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जहर की खेती कब तक

मानव स्वास्थ्य : कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से खाने-पीने के सामान हुए जहरीले

यूरोप में भारतीय आम पर प्रतिबन्ध ने नीति निर्घारकों को सोचने का एक और मौका दिया है। रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के दुष्प्रभावों के खिलाफ पत्रिका लम्बे समय से मुहिम चलाता रहा है। अनेक शोध और अध्ययन बताते रहे हैं कि खाने-पीने की चीजों में जहर फैलता जा रहा है। सरकार से लेकर आम उपभोक्ता तक सभी को सचेत होने की जरूरत है।

224 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है भारत का कीटनाशक दवाओं का व्यवसाय वर्ष 2017 तक, योजना आयोग के अनुसार।

कैंसर की सौगात दे रहे कीटनाशक
डॉ. सीमा जावेद, पर्यावरणविद्
सायनों के अंधाधुंध प्रयोग के परिणामस्वरूप मिट्टी का क्षरण हो रहा है। इसी के कारण क्षरित या लगभग मृत हो चुकी मिट्टी में पौधों का विकास भी बहुत कम होने लगा है और पैदावार घट रही है। जब भी देश के विकास की बात होती है, तो उसमें हरित क्रांति का जिक्र जरूर होता है। यह जिक्र लाजमी भी है, क्योंकि हरित क्रांति के बाद ही देश सही मायने में आत्मनिर्भर हुआ।

हरित क्रांति का स्याह पहलू भी
देश में पैदावार बढ़ी, लेकिन हरित क्रांति का एक स्याह पहलू भी है, जो अब धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहा है। हरित क्रांति के दौरान हमारे नीति निर्धारकों ने देश में ऎसी कृषि प्रणाली को बढ़ावा दिया, जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अलावा पानी की अधिक खपत होती है। ज्यादा पैदावार के लालच में किसानों ने भी इसे स्वेच्छा से अपना लिया। लेकिन किसानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ये रासायनिक खाद और कीटनाशक आगे चलकर उनकी भूमि की उर्वरा शक्ति सोख लेंगे। चूकि कीटनाशकों का सबसे ज्यादा असर पंजाब में हुआ था, तो इसे ही इसका भयंकर नुकसान झेलना पड़ा।

उत्पादन पर असर
देश में सबसे ज्यादा रसायन इस्तेमाल करने वाले राज्य पंजाब में अनाज उत्पादन और फर्टिलाइजर्स खपत का अनुपात गड़बड़ा गया है। वर्ष 1992 से 2003 के बीच पंजाब में अनाज उत्पादन में गिरावट देखने को मिली। पंजाब की उपजाऊ माटी की गुणवत्ता में बड़े पैमाने पर क्षरण हो रहा है जिसके चलते पंजाब की खेती में ठहराव सा आ गया। ग्रीनपीस द्वारा पंजाब में वर्ष 2010 में चलाये गए जीवित माटी अभियान के तहत किये गए सर्वेक्षण से पता चला कि पंजाब में रसायनों का उपयोग खतरनाक रूप से बढ़ा है। पिछले चालीस सालों में अकेले भठिंडा में यूरिया के उपयोग मे 750 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। सर्वे में यह भी निकल कर आया कि किसान रसायनों से हो रहे नुकसान के बारे में जानते हैं पर उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

कैंसर की गिरफ्त में
पंजाब के भठिंडा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मानसा जिलों में बड़ी तादाद में किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय समेत खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से इन जिलों में कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। पंजाब सरकार ने अब सूबे के अंदर खतरनाक साबित हो रहे कीटनाशकों पर पाबंदी लगा दी है।

सरकार भी लापरवाह
सरकार लोगों के स्वास्थ्य के प्रति कितनी लापरवाह है इसे दिल्ली के उदाहरण से समझा जा सकता है। दिल्ली सरकार के प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन (पीएफए) की जिम्मेदारी है कि वह मंडियों में फल-सब्जियों के नमूने ले और जांच में गड़बड़ी पाने पर दोषियों को पकड़े। लेकिन इस विभाग ने पिछले तीन साल में दिल्ली की मंडियों में जाकर एक भी नमूना नहीं लिया।

