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जहां यह जीत अतीत से जुड़ती है- महेश रंगराजन

साल 1971 के बाद पहली बार कोई प्रधानमंत्री न सिर्फ अपने दम पर दूसरी बार सत्ता में लौटा है, बल्कि बहुमत में भी उसने इजाफा किया है। भारतीय जनता पार्टी इस बार 300 के पार जाकर ठहरी है, जबकि पिछले चुनाव में उसे 282 सीटें मिली थीं। इस एकतरफा जीत का संदेश किसी एक पार्टी या सत्तारूढ़ गठबंधन की विजय तक सीमित नहीं है। यह दरअसल राजनीतिक नेतृत्व के रूप, विषय-वस्तु और अर्थ में बदलाव का संकेत भी है। आज की तरह तब भी विपक्ष ने एकता दिखाने की कोशिश की थी और महागठबंधन ने ‘इंदिरा हटाओ' का नारा दिया था। मगर गरीबी मिटाने के उनके (इंदिरा गांधी) आह्वान और प्रिवी पर्स को खत्म करने जैसे उल्लेखनीय कदमों ने लोगों, खासतौर से वंचित तबकों का दिल जीत लिया था। क्या भाजपा भी देश की पहली और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री के पदचिह्नों पर चल पड़ी है?

गौरतलब है कि नवंबर, 2015 में बिहार विधानसभा की हार के बाद से तमाम अभियानों में गरीबों की बेहतरी पर नए सिरे से ध्यान दिया गया है। स्वच्छ भारत और उज्ज्वला योजना से लेकर छोटे किसानों को नकद पैसे देने तक की सभी कोशिशों और योजनाओं ने मतदाताओं पर बड़ा असर डाला। इससे प्रधानमंत्री की यह छवि भी बनी कि वह आम महिला और पुरुषों के साथ खड़े रहते हैं। यह इन सवालों का भी जवाब हो सकता है कि आखिर कैसे और क्यों गठबंधन अपनी 352 सीटों में से 224 पर एक लाख से अधिक मतों के अंतर से विजयी हुआ और कितने मतदाताओं ने मोदी को (बालाकोट के बाद) देश का रक्षक और उनके हितों को पूरा करने वाला नायक माना? उल्लेखनीय यह भी है कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें राजनीति के तमाम अंतद्र्वद्वों से परे देखा गया। बेशक इसके लिए उनका पद पर बने रहना कारगर साबित हुआ, लेकिन आर्थिक दबावों के समय सफलता हासिल करना कहीं ज्यादा उल्लेखनीय है।

विपक्ष में किसी मजबूत नेता के अभाव ने भी मोदी की राह आसान बनाई। इंदिरा गांधी के सामने (1974-77 में) स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक जयप्रकाश थे, जबकि उनके बेटे और राजनीतिक उत्तराधिकारी राजीव गांधी को 1987-89 के दरम्यान वीपी सिंह से जूझना पड़ा था, जिन्हें समर्थक ‘राजा नहीं, फकीर' कहा करते थे। मोदी के लिए अच्छी बात यह रही कि न तो कांग्रेस में और न ही अन्य विपक्षी पार्टियों में इस कद का कोई नेता है, जो एक अलग ‘नैरेटिव' के साथ आ सके। भाजपा के जोशीले समर्थक भी यह स्वीकार नहीं कर रहे थे कि ‘अच्छे दिन' का वादा पूरा हो गया है। लेकिन जब विपक्ष ने यह सवाल उठाया, तो मतदाताओं ने वही तर्क दिया, जो भाजपा देती रही है- अधूरा काम है, जिसे पूरा करने के लिए दूसरा कार्यकाल जरूरी है।

फिर भी, इस जीत के दो चिंताजनक पहलू हैं। पहला, कांग्रेस का संकट लगातार गहरता जा रहा है और उसके संख्याबल में इस बार बहुत मामूली वृद्धि हुई है। उसकी सीटें 44 से बढ़कर 52 तक ही पहुंच सकीं। इसका अर्थ है, एक गंभीर, विश्वसनीय और मजबूत विपक्षी पार्टी का अभाव। 1991 के बाद से, जब भाजपा एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी, दोनों पार्टियां एक-दूसरे को नियंत्रित करती रही हैं। मगर अब हम एक ऐसे लंबे कालखंड के मध्य में खड़े हैं, जहां गिनती भर राज्यों के अलावा कहीं भी कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी नहीं दिख रही। यह 1977 के पूर्व के दिनों की वापसी है, जब किसी भी दल के पास लोकसभा में जरूरी 10 फीसदी सीटें नहीं होती थीं, ताकि सदन में अपने मुखिया के लिए वह नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मांग सके।

दूसरा पहलू चुनावी अभियानों में हुई आक्रामक बयानबाजी से जुड़ा है। नए पार्टी कार्यालय में जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी अपने संबोधन में उत्साही समर्थकों को भले ही यह संकेत दे रहे थे कि चुनाव अभियान खत्म हो चुका है और अब वक्त सभी के साथ मिलकर काम करने का है। मगर इसकी असली परीक्षा आने वाले दिनों और महीनों में होने वाली है। कानून का राज और उसकी भावना को बरकरार रखना ही महत्वपूर्ण सवाल नहीं होने वाला, बल्कि नजर इस पर भी बनी रहेगी कि क्या सार्वजनिक बहसों में शिष्टता और भिन्न-भिन्न विचारों को जगह मिल पा रही है?

भारत के आम जन-जीवन के लिर्ए ंहदू राष्ट्रवाद नया नहीं शब्दावली है। स्वतंत्र भारत में श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे उदाहरण मौजूद हैं। मगर आज भाजपा की ताकत और उसकी पहुंच इस तरह के गणित से काफी ज्यादा है। सभी को साथ लेकर चलने का विचार तभी काम कर सकता है, जब सत्ता-सदन में बैठे लोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और राजनीतिक क्षेत्र की विविधता के बीच संतुलन बना पाएंगे। कटु सच यह भी है कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में ही राजनीतिक विरोधियों को देश का दुश्मन ठहराने की कवायद शुरू हुई थी। विशेष रूप से तब, जब 1980 में जीत के साथ तीसरी बार इंदिरा सत्ता में लौटीं और सदन में समान रूप से क्षेत्रीय दल भी पहुंचे थे। मगर आज इस तरह की शब्दावली वापस से बहस में आ गई है, और कई बार आलोचकों और विरोधियों को दुश्मनों के बराबर खड़ा कर दिया जाता है।

अब जब मोदी अपने दूसरे कार्यकाल की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं, तो सवाल यही है कि क्या कुछ हासिल करने के लिए इस ताकत का इस्तेमाल किया जाएगा? यह कुछ हद तक विकसित, समृद्ध भारत के विचार से भिन्न हो सकता है। लेकिन क्या इसकी प्राप्ति समावेशी रास्तों से होगी? और यदि होगी, तो कैसे? सत्ता में लौटी पार्टी की विचारधारा और उसके विचार निश्चय ही उस कांग्रेस से अलग हैं, जिसने पिछले सात दशकों में 55 वर्ष देश पर शासन किया है। तो क्या यह सरकार नए भारत, या यूं कहें कि नई भाजपा की भी पहचान बन पाएगी? फिलहाल तो आलोचक भी यही उम्मीद पाल रहे हैं कि जीत के बाद दिया गया प्रधानमंत्री का संबोधन आने वाले दिनों में अपनी भावना बरकरार रखेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)