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जाति और गुस्से की चुनावी बिसात- नीरजा चौधरी

भारतीय राजनीति में हरियाणा का महत्व दूसरे राज्यों के मुकाबले काफी अलग है। एक तो यह कृषि प्रधान क्षेत्र है, दूसरा यह देश की राजधानी से सटा राज्य है। हरियाणा के 13 जिले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आते हैं। इस राज्य ने भारतीय राजनीति को कई बड़े चेहरे दिए और इस बार के आम चुनाव में भी कई बड़े चेहरे यहीं से किस्मत आजमा रहे हैं। इस बार जो सूरत है, इसमें कई जगह मुकाबला बहुकोणीय होने जा रहा है। दस संसदीय क्षेत्रों में, जिनमें दो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित क्षेत्र भी हैं, लगभग 300 उम्मीदवारों का फैसला लगभग एक करोड़, 56 लाख मतदाता करेंगे। ऐसे में, दो ‘फैक्टर’ और एक ‘इंपैक्ट’ हरियाणा की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गए हैं।
ये दो फैक्टर हैं- ‘गुस्सा’ और ‘जाति।’ हरियाणा में नए और नौजवान मतदाताओं की संख्या निर्णायक है। इसके अलावा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कई जिलों की उपस्थिति के चलते यहां शासन, भ्रष्टाचार, महंगाई, नौकरी और शिक्षा जैसे मुद्दे बड़े हो जाते हैं। आरोप है कि इन समस्याओं और आवश्यकताओं को दूर करने में मौजूदा केंद्र सरकार विफल रही है। साफ है, व्यवस्था को लेकर पूरे देश में व्यापक गुस्सा है। ऐसे में, देखना यह होगा कि यह ‘गुस्सा’ चुनाव के नतीजे को कितना प्रभावित करता है। क्या जाति से ऊपर जाकर ये मुद्दे प्रभावी बनेंगे?

दूसरे फैक्टर के रूप में ‘जाति’ हरियाणा की स्थानीय, या पूरे देश की राजनीति में शुरू से प्रभावी है। हरियाणा का बहुत बड़ा क्षेत्र ‘जाट  हार्टलैंड’ है। इसलिए तमाम राजनीतिक पार्टियों ने इसे ध्यान में रखते हुए अपने उम्मीदवार तय किए हैं। लेकिन यहां पर तीन तथ्य गौर करने लायक हैं। पहला, जाट पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर दंगों से आहत हैं। इसलिए कहा जाता है कि इस समुदाय का झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ा है। कई जाटों के मुंह से मैं यह सुन चुकी हूं कि ‘मैं हिंदू पहले हूं, जाट बाद में।’ हरियाणा से थोड़ा आगे बढ़ें, तो इस असर को राजस्थान के पिछले चुनाव में हम सफल होते देखते हैं। वहां जाटों ने विधानसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान किए और नतीजे के तौर पर कांग्रेस की बुरी पराजय हुई, जिससे वहां वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली सरकार बनी। लेकिन दूसरा तथ्य इससे ठीक विपरीत संकेत देता है। यह ‘जाट आरक्षण’ से जुड़ा मसला है। गौरतलब है कि आदर्श आचार संहिता के लागू होने से ठीक पहले कैबिनेट की विशेष बैठक में केंद्र सरकार ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में जाट आरक्षण को मंजूरी दे दी थी।

हालांकि, अब इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। लेकिन अंतत: जाट यह मानकर चल रहा है कि यूपीए सरकार ने ही उसे आरक्षण दिया है। ऐसे में, चुनावी रुझान बदलते भी दिख रहे हैं। जैसा कि माना जा रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यूपीए का घटक राष्ट्रीय लोकदल जाट आरक्षण के मुद्दे पर फायदे में रह सकता है, उसी तरह की तस्वीर की कल्पना इधर भी की जा रही है। यहां पर मैं वी पी सिंह द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को मानने के बाद के एक प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगी। मशहूर समाजवादी नेता मधु लिमये ने मुझे बताया और यहां तक कि हिन्दुस्तान टाइम्स  में लिखा भी कि ‘अगर जाटों को अन्य पिछड़े वर्ग में डाल दिया गया होता, तो वी पी सिंह की सरकार नहीं गिरती।’ यह एक बड़ा संकेत है और इससे स्पष्ट होता है कि 1990 से ही ‘जाट आरक्षण’ राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस का यह दांव काम करेगा?