कीट-पतंगे भी नहीं सुरक्षित
मधुमक्खियों को बचाने के लिए हाल ही में यूरोपीय संघ ने निओनिकोटिनॉएड नामक रसायन से बनने वाले तीन कीटनाशकों (क्लाथिंडियन, इमिडैकोलप्रिड, थियामेटोक्साम) पर दो साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया। जर्मनी, फ्रांस, इटली जैसे कुछ देशों में पहले से ही निओनिकोटिनॉएड पर प्रतिबंध लगा हुआ है। यूरोपीय संघ का कहना है कि इन कीटनाशकों के छिड़काव से जब मधुमक्खियां फूलों से रस लेती हैं, तो इन कीटनाशकों के संपर्क में आ जाती हैं जिससे उनमें कई प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं, जिनसे उनकी मौत हो जाती है।

भू-जल हुआ जहरीला
फसल को बीमारी से बचाने के लिए जितना कीटनाशक इस्तेमाल होता है, उसका बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक मकसद के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जल स्त्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। हालत यह है कि इन रसायनों के जमीन में रिसते जाने की वजह से काफी जगहों का भू-जल बेहद जहरीला हो गया है। यही नहीं, ये रसायन बाद में बहकर नदियों, तालाबों में भी पहुंच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जल-जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दबाव
प्रो. आर. एस. यादव, अतिरिक्त निदेशक अनुसंधान, एसकेआरयू, बीकानेर
आधुनिक खेती में बढ़ते रासायनिक पदार्थो के प्रयोग का मानव स्वास्थ्य पर ही नहीं, प्रकृति पर भी प्रतिकूल असर सामने आ रहा है। फसलों में उपयोग होने वाले कीटनाशक एवं उर्वरकों के लगातार उपयोग से इनके अंश पानी एवं मिट्टी की संरचना पर असर डालते हैं। इन रसायनों को उत्पादित करने वाली कम्पनियां इनके फायदे ही गिनाती हैं। सरकार की ओर से इनकी रोकथाम के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं है।

काश्तकार फसलों में कीटनाशक एवं उर्वरक डालने के लिए कृषि विश्वविद्यालय या कृषि विभाग की अनुशंसाओं की पालना नहीं करते। मानव स्वास्थ्य से न्यूनतम स्तर (एलई -50) से ज्यादा रसायनिक अंश फल, सब्जियों एवं कृषि उत्पादों में पाया जाता है। देशी खाद से खेती करने की अनुशंसाओं की काश्तकारों के स्तर पर पूरी तरह पालना नहीं हो पा रही है। कीटनाशक, उर्वरक एवं कृषि उपयोग के अन्य रसायन बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अपना नेटवर्क है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भारतीय कृषि पर दोहरा दबाव है। कम्पनियां फसलों में छिड़काव की मात्रा बिना वहां की आवश्यकताओं, मिट्टी, पानी, फसलों की किस्में एवं एग्रोक्लाइमेटिक जोन को समझे ही दे देती हैं। जबकि कृषि अनुशंसाओं में इन सभी कृषि प्रभावों के मद्देनजर मात्रा निर्धारित होती है।

पत्रिका पिछले दो दशक से रासायनिक खाद और कीटनाशकों के बेतहाशा उपयोग के खतरों को उजागर करता रहा है।

जैविक खेती पर देना होगा जोर

सिद्धार्थ श्रीनिवास, कृषि विशेषज्ञ
39 हजार टन वार्षिक खपत है भारत में कीटनाशक दवाओं का।
06 फीसदी लीवर कैंसर के मामले खान-पान में गड़बड़ी से होते हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट ने इसी वर्ष मार्च में कहा है कि दिल्लीवासी रोजाना जो फल व सब्जियों का उपभोग कर रहे हैं, वह मानव स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। हाईकोर्ट ने खाद्य पदार्थो में कीटनाशकों के स्तर को लेकर एक विशेषज्ञ समिति के निष्कर्षो पर सुनवाई करते हुए यह विचार व्यक्त किए। सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेन्ट (सीएसई) ने वर्ष 2003 में सॉफ्ट ड्रिंक्स पर एक रिपोर्ट पेश की थी।

