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जाति की दीवारों से घिरे लोग - ज्यां द्रेज

एक बार मैं रीवा जिले की एक दलित बस्ती में गया। बस्ती की चारों तरफ ऊंची जाति के किसानों के खेत थे और इन किसानों ने बस्ती तक जाने के लिए कोई रास्ता देने से इनकार कर दिया था। बस्ती के अंदर छोटी-छोटी सड़कें थीं, लेकिन ये सड़कें बस्ती के आखिरी छोर पर आकर अचानक खत्म हो जाती थीं। वह बस्ती उस टापू की तरह लग रही थी, जो चारों ओर से दुश्मनों के इलाके से घिरा हो। मैंने अचरज से सोचा, क्या किसी अन्य देश में जाति व्यवस्था जैसी बेतुकी व क्रूर प्रथा अब भी चल रही है?

अगले दिन इस विषय पर मैंने समाजशास्त्री आंद्रे बेते का लेख पढ़ा। लेख की शुरुआत में कहा गया था कि सामाजिक जीवन पर जाति की पकड़ कई मायने में कमजोर पड़ रही है। मिसाल के लिए, जाति और उससे जुड़े पेशे के संबंध ढीले पड़ रहे हैं (चंद्रभान प्रसाद ने यही बात अपने एक लेख में कही है कि पिज्जा-बर्गर पहुंचाने वाले की जाति नहीं देखी जाती)। पहले पवित्र-अपवित्र और छुआछूत के जो भेद चलते थे, वे आज थोड़े कमजोर हुए हैं। इन बातों के आधार पर बेते का तर्क है कि ‘इन सबके बावजूद अगर जाति ने सार्वजनिक चेतना पर अपनी पकड़ बरकरार रखी है, तो इसका कारण संगठित राजनीति है।’ लेकिन मेरा मानना है कि जातिवादी चेतना के बने रहने की वजहें इससे कहीं ज्यादा सरल हैं।

दरअसल, असल मुद्दा जातिवादी चेतना का उतना नहीं है, जितना ताकत के औजार के रूप में जाति की भूमिका का। लेकिन ये दोनों आपस में जुड़े हैं। इसके लिए हम लोगों ने इस बात की जानकारी जुटाई कि इलाहाबाद की सार्वजनिक संस्थाओं मसलन, प्रेस क्लब, विश्विद्यालय शिक्षक संगठन, बार एसोसिएशन, स्वयंसेवी संगठन व मजदूर संगठनों के ‘ताकत और प्रभाव के पदों’ पर ऊंची जाति के लोगों की हिस्सेदारी कितनी है। नमूने में तकरीबन 25 सार्वजनिक संस्थाओं के एक हजार से ज्यादा ‘ताकत और प्रभाव के पद’ शामिल किए गए। अध्ययन में पाया गया कि करीब 75 फीसदी पदों पर ऊंची जाति के लोग हैं, जबकि उत्तर प्रदेश की आबादी में ऊंची जाति के लोगों की तादाद 20 फीसदी है। अकेले ब्राह्मण और कायस्थ ही ताकत और प्रभाव के लगभग आधे पदों पर बैठे हैं यानी आबादी में अपनी तादाद से तकरीबन चार गुना ज्यादा। ये आंकड़े कच्ची गणना पर आधारित हैं, जाति का अनुमान व्यक्ति के उपनाम (सरनेम) से लगाया गया है, फिर भी नतीजा साफ है- सार्वजनिक संस्थानों में ऊंची जातियों की मजबूत पकड़ बरकरार है।

नमूने में दलित जाति के लोगों को भी पहचानने की कोशिश की गई। इसके लिए कुछ और खोजबीन की जरूरत थी, क्योंकि दलित जाति के लोगों को अमूमन उनके उपनाम से नहीं पहचाना जा सकता। दरअसल, दलित जाति के कई लोगों के नाम के साथ उपनाम होता ही नहीं या फिर आधिकारिक दस्तावेजों में उनके पुकार के नाम, जैसे ‘छोटे’ या ‘सुनीता’ दर्ज होते हैं। यह खुद में पूरी बात जाहिर कर देता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि नमूने में जिन सार्वजनिक संस्थाओं को शामिल किया गया उनमें, कुछेक अपवाद को छोड़ दें, जैसे विश्वविद्यालय की शिक्षक मंडली, जहां आरक्षण के नियम लागू हैं, तो दलितों की मौजूदगी के कोई प्रमाण नहीं मिले।

