर रखना बड़ा मुश्किल है। निर्यात के मुद्दों को एक तरफ रख दें तो इस तरह के श्रम कानूनों ने उत्पादकता को भी कम ही किया है।

वर्ष 2004 में टी बेस्ले और आर वर्गीस ने  इस बात पर अध्ययन किया था कि औद्योगिक विवाद अधिनियम में श्रमिकों के पक्ष में दिशा-निर्देश के बाद भारतीय उद्योगों पर क्या प्रभाव पड़ा। अध्ययन में पाया गया कि इस प्रकार के निर्देशों के बाद जो परिणाम सामने आए वे नीति-नियामकों की भावनाओं और विधेयक के उद्देश्यों के उलट थे।

जिन सेक्टर में ये निर्देश लागू किए गए,वहां उत्पादन गिर गया और साथ ही गैर पंजीकृत और अनौपचारिक मैन्यूफैक्चरिंग की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलने लगा। इतना ही नहीं, हाल ही एशियन डेवलपमेंट बैंक ने एशिया के पांच देशों- बांग्लादेश, इंडोनेशिया,पाकिस्तान ,फिलीपींस और वियतनाम के संदर्भ में ऐसा ही अध्ययन करवाया। इसके निष्कर्ष भी वैसे ही निकले।

कहा जा  सकता है कि ग्रामीण निर्धनों को मुफ्त खाद्य सुरक्षा और निर्वाह के लिए मजदूरी मुहैया करवाने की नीति राजनीतिज्ञों को वोट दिलाने में मददगार तो हो सकती है, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर समन्वयात्मक रूप से जरूरी है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण किया जाए जिससे रोजगार के अवसरों का सृजन हो।
(येल ग्लोबल ऑनलाइन से साभार)