इस रिपोर्ट के बाद ही केन्द्र सरकार ने जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया। इस समिति ने फलों और सब्जियों में कीटनाशकों के उपयोग और उसे कम करने को लेकर कई संस्तुतियां की। जेपीसी ने "फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी आफ इंडिया" (एफएसएसएआई) बनाने का भी प्रस्ताव किया जो आज इस संदर्भ में महत्वपूर्ण नियामक भूमिका निभा रही है। इसके अलावा विभिन्न मंत्रालयों ने भी हानिकर रसायनों के प्रति किसानों में जनचेतना जागृत करने और प्रतिबंधित एवं वर्जित रसायनों की बिक्री पर कड़े दंड की संस्तुति की।

सवाल यह है कि सीएसई की रिपोर्ट के 11 वर्ष, एफएसएसएआई के गठन के 8 वर्ष और कई एजेन्सियों मसलन सेन्ट्रल इंसेक्टसाइड बोर्ड, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन तथा इंडियन कांउसल फॉर मेडिकल रिसर्च की सहभागिता के बावजूद क्या वाकई में स्थितियों में सुधार हुआ है? क्या हानिकर रसायनों के इस्तेेमाल को रोकने की निगरानी हम कर सके हैं? दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी और पूरे देश से इसी तरह की जो रिपोर्ट्स आती हैं, उनके अध्ययन से जो जवाब उभरकर सामने आता है-निश्चित रूप से नहीं! यदि सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मोनोक्रोटोफॉस पर प्रतिबंध लगाने की चेतावनी पर ध्यान देती तो बिहार के छपरा में 23 बच्चों की जान बचाई जा सकती थी।

बताते चलें कि मोनोक्रोटोफॉस पर पूरे देश के 46 से अधिक देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है। देश में कई उदाहरण हैं जब किसानों ने कीटनाशकों का इस्तेमाल न करते हुए भी भारी कमाई की है। इकोलॉजिकल खेती से कई मौकों पर तो किसानों के साथ ही उपभोक्ताओं को भी आर्थिक लाभ हुआ है। सबसे बड़ा उदाहरण हैदराबाद के एक स्वयंसेवी संगठन "नॉन पेस्टीसीडल मैनेजमेन्ट मूवमेन्ट" का है। एनपीएम मॉडल कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खाद, मेड़ पर खेती, चक्रीय फसलों आदि के जरिए खेती पर बल देता है। आंध्र प्रदेश में इस मॉडल को लाखों किसानों ने अपनाया है।

अब तो मां का दूध भी अछूता नहीं
ज्योति कुमार सिंह, कृषि मामलों के जानकार

आज कोई भी खाद्य सामग्री ऎसी नहीं बची जो कीटनाशकों के प्रभाव से वंचित हो। अन्न, सब्जियां, दूध, डिब्बा बंद सामग्री, ठंडे पेय हर सामग्री में कीटनाशक मौजूद है। शोध में पता चला है कि आज सब्जियों का इस्तेमाल करने वालों को कैंसर का ज्यादा खतरा हो गया है। ऎसी स्थिति पहले नहीं थीं। कीटनाशकों के प्रभाव से मांस, मछली भी नहीं बचे हैं।

आज जो चारा हम जानवरों को खिला रहे हैं उसमें भी रसायन मिला होता है। यानी जो उस जानवर का मांस खाएगा, उसके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा। गाय, भैस, भेड़, बकरी आदि पशुओं के दूध जहरीले होते जा रहे हैं। रिसर्च में तो यह भी पता चला है कि कीटनाशकों के शरीर में जाने से मां का दूध भी प्रभावित हुआ है। रासायनिक उवर्रकों के इस्तेमाल से उपजाऊ जमीन तेजी से बंजर हो रही है। मृदा प्रदूषण के कारण हानिकारक तत्व फसलों में पहुंच रहे हैं। नतीजा, उनकी गुणवत्ता तेजी से घट रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां गलत तथ्यों को सरकार के सामने पेश कर अपना व्यापार बढ़ा रही हैं।
मानव स्वास्थ्य : कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से खाने-पीने के सामान हुए जहरीले

