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जलवायु परिवर्तन : घिरता भारत-- अनुज सिन्हा

दुनिया की जलवायु में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, धरती का तापमान बढ़ रहा है. संकट बढ़ रहा है. इसके लिए दुनिया के विकसित देश अब भारत और अन्य विकासशील देशों को घेरने में लगे हैं.

पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर हुए सम्मेलन में भारत यही बताता रहा कि विकसित देश अपना दोष विकासशील देशों पर मत मढ़ें. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया को यही समझाने में लगे रहे कि वर्तमान स्थिति के लिए भारत दोषी नहीं है. हम जो भी तर्क दें, लेकिन तथ्य यह है कि कार्बन उत्सर्जन मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है.

कुछ दशक पहले तक इस गंभीर विषय पर कोई चर्चा भी नहीं होती थी. जलवायु परिवर्तन का ही असर है कि अब भारत के अधिकांश हिस्सों में (जिनमें बिहार, बंगाल, झारखंड भी हैं) नवंबर-दिसंबर में ठंड नहीं पड़ रही. अपर्याप्त वर्षा, गरमी के मौसम में बारिश भी इसी का असर है.

भारत के लिए चिंता की बात है. विकसित देश अगर भारत पर कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने का दबाव दे रहे हैं, तो इसका असर भारत के औद्योगिक विकास पर पड़ेगा. एक ओर भारत पर विकास के लिए दबाव होगा, तो दूसरी ओर यह दबाव होगा कि कार्बन उत्सर्जित किये बगैर यह विकास हो. भारत इसके लिए तैयार नहीं दिखता. इसके लिए देश के हालात को बदलना होगा. यह बगैर जनसहयोग के नहीं होनेवाला.

आंकड़े बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे बड़ा दोषी चीन है, उसके बाद अमेरिका है, तब नंबर आता है भारत का. अकेले चीन हर साल 11 बिलियन टन कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन करता है. अमेरिका 5.8 बिलियन टन और भारत 2.6 बिलियन टन. यानी चीन भारत से चौगुना से ज्यादा और अमेरिका दोगुना से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है. रूस 2.6 बिलियन टन, जापान 1.4 बिलियन टन. ऐसे में ज्यादा दबाव चीन और अमेरिका पर होना चाहिए. चीन की स्थिति किसी से छिपी नहीं है.

चीन के कई शहरों में स्थिति यह है कि वहां सूर्य का दर्शन नहीं होता, बादल छाये रहते हैं. अभी वहां प्रदूषण-कुहासा-धूल के कारण स्थिति इतनी बिगड़ गयी थी कि लगभग 200 एक्सप्रेस हाइवे को बंद करना पड़ा और वहां ऑरेंज एलर्ट जारी किया गया. लोगों को घरों में बंद होना पड़ा. यह बताता है कि जलवायु को खराब करने में, पर्यावरण को बरबाद करने में चीन का कितना योगदान है.

अब समय आ गया है कि भारत भी चेते. आनेवाला दिन अंतरराष्ट्रीय दबाव का होगा. एक तो देश में हालात खराब होंगे, दूसरा विकसित देशों का दबाव. जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए जो कोष बनेगा, संभव है उसमें भारत को अधिक राशि देने का दबाव हो.

ऐसा इसलिए क्योंकि आंकड़े भारत के पक्ष में नहीं हैं. इंटरनेशनल बिजनेस टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के दस सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में नंबर एक पर है नयी दिल्ली और नंबर दो पर पटना. शीर्ष दस प्रदूषित शहरों में ग्वालियर, रायपुर, अहमदाबाद भी शामिल हैं.

इन प्रदूषित शहरों के लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है. भारत यह कह कर नहीं बच सकता कि हमारे देश के शहर अगर प्रदूषित हैं, तो दुनिया के बाकी देशों को इससे क्या मतलब, हम जितना कार्बन डाइक्साइड छोड़ें, अन्य देशों को इससे क्या फर्क पड़ता है. यह मामला पर्यावरण का है, जलवायु परिवर्तन का है, धरती बचाने का है. इसलिए धरती के तापमान को बढ़ने से रोकने के लिए पूरी दुनिया एक हो रही है. भारत के लिए चुनौती ज्यादा है.

देश को आगे बढ़ने के लिए अधिक ऊर्जा चाहिए, लेकिन कोयले पर आधारित ऊर्जा नहीं. इसलिए वैकल्पिक ऊर्जा पर तेजी से काम करने की जरूरत है. इतना ही नहीं, कार्बन डाइक्साइड को सोखने के लिए अधिक से अधिक वन की जरूरत है. पेड़-पौधे यह काम करते हैं. वनों के मामले में भारत पिछड़ा हुआ है. विकसित देश रूस में 45 फीसदी, जापान में 67 फीसदी जंगल हैं.

इतने जंगल होने के कारण अत्यधिक कार्बन उत्सर्जित करने में ये देश भारत से पीछे हैं, क्योंकि भारत में सिर्फ 24.4 फीसदी ही जंगल है. वन क्षेत्र में चीन की स्थिति (सिर्फ 18 फीसदी जंगल) भारत से खराब है. भारत आज संकट में उन राज्यों के कारण भी है, जहां औद्योगिक विकास के नाम पर वनों का सफाया कर दिया गया. कई राज्यों में अधिक आबादी होने के कारण भी यह स्थिति है. भारत में अनेक ऐसे राज्य हैं, जहां 10 फीसदी से कम जंगल हैं. ऐसे में उद्योगों से, वाहनों से निकलनेवाला कार्बन खतरनाक स्थिति में पहुंच रहा है. इसका असली असर तो अभी बाकी है.

स्थिति थोड़ी और बिगड़ी तो बारिश गड़बड़ायेगी, खेती पर असर पड़ेगा, नयी-नयी बीमारियां बढ़ेंगी, तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलेगा, समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और कई तटीय इलाके डूबेंगे. इन सबसे हमें बचना होगा.