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जरूरी है जूट को सरकारी संरक्षण-- पंकज चतुर्वेदी

सीएसीपी यानी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की ताजा सिफारिशें जूट के किसानों के लिए आफत बन सकती हैं। आयोग का कहना है कि चीनी मिलों में शत-प्रतिशत जूट के बोरे के इस्तेमाल की मौजूदा नीति को बंद कर दिया जाए तथा खाद्य पदार्थों में नब्बे फीसद जूट की अनिवार्यता को पचहत्तर फीसद किया जाए। अगर ऐसा हुआ तो बंगाल का जूट किसान भूखों मर जाएगा।

 

यही नहीं, जूट कारखानों व व्यवसाय पर निर्भर कई लाख परिवारों के सामने चूल्हा जलाने का संकट खड़ा हो जाएगा। जूट पर्यावरण-मित्र और फिर से उपयोग लायक प्राकृतिक फाइबर है। यह बारिश की फसल है और अगस्त-सितंबर में इसकी कटाई होने लगती है। दुनिया भर में नष्ट न होने वाली प्लास्टिक और पेड़ काट कर तैयार हुए कागज के इस्तेमाल से परहेज की मुहिम चल रही है। ऐसे में जूट की मांग बढ़ गई है। इसके बावजूद भारत में जूट की खेती सरकारी उपेक्षा की शिकार है।

 

हमारे देश में जूट उपजाने वाले खेतों के महज तेरह फीसद ही सिंचित हैं। शेष खेती भगवान भरोसे यानी बारिश पर निर्भर करती है। चूंकि जूट की खेती बेहद खर्चीली व मेहनत का काम है और सरकार इसके किसानों की मूलभूत जरूरतों- जैसे सिंचाई, उन्नत बीज, फसल सुरक्षा और बाजार- के प्रति गंभीर नहीं रही है, अत: मांग के बावजूद हर साल जूट का रकबा घटता जा रहा है। उधर बांग्लादेश के जूट उत्पादकों से मिल रही चुनौतियों के चलते हमारा जूट उद्योग बदहाल होता जा रहा है।

 

जूट की खेती मूलरूप से पश्चिम बंगाल, असम, ओड़िशा, मेघालय, त्रिपुरा व उत्तर प्रदेश में होती है। यहां विश्व के कुल जूट उत्पादन का चालीस प्रतिशत उपजता है। हमारे देश से जूट के निर्यात का इतिहास लगभग दो सौ साल पुराना है। सन 1859 में स्काटलैंड के एक व्यापारी जॉर्ज आकलैंड ने बंगाल के श्रीरामपुर में जूट का पहला कारखाना स्थापित किया था। सन 1939 में जूट के एक सौ पांच कारखाने हो गए। आजादी के समय भारत के हिस्से में कुल एक सौ बारह में से एक सौ पांच कारखाने आए थे। हालांकि जूट पैदा करने वाले खेतों का बहत्तर फीसद पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश को चला गया।

 

आज कोई तिहत्तर जूट मिलें काम कर रही हैं जिनमें से उनसठ पश्चिम बंगाल में हैं। भारत के कोई चालीस लाख किसान लगभग आठ लाख हेक्टेयर में जूट उगाते हैं। जबकि इस जूट से बाजार की मांग लायक उत्पाद तैयार करने के कारखानों में ढाई लाख से अधिक लोग रोजगार पाते हैं। देश में पैदा होने वाले जूट का आधा अकेले पश्चिम बंगाल में होता है। हमारे यहां जूट की दो किस्में हैं- सफेद और टोसा जूट। टोसा रेशा सफेद की तुलना में अधिक मजबूत, मुलायम और चिकना होता है। इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय उपमहाद्वीप के पारंपरिक जूट की अच्छी मांग है।

 