यूरोप में भारतीय आम पर प्रतिबन्ध ने नीति निर्घारकों को सोचने का एक और मौका दिया है। रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के दुष्प्रभावों के खिलाफ पत्रिका लम्बे समय से मुहिम चलाता रहा है। अनेक शोध और अध्ययन बताते रहे हैं कि खाने-पीने की चीजों में जहर फैलता जा रहा है। सरकार से लेकर आम उपभोक्ता तक सभी को सचेत होने की जरूरत है।

224 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है भारत का कीटनाशक दवाओं का व्यवसाय वर्ष 2017 तक, योजना आयोग के अनुसार।

कैंसर की सौगात दे रहे कीटनाशक
डॉ. सीमा जावेद, पर्यावरणविद्
सायनों के अंधाधुंध प्रयोग के परिणामस्वरूप मिट्टी का क्षरण हो रहा है। इसी के कारण क्षरित या लगभग मृत हो चुकी मिट्टी में पौधों का विकास भी बहुत कम होने लगा है और पैदावार घट रही है। जब भी देश के विकास की बात होती है, तो उसमें हरित क्रांति का जिक्र जरूर होता है। यह जिक्र लाजमी भी है, क्योंकि हरित क्रांति के बाद ही देश सही मायने में आत्मनिर्भर हुआ।

हरित क्रांति का स्याह पहलू भी
देश में पैदावार बढ़ी, लेकिन हरित क्रांति का एक स्याह पहलू भी है, जो अब धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहा है। हरित क्रांति के दौरान हमारे नीति निर्धारकों ने देश में ऎसी कृषि प्रणाली को बढ़ावा दिया, जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अलावा पानी की अधिक खपत होती है। ज्यादा पैदावार के लालच में किसानों ने भी इसे स्वेच्छा से अपना लिया। लेकिन किसानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ये रासायनिक खाद और कीटनाशक आगे चलकर उनकी भूमि की उर्वरा शक्ति सोख लेंगे। चूकि कीटनाशकों का सबसे ज्यादा असर पंजाब में हुआ था, तो इसे ही इसका भयंकर नुकसान झेलना पड़ा।

उत्पादन पर असर
देश में सबसे ज्यादा रसायन इस्तेमाल करने वाले राज्य पंजाब में अनाज उत्पादन और फर्टिलाइजर्स खपत का अनुपात गड़बड़ा गया है। वर्ष 1992 से 2003 के बीच पंजाब में अनाज उत्पादन में गिरावट देखने को मिली। पंजाब की उपजाऊ माटी की गुणवत्ता में बड़े पैमाने पर क्षरण हो रहा है जिसके चलते पंजाब की खेती में ठहराव सा आ गया। ग्रीनपीस द्वारा पंजाब में वर्ष 2010 में चलाये गए जीवित माटी अभियान के तहत किये गए सर्वेक्षण से पता चला कि पंजाब में रसायनों का उपयोग खतरनाक रूप से बढ़ा है। पिछले चालीस सालों में अकेले भठिंडा में यूरिया के उपयोग मे 750 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। सर्वे में यह भी निकल कर आया कि किसान रसायनों से हो रहे नुकसान के बारे में जानते हैं पर उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

कैंसर की गिरफ्त में
पंजाब के भठिंडा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मानसा जिलों में बड़ी तादाद में किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय समेत खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से इन जिलों में कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। पंजाब सरकार ने अब सूबे के अंदर खतरनाक साबित हो रहे कीटनाशकों पर पाबंदी लगा दी है।

सरकार भी लापरवाह
सरकार लोगों के स्वास्थ्य के प्रति कितनी लापरवाह है इसे दिल्ली के उदाहरण से समझा जा सकता है। दिल्ली सरकार के प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन (पीएफए) की जिम्मेदारी है कि वह मंडियों में फल-सब्जियों के नमूने ले और जांच में गड़बड़ी पाने पर दोषियों को पकड़े। लेकिन इस विभाग ने पिछले तीन साल में दिल्ली की मंडियों में जाकर एक भी नमूना नहीं लिया।

