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जाति की नई राजनीति- बद्रीनारायण

जनतंत्र सत्ता एवं सामाजिक संरचना के पिरामिड में उथल-पुथल मचाता रहता है। कई बार कई समाजों में जो सामाजिक समूह नीचे रहे हैं, उन्हें वह ऊपर, और जो ऊपर रहे हैं उन्हें वह नीचे ला देता है। लेकिन खासकर ‘भारतीय जनतंत्र' से सामाजिक पिरामिड के ‘ऊपर' और ‘नीचे' को समाप्त कर समानता लाने की अपेक्षा अब भी दूर की कौड़ी ही है।

भारतीय समाज एवं राजसत्ता के शीर्ष पर ब्राह्मण और ठाकुर जैसी जातियां लंबे समय से रही हैं। शिक्षा, विकास एवं नेतृत्व से उसका एक तबका आजादी के पहले से ही जुड़ा रहा है। किंतु राममनोहर लोहिया की समाजवादी राजनीति के उभार के बाद यादव और कुर्मी जैसी मध्य जातियां एवं उत्तर प्रदेश में कांशीराम की बहुजन राजनीति के उभार के बाद दलित जातियां उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सत्ता के शीर्ष पर पहुंची हैं। फलतः सत्ता के पिरामिड में ब्राह्मण, ठाकुर और कायस्थ जैसी बड़ी जातियां नीचे एवं यादव, कुर्मी जैसी मध्य और पासी व दूसरी दलित जातियां ऊपर आ गई हैं। बीती सदी के अस्सी के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद उभरी राजनीति से आया यह सामाजिक जलजला समाज के पारंपरिक ढांचे में गुणात्मक परिवर्तन ला चुका है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पहले ब्राह्मण जैसी जाति कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों में अग्रणी होकर मुख्यमंत्री पद का आकांक्षी रहते हुए दलित एवं पिछड़ों को अपने साथ जोड़ने की राजनीति करती थी। लेकिन राजनीति में आए परिवर्तन के परिणामस्वरूप अब दलित एवं पिछड़े खुद को सत्ता का शीर्ष मानते हुए अपने समाज के ब्राह्मण समूहों को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं। पहले जहां ऊंची जातियों के लिए समाज के निचले पायदान पर खड़ी जातियां ‘स्टेपनी' जाति थी, वहीं अब दलितों एवं पिछड़ों के लिए ऊंची जातियां स्टेपनी जाति समूह के रूप में परिवर्तित हो चुकी हैं।

बसपा ने ऊंची जातियों, खासकर ब्राह्मणों की इस बढ़ती महत्वहीनता को भांपते हुए 2007 के विधानसभा चुनाव में सामाजिक इंजीनियरिंग की राजनीति के तहत अपनी बहुजन राजनीति को, जो ऊंची जातियों के प्रतिकार पर टिकी थी, संशोधित करते हुए ‘सर्वजन' में बदल दिया था। सही मायने में बसपा का यह कदम दलित-ब्राह्मण एवं मुस्लिम गठजोड़ को विकसित करने पर आधारित था। मायावती का यह फॉर्मूला काम आया और उस साल दो तिहाई बहुमत से वह सत्ता में आईं। लेकिन 2012 के चुनाव में विभिन्न कारणों से ब्राह्मण मत बिखर गए और बसपा सत्ता से बाहर हो गई।

आगामी लोकसभा चुनाव के मुद्देनजर बसपा रणनीति के तहत पुनः दलित नेतृत्व के पक्ष में ब्राह्मणों को इकट्ठा करने के बारे में सोच रही है। इसी रणनीति के तहत वह राज्य के 36 लोकसभा क्षेत्रों में ब्राह्मण समाज की सभाएं आयोजित कर रही हैं। साथ ही, उसने अब तक के घोषित 38 प्रत्याशियों में 21 ब्राह्मण प्रत्याशी उतारे हैं। ब्राह्मणों के घटते राजनीतिक महत्व को देखते हुए सत्ता में उनकी भूमिका सुनिश्चित करने के लिए वह गरीब ब्राह्मणों को आरक्षण देने के भी नारे लगा रही है।

सपा भी उत्तर प्रदेश में अपना नेतृत्व बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों का समर्थन हासिल करने की मुहिम में जुटी है। उसने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए 22 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे हैं।

वह ब्राह्मणों की मिथकीय अस्मिता को पुनर्रचित कर उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहती है। ब्राह्मण मतों के ध्रुवीकरण के लिए उसने बसपा सरकार के दिनों में नियुक्ति के बाद बर्खास्त संस्कृत शिक्षकों की समस्याएं जल्दी ही दूर करने का वायदा किया है। पिछले दिनों सपा ने परशुराम के आइकन को ब्राह्मणों की अस्मिता निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान देने हेतु अनेक जगहों पर परशुराम जयंती आयोजित की। तीर-धनुष और परशु (फरसा) के साथ आक्रामक परशुराम को ब्राह्मणत्व के प्रतीक के रूप में याद दिलाते हुए ब्राह्मणों को जोड़ने की कोशिश की गई।

परशुराम के नाम पर पार्क तो बनाया ही गया, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने शाहजहांपुर के जलालाबाद गांव को परशुराम की जन्मस्थली मानते हुए उसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की घोषणा की है। किसी को भी प्रामाणिक जानकारी नहीं है कि परशुराम कहां जन्मे थे। कोई उन्हें केरल, कोई महाराष्ट्र, तो कोई मध्य प्रदेश का बताता है। साथ ही, ब्राह्मण अस्मिता पहले वशिष्ठ जैसे ज्ञानी एवं शांत ऋषि से अपने को ज्यादा जोड़ती थी, पर अब उसे परशुराम जैसे उग्र एवं आक्रामक प्रतीक से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। परशुराम हालांकि सिर्फ ब्राह्मणों के ही नहीं हैं, सवर्णों में भूमिहार, दलितों में पासी और महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण खुद को परशुराम का मूल उत्तराधिकारी साबित करने में लगे रहते हैं।

राम जन्मभूमि मुद्दे के बाद ब्राह्मणों का मजबूत समर्थन पा रही भाजपा सपा और बसपा के इन प्रयासों से आहत है। वह न सिर्फ इन ब्राह्मण सम्मेलनों को धोखा बता रही है, बल्कि उसका कहना है कि इन दोनों दलों ने हर बार ब्राह्मणों का अपमान किया है। ब्राह्मणों की जातीय अस्मिता को खुश करने के लिए वह स्कूली पाठ्यक्रमों में मनु, कौटिल्य एवं परशुराम के पाठ शामिल करने की मांग कर रही है। इन सबमें कांग्रेस का नजरिया सबसे रोचक है। जिस कांग्रेस को बीती सदी के अस्सी के दशक तक ब्राह्मणों का समर्थन मिलता था, वह आज असमंजस में है कि जाति की नई राजनीति का सामना कैसे करे और अपने खिसक गए पारंपरिक आधार को किस तरह हासिल करे।