जूट का इस्तेमाल न केवल बोरे बनाने में, बल्कि सजावटी सामान, फैशनेबल कपड़े व चप्पल आदि बनाने में भी हो रहा है। कई फैशन संस्थान इस फैब्रिक से अत्याधुनिक कपड़े बना कर उनका सफल शो भी कर चुके हैं। यूरोप के उच्च वर्ग में इसकी ड्रेसों की अच्छी मांग है। जूट के बारीक हस्तशिल्प के उम्दा कारीगर हमारे देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के गांव-गांव में फैले हुए हैं। गौरतलब है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में रोजगार के अवसर मुहैया करवाना व पारंपरिक लोक शिल्पियों को काम दिलवाना सरकार के सामने हमेशा से चुनौती रहा है। जूट की डंडी से उम्दा दर्जे का चिकना कागज बनता है।

 

हमारे देश में हर साल कोई पैंतालीस लाख क्विंटल जूट-डंठल निकलता है और यह सब चूल्हे में र्इंधन के रूप में फुंक जाता है। जबकि इसका ताप कम होता है और धुआं अत्यधिक। थोड़ी-सी पूंजी से डंठलों से कागज बनाने के कारखाने पर भी सरकार को विचार करना चाहिए। हमेशा से जूट उद्योग निर्यातोन्मुख रहा है। कच्चे जूट व उससे बने सामान के उत्पादन की दृष्टि से भारत दुनिया में पहले स्थान पर और इससे बनी चीजों के निर्यात के मामले में दूसरे स्थान पर है। पिछले कुछ सालों में पैकेजिंग के लिए प्लास्टिक या फाइबर से बनी वस्तुओं का प्रचलन बढ़ने का सीधा असर जूट किसानों पर हुआ। एक तो यह खेती बड़ी मेहनत की है। दूसरे, किसान को मिल मालिक कभी तत्काल भ्ुागतान नहीं करते। तीसरे, लागत तो बढ़ी, लेकिन दाम उसकी तुलना में कम ही रहे। सो दिनोंदिन जूट का रकबा भी कम हो रहा है। लगातार अल्प वर्षा ने भी इसे बुरी तरह प्रभावित किया।

 

हर साल चीनी और अनाज के लिए जूट के बोरों की अनिवार्य पैकेजिंग की खातिर सरकार ने 1987 में एक विशेष अधिनियम लागू किया था। पिछले साल इस अधिनियम के विरुद्ध कोलकाता हाइकोर्ट में याचिका दायर कर दी गई। उल्लेखनीय है कि चीनी व अनाज के लिए जूट के बोरे को अनिवार्य तो कर दिया गया, लेकिन सरकार ही पर्याप्त संख्या में बोरे उपलब्ध नहीं करवा पाई। यानी महज पैकेजिंग सामग्री के अभाव में इनके व्यापार का नुकसान हुआ। जूट की खेती के लिए आवश्यक अधिक पानी की इस क्षेत्र में कमी नहीं है। जाहिर है, बाढ़ व श्रमिकों की पर्याप्त मौजूदगी इस इलाके में जूट उत्पादन व उसके हस्तशिल्प की बेहतर संभावनाएं दर्शाती है। इसके विपरीत असम में हर साल जूट की बुवाई घटती जा रही है। नगालैंड में थोड़ी-सी जमीन पर इसकी खेती हो रही है। मेघालय के गारो व खासी पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग पांच हजार हेक्टेयर में जूट उगाया जा रहा है।

 

त्रिपुरा में भी जूट पैदावार में हर साल कमी आ रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि हमारे खेतों में जूट की फसल साल-दर-साल कम होती जा रही है। वर्ष 2007-08 से 2012-13 के छह साल के दौरान देश में जूट पैदावार के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2008-09 में सबसे कम (1476 लाख टन) जूट खेतों में उगा। सन 2007-08 में 1782 लाख टन, 2009-10 में 1620, 10-11 में 1800, 2011-12 में 1845 और 12-13 में 1674 लाख टन उत्पादन हुआ। अप्रैल 2014 की स्थिति के मुताबिक जूट उद्योग में दो लाख पंद्रह हजार कामगार प्रत्यक्ष तौर पर और डेढ़ लाख कामगार परोक्ष तौर पर लगे हुए हैं। जूट का कुल निर्यात 2011-12 में 2,094.9 करोड़ रुपए में 2.11 लाख टन और 2012-13 में 1,991.8 करोड़ रुपए में 1.85 लाख टन हुआ। जूट के प्रमुख आयातक देशों में हैं अमेरिका, ब्रिटेन, सऊदी अरब, जर्मनी, मिस्र और तुर्की। आंकडेÞ साफ दर्शाते हैं कि उत्पादन बढ़ नहीं रहा है।