कीट-पतंगे भी नहीं सुरक्षित
मधुमक्खियों को बचाने के लिए हाल ही में यूरोपीय संघ ने निओनिकोटिनॉएड नामक रसायन से बनने वाले तीन कीटनाशकों (क्लाथिंडियन, इमिडैकोलप्रिड, थियामेटोक्साम) पर दो साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया। जर्मनी, फ्रांस, इटली जैसे कुछ देशों में पहले से ही निओनिकोटिनॉएड पर प्रतिबंध लगा हुआ है। यूरोपीय संघ का कहना है कि इन कीटनाशकों के छिड़काव से जब मधुमक्खियां फूलों से रस लेती हैं, तो इन कीटनाशकों के संपर्क में आ जाती हैं जिससे उनमें कई प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं, जिनसे उनकी मौत हो जाती है।

भू-जल हुआ जहरीला
फसल को बीमारी से बचाने के लिए जितना कीटनाशक इस्तेमाल होता है, उसका बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक मकसद के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जल स्त्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। हालत यह है कि इन रसायनों के जमीन में रिसते जाने की वजह से काफी जगहों का भू-जल बेहद जहरीला हो गया है। यही नहीं, ये रसायन बाद में बहकर नदियों, तालाबों में भी पहुंच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जल-जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दबाव
प्रो. आर. एस. यादव, अतिरिक्त निदेशक अनुसंधान, एसकेआरयू, बीकानेर
आधुनिक खेती में बढ़ते रासायनिक पदार्थो के प्रयोग का मानव स्वास्थ्य पर ही नहीं, प्रकृति पर भी प्रतिकूल असर सामने आ रहा है। फसलों में उपयोग होने वाले कीटनाशक एवं उर्वरकों के लगातार उपयोग से इनके अंश पानी एवं मिट्टी की संरचना पर असर डालते हैं। इन रसायनों को उत्पादित करने वाली कम्पनियां इनके फायदे ही गिनाती हैं। सरकार की ओर से इनकी रोकथाम के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं है।

काश्तकार फसलों में कीटनाशक एवं उर्वरक डालने के लिए कृषि विश्वविद्यालय या कृषि विभाग की अनुशंसाओं की पालना नहीं करते। मानव स्वास्थ्य से न्यूनतम स्तर (एलई -50) से ज्यादा रसायनिक अंश फल, सब्जियों एवं कृषि उत्पादों में पाया जाता है। देशी खाद से खेती करने की अनुशंसाओं की काश्तकारों के स्तर पर पूरी तरह पालना नहीं हो पा रही है। कीटनाशक, उर्वरक एवं कृषि उपयोग के अन्य रसायन बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अपना नेटवर्क है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भारतीय कृषि पर दोहरा दबाव है। कम्पनियां फसलों में छिड़काव की मात्रा बिना वहां की आवश्यकताओं, मिट्टी, पानी, फसलों की किस्में एवं एग्रोक्लाइमेटिक जोन को समझे ही दे देती हैं। जबकि कृषि अनुशंसाओं में इन सभी कृषि प्रभावों के मद्देनजर मात्रा निर्धारित होती है।

पत्रिका पिछले दो दशक से रासायनिक खाद और कीटनाशकों के बेतहाशा उपयोग के खतरों को उजागर करता रहा है।

जैविक खेती पर देना होगा जोर

सिद्धार्थ श््रीनिवास, कृषि विशेषज्ञ
39 हजार टन वार्षिक खपत है भारत में कीटनाशक दवाओं का।
06 फीसदी लीवर कैंसर के मामले खान-पान में गड़बड़ी से होते हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट ने इसी वर्ष मार्च में कहा है कि दिल्लीवासी रोजाना जो फल व सब्जियों का उपभोग कर रहे हैं, वह मानव स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। हाईकोर्ट ने खाद्य पदार्थो में कीटनाशकों के स्तर को लेकर एक विशेषज्ञ समिति के निष्कर्षो पर सुनवाई करते हुए यह विचार व्यक्त किए। सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेन्ट (सीएसई) ने वर्ष 2003 में सॉफ्ट ड्रिंक्स पर एक रिपोर्ट पेश की थी।

