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जलवायु: मौसम का पक्ष-विपक्ष-- अखिलेश आर्येंन्दु

धूप-छांव, गरमी-बरसात का आना-जाना प्राकृतिक संतुलन के लिए जरूरी है। धरती पर जीवन के लिए ये मौसम उतने ही जरूरी हैं जितना की हमें जिंदा रहने के लिए जल और भोजन। यों तो हमारी जलवायु के हिसाब से बारह महीने में तीन मौसम-जाड़ा, गरमी और बरसात प्रमुख हैं। उनका अपना अलग रंग-ढंग है। हर मौसम की अपनी खामी और खूबी होती है। सभी मौसमों में हमें कुछ सुखद अहसास होते हैं तो कुछ परेशानी भी होती है। लेकिन, ये सारे मौसम हमारी सेहत और हमारी धरती की सेहत के लिए जरूरी है। यह कुदरत का अपना इंतजाम है। आज से चालीस या पचास साल पहले के मौसम के बारे में कहा जा सकता है कि तब पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी समस्या नहीं थी। इतनी आबादी भी नहीं थी। सुख-सुविधाएं भी आज जैसी नहीं थी। लेकिन लोग तब मौसम के असर को लेकर इतना हो-हल्ला नहीं मचाते थे। मौसम के बारे में एक और तथ्य है कि वह हमारे अनुकूल नहीं हो सकता बल्कि हमें ही उसके अनुकूल बनना पड़ता है।

महानगरों और शहरों में बढ़ती सुख-सुविधाओं के कारण भी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग के लोगों में सुकुमारता बढ़ी है। इस कारण से भी मौसम में बदलाव होने पर उनकी समायोजन क्षमता में कमी आई है। देखा गया है कि संपन्न परिवारों के लोग मौसम के प्रति ज्यादा ही संवेदनशील दिखाई पड़ते हैं। निम्न वर्गीय परिवार मौसम में परिवर्तन को लेकर अपेक्षाकृत कम उद्वेलित होते हैं। वे सुख सुविधाओं को जुटाने में उतने हलाकान भी नहीं होते। हां, मौसम का कहर उन लोगों पर जरूर टूटता है जो बेसहारा या बे-घरबार होते हैं। बरसात में ऐसे लोग कहां सिर छिपाते होंगे? वे क्या कभी सरकार या किसी और से अपनी दुर्दशा बताने जाते हैं? गांवों में कुछ लोगों के पास संपन्नता बढ़ी है, लेकिन बड़ी आबादी आज भी बदहाल है। लेकिन गांव के निवासियों का जीवन शुरू से प्रकृति के साथ सामंजस्य करनेवाला होता है, इसलिए बनिस्बतन उन्हें महानगर वासियों के, मौसम परिवर्तन में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। ग्रामीण लोग भयंकर ठंड के आतंक से घबराते नहीं। अलाव जलाकर किसी तरह ठंड का सामना कर ही लेते हैं। मौसम से आतंकित होना उनके स्वभाव का हिस्सा है ही नहीं। हर मौसम का अपना महत्त्व है। जाड़ा अगर न पड़े तो रबी की फसल नहीं हो सकती। इसी तरह बरसात न हो तो खरीफ की फसल तैयार नहीं हो सकती है। जायद की फसल के लिए गरमी की जरूरत होती है। बिना मौसम के बदलाव के धरती पर न तो वनस्पतियां रह सकती हैं और न जीव-जंतु। आज के युग में वैज्ञानिक मौसम का पूवार्नुमान कई महीने पहले ही लगा लेते हैं। ऐसे यंत्र विकसित कर लिए गए हैं कि उससे लोगों को मौसम की जानकारी पहले से ही मिल जाती है। यहां तक की समुद्री तूफानों और भूकम्पों का भी सटीक अनुमान लगाने की कोशिशें जारी हैं। अनुमान गलत भी हो सकते हैं। फिर भी काफी कुछ सटीक भविष्यवाणियां होने लगी हैं। ऐसे में हम अगर मौसम को लेकर सहज रहें तो अपनी परेशानियों को कम कर सकते हैं।

हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पिछले बीस-पच्चीस सालों में मौसम में तेजी से परिवर्तन हुआ है। लोगों के लिए ग्लोबल वार्मिंग और सुनामी का कहर ही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने से बाढ़ के बढ़ते खतरे का अहसास आतंकित और अचंभित करने वाला है। ग्रीन हाउस गैसों से बढ़ते असर के कारण कई दूसरी समस्याएं भी पैदा होने लगी हैं। इससे दुनिया में एक तरह से मौसमी आंतक की छाया देखने को मिलने लगी है। अमेरिका जैसे देश में बर्फीले तूफानों ने पिछले बरसों में जो कहर ढाया है, उसे वहां के लोग शायद ही कभी भुला पाएं। ऐसे ही भारत में पिछले बरसों में उत्तराखंड, बिहार और तमिलनाडु में आई बाढ़ और बेमौसम बरसात ने लोगों को कड़ी मुश्किलों में डाल दिया था। अध्ययनों से यह भी सिद्ध हुआ कि मौसम में जो अप्रत्याशित बदलाव हो रहे हैं, उसके लिए कहीं न कहीं इंसान खुद ही जिम्मेदार है।हमारी बदलती जीवन शैली ने मौसम को भी बदलने के लिए मजबूर कर दिया है। हमारी जीवनशैली ही ऐसी हो गई है कि मौसम में थोड़ा भी बदलाव आया कि हम परेशान होने लगते हैं। दरअसल, मौसम के स्वभाव के मुताबिक हम अपना स्वभाव बनाने के लिए तैयार नहीं होते। वैज्ञानिक पूर्वानुमानों को जानते हुए भी हम एक ही ढर्रे पर चलने के ऐसे आदी हो चुके हैं कि मौसम के बदलाव को खुद के लिए परेशानी का सबब मानने लगते हैं।

भारत में गांवों से शहरों की ओर पलायन लगातार जारी है। शहर बड़े शहर बनते जा रहे हैं और कस्बे शहर। अब महानगरों को विराट नगर में बदलने की योजना पर कार्य चल रहा है। लोग बेहतर रोजगार के लिए नगरों और महानगरों की ओर भाग कर आ तो रहे हैं लेकिन यहां आकर जिस तरह से त्रासदी भरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त होते हैं, उसे देखकर यही लगता है, अच्छा होता ये गांव में रहते, भले ही एक ही जून खाना खाते। मौसम की मार ऐसे लोगों को हलाकान ही नहीं करती, कई बार उनकी मौत का कारण भी बन जाती है। ठंड में मरनेवालों का आंकड़ा हर साल बढ़ता ही जाता है। ०