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जाति के जाल से कर्नाटक भी नहीं बचा-- एस श्रीनिवासन

अब जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव में चंद हफ्ते रह गए हैं, तो राज्य में चुनावी गहमागहमी चरम की ओर बढ़ चली है। हालांकि कर्नाटक की आर्थिक स्थिति कई अन्य सूबों के मुकाबले बेहतर है, फिर भी इसकी अपनी कुछ समस्याएं तो हैं ही। राज्य में खेती-किसानी काफी दबाव में है। इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि साल 2012 से 2017 के बीच वहां 3,500 से अधिक किसानों ने खुदकुशी की है। राजस्थान के बाद कर्नाटक दूसरा प्रदेश है, जहां सर्वाधिक सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं, इसके जमीनी इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार की दरकार है। सुखद यह है कि इसके पास फलते-फूलते शिक्षा व आईटी उद्योग हैं, और इसके तटीय क्षेत्र को ‘बैंकिंग इंडस्ट्री' के उद्गम स्थल के रूप में देखा जाता है।

लेकिन ये सब विधानसभा चुनाव के मुद्दे नहीं हैं। इसकी बजाय चुनाव जातिगत समीकरणों, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, कट्टर हिंदुत्व बनाम उदार हिंदुत्व, क्षेत्रीय अस्मिता जैसे ऐसे मसलों पर लड़ा जा रहा है, जिसे चुनावी रैलियों में नेता गढ़ रहे हैं और टीवी स्टूडियो में बैठे राजनीतिक विश्लेषक व एंकर जिनको अपनी सुविधा के अनुसार बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं। कर्नाटक में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच है। जहां यह चुनाव कांग्रेस के लिए जियो या मरो का मामला है, तो वहीं भाजपा के लिए 2019 के आम चुनाव के पहले की एक अहम परीक्षा। तीसरे खिलाड़ी जेडी-एस की राजनीतिक प्रासंगिकता की जांच भी इस विधानसभा चुनाव में होगी।

इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कमान जहां मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के हाथों में है, वहीं भाजपा ने उन्हें चुनौती देने के लिए अपनी तरफ से येदियुरप्पा को उतारा है, पर वह अपने शीर्ष नेताओं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के साये के नीचे दब से गए हैं। भाजपा कर्नाटक चुनाव को मोदी बनाम सिद्धरमैया बनाना चाहती है, लेकिन सिद्धरमैया किसी को वॉकओवर नहीं दे रहे, वास्तविकता तो यह है कि वही एजेंडा तय कर दे रहे हैं, और भाजपा को प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

भारत के अन्य इलाकों की तरह कर्नाटक में भी चुनाव जातिगत आधार पर लड़ा जा रहा है। राज्य में दो जातियों का काफी दबदबा रहा है- लिंगायत और वोक्कालिगा। दोनों ही मजबूत कृषक समुदाय हैं। जहां लिंगायत राज्य के उत्तरी इलाके में बड़ी संख्या में हैं, तो वहीं वोक्कालिगा पूर्व मैसूर राज्य वाले इलाके में बसे हुए हैं। यह अब दक्षिण कर्नाटक का हिस्सा है। आबादी के लिहाज से लिंगायत बड़ी जाति है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत है, जबकि वोक्कालिगा 15 फीसदी है। कर्नाटक में दलित आबादी 23 प्रतिशत और मुसलमान 10 प्रतिशत हैं, बाकी छोटे धार्मिक समुदायों व उप-जातियों की आबादी है। मसलन, सिद्धरमैया कुरबा जाति के हैं, जो उत्तर भारत की अहीर जाति जैसी है। उनकी आबादी लगभग आठ प्रतिशत है।

