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जल संकट का समाधान भागीदारी बिना नहीं - ज्ञानेन्द्र रावत

तकरीबन तीन दशक पहले तक जहां पानी सहज-सुलभ था, वहां भी अब वह दुर्लभ हो रहा है। इसे भविष्य की विकट चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए। यह स्थिति उस वस्तु के अभाव की है, जो हमारे जीने की जरूरी शर्त है और जिसका कोई दूसरा विकल्प नहीं। एक सतही और मोटी बात तो यह है कि जब आजादी के बाद के छह दशकों में देश की आबादी तिगुनी हो गई हो, तो जल-संसाधन और जल-स्रोत क्या करें? किसी भी सभ्य समाज की चिंता यही होनी चाहिए कि उसके सदस्यों की संख्या संसाधनों की हद को पार न कर जाए। दूसरा तरीका यह है कि हम संसाधन को बढ़ाएं। पानी की सारी दिक्कत यही है कि आबादी बढ़ रही हैऔर पानी हासिल करने के संसाधन हम लगातार घटाते जा रहे हैं। आज पानी की एक-एक बूंद हमारे लिए महत्वपूर्ण है, इसके बावजूद हम इससे बेखबर हैं।
बढ़ते जल-संकट के कारण अब जल प्रबंधन प्रणाली में सुधार करने और पानी की परंपरागत प्रणाली को पुनर्जीवित करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। जो प्रणाली समाज की भागीदारी पर निर्भर रहती है, उसे सरकार के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे सरकार के भरोसे छोड़ी गई कोई भी सरकारी व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही, वैसे ही जल-आपूर्ति भी शायद ही किसी जगह लोगों को संतुष्ट कर रही होगी।

सरकार के भरोसे रहने के कारण लोगों की वह सामाजिक और सामूहिक चेतना भी खत्म होती जा रही है, जिसके बल पर ऐसी प्रणालियां बरसों-बरस बिना किसी दिक्कत के चलती थीं। पानी और विशेषकर पेयजल ऐसा संसाधन है, जिसकी उपलब्धता सभी के लिए समान नहीं है। वह व्यक्ति की सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत पर निर्भर करती है। इसमें भूगोल और पर्यावरण के कारक भी कुछ भूमिका निभाते हैं। इसीलिए पानी के उचित और समान वितरण के लिए प्रशासनिक तथा सामुदायिक व्यवस्था समझदारी के साथ बनाई जानी चाहिए। लोगों को मालूम होना चाहिए कि स्वच्छ जल की उपलब्धता बहुत सीमित है और उसे लंबे समय तक चलाना है। इसलिए उसमें सामुदायिक भागीदारी बढ़ानी होगी।

इसमें महिलाओं की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाकर भी कई लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। लेकिन यह बात लोगों को तब तक समझ में नहीं आएगी, जब तक पानी का आर्थिक महत्व उन्हें नहीं समझ में आएगा। हमारे संविधान में पानी के मामले में केंद्र और राज्य सरकारों के दायित्वों का उल्लेख है। पानी के उपयोग की योजना और क्रियान्वयन की प्राथमिकताओं के बारे में देश की जलनीति में जिक्र किया गया है। लेकिन समाज इसमें कहीं भी नहीं है। फिलहाल हमारे सामने जल संकट की जो समस्या है, वह यही है और इस समस्या का समाधान भी यहीं से निकलेगा। इसके अलावा, जल संसाधनों का हद से ज्यादा औद्योगिक शोषण भी समस्या को बढ़ा रहा है। इस पर भी लगाम लगानी होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)