जान पड़ता है कि ऊंची जातियों का दबदबा सरकारी संस्थाओं से ज्यादा नागरिक संगठनों (सिविल सोसायटी) में है। मिसाल के लिए, इलाहाबाद में स्वयंसेवी संगठनों और मजदूर संगठनों के नेतृत्वकारी पदों पर ऊंची जाति के करीब 80 फीसदी लोग कार्यरत हैं, बार एसोसिएशन की कार्यकारिणी में 90 फीसदी लोग ऊंची जातियों के हैं और प्रेस क्लब के शत-प्रतिशत पदाधिकारी इन्हीं सवर्ण जातियों से आते हैं। हालत यह है कि दस्तकारों के मजदूर संगठन भी बहुधा ऊंची जाति के नेताओं के नेतृत्व और नियंत्रण में चल रहे हैं। सामाजिक संस्थाओं पर सवर्ण जातियों की यह गिरफ्त विचार का विषय है। इसमें कुछेक संस्थाएं तो ऐसी भी हैं, जिन्हें सत्ताविरोधी माना जाता है।

शायद इलाहाबाद जाति के मामले में खास तौर पर रूढ़िवादी है। यह बात ठीक है कि यह बस एक शहर भर की बात है और यहां मंशा इलाहाबाद पर उंगली उठाकर ध्यान खींचने की नहीं है। इसके पीछे मूल उद्देश्य यह दर्शाना है कि कमोबेश भारत के अनेक स्थानों पर यही स्थिति देखने को मिलती है। वास्तव में, हाल के कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि मीडिया दफ्तरों, कॉरपोरेट बोर्डों और यहां तक कि क्रिकेट टीम में भी ऊंची जाति के लोगों का दबदबा है।

आइए, उस बात पर लौटते हैं, जो इस लेख की शुरुआत में उठाई गई है। मौजूदा स्थिति के रहते हुए कोई कारण नहीं दिखता कि जातिवादी चेतना खत्म हो जाए। ऐसी स्थिति में जातिवादी चेतना का कम होना ऊंची जाति के लोगों के लिए फायदे की बात होगी, क्योंकि व्यवस्था पर उनका दबदबा कायम रहेगा और उस पर ध्यान भी नहीं जाएगा। लेकिन कोई कारण नहीं है कि ऊंची जातियों के दबदबे को लेकर दलितजन चिंता करनी छोड़ दें। एक ब्राह्मण अगर प्रेस क्लब में जाता है और खुद को किसी ब्राह्मण या अन्य ऊंची जाति के लोगों की संगत में पाता है, तो वह इस अजीब स्थिति से अनजान हो सकता है और इस बात पर गर्व भी महसूस कर सकता है कि उसमें जातिवादी चेतना का अभाव है। लेकिन अगर कोई दलित उसी कमरे में प्रवेश करता है और अपने को ऊंची जाति के सहकर्मियों से घिरा पाता है, जिनमें से कुछ जातिगत ऊंच-नीच के मुखर समर्थक भी हो सकते हैं, तो यह शायद ही संभव है कि वह ऐसी जगह पर खुद को सहज महसूस करे। ठीक इसी तरह, रीवा जिले की उस अलग-थलग कर दी गई बस्ती में अकेले रहने वाले दलितों में जातिवादी चेतना मौजूद है, तो क्या आश्चर्य?

ऊंची जाति में जन्म लेने के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि यह स्वेच्छा का मामला नहीं है। लेकिन शायद यह ‘सौभाग्य’ उसे जाति व्यवस्था से लड़ने की खास व जरूरी जिम्मेदारी सौंपता है, बजाय इसके कि जाति व्यवस्था से लड़ने का जिम्मा दलितों पर छोड़ दें या फिर इससे भी बुरी बात कि समानता की उनकी लड़ाई में रीवा के भू-मालिकों की तरह बाधक बनें। मिसाल के लिए, सार्वजनिक संस्थानों में उस ‘विविधता’ को बढ़ावा दिया जाए, जिसने अन्य कई देशों में प्रजातीय या लैंगिक असंतुलन को उल्लेखनीय तौर पर कम किया है। इलाहाबाद के एनजीओ, मजदूर संगठन और बार एसोसिएशन सिर्फ ऊंची जातियों के क्लब बनकर न रह जाएं, यह सुनिश्चित करने से इन संस्थाओं को कौन रोकता है? शायद यहां एक अलग तरह की जातिवादी चेतना की रचनात्मक भूमिका की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)