जहां भाजपा का मजबूत आधार लिंगायत हैं, वहीं वोक्कालिगा मतदाता पारंंपरिक रूप से जनता परिवार और अपनी जाति के सबसे बड़े नेता देवेगौड़ा के साथ ही रहे हैं। कांग्रेस पूर्व में लिंगायत व वोक्कालिगा, दोनों के नेताओं व मतदाताओं के वोट पाती थी। फिर उसके पास देवराज अर्स जैसे नेता थे, जिन्हें राज्य के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में गिना जाता है। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने निचली जातियों, पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों का गठबंधन बनाया था। हालांकि सिद्धरमैया को राजनीतिक तौर पर देवेगौड़ा ने गढ़ा, मगर अर्र्स की सोशल इंजीनियरिंग से प्रेरणा लेकर उन्होंने एक अपना आधार तैयार किया है। अपने एक साहसिक कदम के तहत उन्होंने लिंगायत को हिंदुत्व से अलग धार्मिक समुदाय की मान्यता देकर भाजपा के आधार को तोड़ने का काम किया है।

स्वयं सिद्धरमैया का उदय काफी नाटकीय रहा है। उन्होंने 2006 में उस वक्त कांग्रेस का दामन थामा था, जब कुमारस्वामी के मसले पर देवेगौड़ा के साथ उनका मतभेद गहरा गया। देवेगौड़ा राजनीति में सिद्धरमैया की बजाय अपने बेटे कुमारस्वामी को बढ़ावा देने लगे थे। कांग्रेस में काफी दिनों तक सिद्धरमैया को बाहरी व्यक्ति के तौर पर देखा गया। लेकिन 2013 में विधायक दल का नेता चुनने के लिए जब गोपनीय बैलेट पेपर के जरिये चुनाव हुआ, तो सिद्धरमैया विधायकों की पहली पसंद थे, और यह उनके लिए एक टर्निंग प्वॉइंट साबित हुआ। उन्होंने सूझबूझ से मल्लिकार्जुन खड्गे को पीछे छोड़ा। खड्गे कर्नाटक के महत्वपूर्ण दलित नेता हैं, और इन दिनों लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं। उनके दूसरे प्रतिद्वंद्वी प्रदेश पार्टी अध्यक्ष जी परमेश्वर थे, पर वह विधायकी का चुनाव ही नहीं जीत सके। सिद्धरमैया ने न सिर्फ राज्य में पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वियों को सिर उठाने का मौका नहीं दिया, बल्कि कुशलता से उन्होंने केंद्रीय आलाकमान का भी भरोसा बनाए रखा। अब वह एक क्षत्रप हैं और उनकी तुलना आंध्र के वाईएसआर और पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह से की जा सकती है।

सिद्धरमैया राष्ट्रवादी हिंदुत्व की भाजपाई राजनीति का मुकाबला अपने खास क्षेत्रीय उप-राष्ट्रवाद के जरिए कर रहे हैं। इसी रणनीति के तहत उन्होंने कर्नाटक के लिए अलग झंडा प्रस्तावित किया था। वह लगातार कन्नड गौरव की बात उठाते हुए भाजपा-आरएसएस पर यह आरोप लगा रहे हैं कि वे जबरन हिंदी थोपना चाहते हैं। सिद्धरमैया ‘संघवाद पर खतरा' का मुद्दा उठाकर दक्षिण भारत के नेताओं में एकराय कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा को चिढ़ाने के लिए वह टीपू सुल्तान को एक हीरो के तौर पर पेश करते रहे हैं। पूर्व में वह खुद को नास्तिक बताते थे, लेकिन अब वह खुद को एक ऐसा हिंदू बता रहे हैं, जो आध्यात्मिकता में यकीन रखते हैं, और वह तो धार्मिक रूढ़िवादिता के विरोधी थे।

वैसे सिद्धरमैया के राजनीतिक शत्रु कम नहीं हैं। गौड़ा परिवार ने तो इस बार उन्हें चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट से हराने की कसम उठाई है, जो कि मैसूर के बाहरी इलाके में पड़ता है। मुख्यमंत्री की मौजूदा सीट वरुणा से उनके बेटे चुनाव लड़ेंगे। उम्मीद है, उनके खिलाफ येदियुरप्पा के बेटे मैदान में उतरें। बहरहाल, इस खानदानी मुकाबले के अलावा कर्नाटक चुनावों में निरर्थक के मुद्दों पर हंगामा ज्यादा है, जबकि असली मसले हाशिये पर हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)