 

असल में बांग्लादेश सरकार जूट उत्पादों को निर्यात करने पर सीधे दस प्रतिशत नगद सहायता देती है। इसके चलते वहां के उत्पाद सस्ते हैं तथा वहां के उत्पादक अधिक उत्साह से यह काम करते हैं। इसके विपरीत हमारे यहां जूट के तागों की कीमतें पंद्रह प्रतिशत कम हो गई हैं, इससे किसान का लाभ बहुत ही कम हो गया है और उसका अपनी पारंपरिक खेती से मोहभंग हो रहा है। अनाज और चीनी की पैकिंग के मामले में प्लास्टिक उद्योग जूट क्षेत्र को पीछे छोड़ने के लिए तैयार है। सिंथेटिक बैग की कीमत जहां महज बारह रुपए है वहीं जूट के बोरे की कीमत अट्ठाईस रुपए पड़ती है। तिस पर जूट के थैले उतनी संख्या में उपलब्ध नहीं हैं जितनी मांग है। जूट उद्योग पर खराब और निम्न गुणवत्ता वाले बोरों की आपूर्ति के आरोप भी लगते रहते हैं। हालांकि जूट बोरे के उत्पादकों का कहना है कि कारखाने कम दाम के लालच में प्लास्टिक के ज्यादा से ज्यादा बोरे इस्तेमाल करने की फिराक में ऐसे आरोप लगाते हैं। भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआइ) के समक्ष यह शिकायत भी की गई कि जूट उद्योग आपसी सांठगांठ से जूट के बोरों की कीमतें तय कर रहे हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों की जमीन और जलवायु जहां बेहतरीन जूट उत्पादन में सक्षम है, वहीं किसानों की माली हालत ठीक न होना व पैदावार के लिए बाजार का न होना एक त्रासदी ही है। असम के अमीनगंज में सरकार ने प्लास्टिक टेक्नोलॉजी के प्रशिक्षण का संस्थान तो खोल दिया, लेकिन स्थानीय उत्पादन व तकनीक की सुध किसी ने नहीं ली। जूट के थैले, सजावटी सामान, फ्लोरिंग, शॉल, चादर आदि बनाने में इलाके की जनजातियों को महारत हासिल है। जरूरत है तो बस उन्हें प्रोत्साहित करने और उनके हुनर को दुनिया के सामने लाने के सही मंच की।

 

आज के बदलते बाजार को देखते हुए जूट के नए उत्पाद बनाने के लिए भी जनजातियों को प्रशिक्षित करना चाहिए। विडंबना यह है कि इतनी जबर्दस्त संभावनाओं वाले उत्पाद को उगाने के क्षेत्रों को विधिवत चिह्नित करने का काम भी नहीं हुआ है। ऐसे इलाकों को पहचान कर वहां अधिक फसल देने वाले बीज व तकनीक मुहैया करवा कर उत्तर-पूर्वी राज्यों में रोजगार की गंभीर समस्या का सहजता से हल खोजा जा सकता है। ऐसे में यह अपेक्षा की जाती है कि चीनी सहित कई अन्य उद्योगों, सरकारी विभागों में जूट की अनिवार्यता को कड़ाई से लागू किया जाए। जूट इसके कामगारों के पेट भरने का साधन मात्र नहीं है, यह मनुष्य और प्रकृति के बीच बढ़ रही दूरी के बीच सेतु भी है।