इस रिपोर्ट के बाद ही केन्द्र सरकार ने जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया। इस समिति ने फलों और सब्जियों में कीटनाशकों के उपयोग और उसे कम करने को लेकर कई संस्तुतियां की। जेपीसी ने "फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी आफ इंडिया" (एफएसएसएआई) बनाने का भी प्रस्ताव किया जो आज इस संदर्भ में महत्वपूर्ण नियामक भूमिका निभा रही है। इसके अलावा विभिन्न मंत्रालयों ने भी हानिकर रसायनों के प्रति किसानों में जनचेतना जागृत करने और प्रतिबंधित एवं वर्जित रसायनों की बिक्री पर कड़े दंड की संस्तुति की।

सवाल यह है कि सीएसई की रिपोर्ट के 11 वर्ष, एफएसएसएआई के गठन के 8 वर्ष और कई एजेन्सियों मसलन सेन्ट्रल इंसेक्टसाइड बोर्ड, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन तथा इंडियन कांउसल फॉर मेडिकल रिसर्च की सहभागिता के बावजूद क्या वाकई में स्थितियों में सुधार हुआ है? क्या हानिकर रसायनों के इस्तेेमाल को रोकने की निगरानी हम कर सके हैं? दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी और पूरे देश से इसी तरह की जो रिपोर्ट्स आती हैं, उनके अध्ययन से जो जवाब उभरकर सामने आता है-निश्चित रूप से नहीं! यदि सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मोनोक्रोटोफॉस पर प्रतिबंध लगाने की चेतावनी पर ध्यान देती तो बिहार के छपरा में 23 बच्चों की जान बचाई जा सकती थी।

बताते चलें कि मोनोक्रोटोफॉस पर पूरे देश के 46 से अधिक देशों में प्रतिबंध लगाया जा चुका है। देश में कई उदाहरण हैं जब किसानों ने कीटनाशकों का इस्तेमाल न करते हुए भी भारी कमाई की है। इकोलॉजिकल खेती से कई मौकों पर तो किसानों के साथ ही उपभोक्ताओं को भी आर्थिक लाभ हुआ है। सबसे बड़ा उदाहरण हैदराबाद के एक स्वयंसेवी संगठन "नॉन पेस्टीसीडल मैनेजमेन्ट मूवमेन्ट" का है। एनपीएम मॉडल कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खाद, मेड़ पर खेती, चक्रीय फसलों आदि के जरिए खेती पर बल देता है। आंध्र प्रदेश में इस मॉडल को लाखों किसानों ने अपनाया है।

अब तो मां का दूध भी अछूता नहीं
ज्योति कुमार सिंह, कृषि मामलों के जानकार

आज कोई भी खाद्य सामग्री ऎसी नहीं बची जो कीटनाशकों के प्रभाव से वंचित हो। अन्न, सब्जियां, दूध, डिब्बा बंद सामग्री, ठंडे पेय हर सामग्री में कीटनाशक मौजूद है। शोध में पता चला है कि आज सब्जियों का इस्तेमाल करने वालों को कैंसर का ज्यादा खतरा हो गया है। ऎसी स्थिति पहले नहीं थीं। कीटनाशकों के प्रभाव से मांस, मछली भी नहीं बचे हैं।

आज जो चारा हम जानवरों को खिला रहे हैं उसमें भी रसायन मिला होता है। यानी जो उस जानवर का मांस खाएगा, उसके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा। गाय, भैस, भेड़, बकरी आदि पशुओं के दूध जहरीले होते जा रहे हैं। रिसर्च में तो यह भी पता चला है कि कीटनाशकों के शरीर में जाने से मां का दूध भी प्रभावित हुआ है। रासायनिक उवर्रकों के इस्तेमाल से उपजाऊ जमीन तेजी से बंजर हो रही है। मृदा प्रदूषण के कारण हानिकारक तत्व फसलों में पहुंच रहे हैं। नतीजा, उनकी गुणवत्ता तेजी से घट रही है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां गलत तथ्यों को सरकार के सामने पेश कर अपना व्यापार बढ़ा रही हैं। - See more at: http://rajasthanpatrika.patrika.com/article/foods-are-toxic-from-use-of-pesticides/47772.html#sthash.ro4CZ07O.dpuf