‘जाट राजनीति’ का तीसरा तथ्य यह है कि वे सूबे में अपनी बिरादरी का ही मुख्यमंत्री चाहते हैं। अगर उन्हें लगता है कि ओम प्रकाश चौटाला जेल से निकलकर आने वाले विधानसभा चुनाव के बाद हरियाणा का मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो उनका झुकाव इंडियन नेशनल लोकदल की तरफ हो सकता। लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनती है, तो क्या वे मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ रहना चाहेंगे, जो सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे हैं? दरअसल, यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि इस आम चुनाव में ‘गुस्सा’ हावी होता या फिर ‘जाति’ की पकड़ बनी रहती है। हरियाणा में मुस्लिम मतदाता भी अपनी पहचान रखते हैं। फरीदाबाद, मेवात जैसे इलाकों में इनकी तादाद अच्छी-खासी है। ऐसे में, लगता यही है कि जहां जो राजनीतिक पार्टी भाजपा को हराने की स्थिति में होगी, वहां उसी पार्टी के पक्ष में इनके मत जाएंगे।

अब नजर डालते हैं ‘इंपैक्ट’ पर। चूंकि यह राज्य दिल्ली से सटा है, इसलिए यहां दिल्ली का ‘आप फैक्टर’ भी सक्रिय है। शुरू के रुझान यह बताते रहे हैं कि आम आदमी पार्टी का यहां अच्छा प्रदर्शन रहेगा, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस पार्टी को अप्रत्याशित कामयाबी मिली थी। हरियाणा में योगेंद्र यादव ‘परिवर्तन के निर्णायक’ और ‘नए चेहरे’ के तौर पर मतदाताओं के सामने हैं। वह स्वयं गुड़गांव से चुनाव मैदान में हैं, जहां मध्य वर्ग की संख्या अधिक है और वहां ‘आप’ के प्रति स्वाभाविक झुकाव है, लेकिन यह तबका कुछ निराश भी है कि दिल्ली में ‘आप सरकार’ नहीं चली। अकेले गुड़गांव संसदीय क्षेत्र को देखें, तो यहां ‘बदलाव का फैसला’ बनाम ‘जाति फैक्टर’ है। तीनों उम्मीदवार यादव ही हैं। कांग्रेस से निकले राव इंद्रजीत सिंह यहां के पुरानी महारथी और भाजपा के उम्मीदवार हैं। उनके साथ मोदी की हवा, यादव फैक्टर और पंजाबी फैक्टर है। इस शहरी क्षेत्र में पंजाबी फैक्टर भी महत्वपूर्ण है। वहीं कांग्रेस के राव धर्मपाल का कृषि पट्टी में अच्छा-खासा जनाधार है।

गठबंधन राजनीति को देखें, तो कुलदीप बिश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस का भाजपा से गठजोड़ है और इसलिए भाजपा आठ संसदीय सीटों पर चुनाव लड़ रही है। वहीं, चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल सभी जगहों पर मजबूत उम्मीदवार उतारकर भाजपा को अपनी ताकत दिखाना चाहती है, ताकि आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा उसे नजरंदाज न कर सके। ‘परिवर्तन की चाह’ और ‘जाति के समीकरण’ के बीच उलझे हरियाणा के बारे में जो एक जनमत सर्वे आया है, उसके मुताबिक वहां कांग्रेस को बड़ा नुकसान हो रहा है और लगता है कि सिर्फ दीपेंद्र हुड्डा अपनी रोहतक सीट बचा पाएंगे। लेकिन जो इस राज्य की राजनीतिक स्थिति पर लगातार पैनी नजर बनाए हुए हैं, उनके मुताबिक यहां पर भाजपा, कांग्रेस और आप के बीच सीटें बंटेंगी।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)