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जाति जनगणना का अमृत और विष-- बद्री नारायण

अन्य पिछड़े वर्ग की आबादी के आंकड़े जमा करने की घोषणा हो गई है। 2021 की जनगणना में इन आंकड़ों को संकलित किया जाएगा। इसके पहले यह काम 87 साल पहले 1931 की जनगणना में हुआ था। साल 1980 में मंडल कमीशन रिपोर्ट ने भारतीय समाज में ओबीसी के रूप में 1,257 जातियों और 52 प्रतिशत जनसंख्या को चिह्नित किया था। 2021 की जनगणना में अगर ये आंकडे़ संकलित होते हैं, तो इन्हें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने में तीन वर्ष का समय लग जाएगा। यानी ये आंकडे़ 2024 में ही उपलब्ध हो पाएंगे।

जनगणना भारत में औपनिवेशिक शासन द्वारा शुरू की गई मेगा औपनिवेशिक डॉक्यूमेंटेशन परियोजना का हिस्सा थी। लेकिन इसने भारतीय समाज में शासन, नीति, नियम और योजनाओं के निर्माण को गहरे रूप से प्रभावित किया है। राज्यसत्ता इन्हीं जनगणना के माध्यम से विकास की नीतियां तय करती है। इसी के हिसाब से समाज का वर्गीकरण होता है, जो राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक पूंजी का भी रूप लेता है। राजसत्ता के ये दस्तावेज हमारी अस्मिता को निश्चित और जड़ कर देते हैं। राजसत्ता इन्हीं के माध्यम से अपने अनुरूप अनेक नई अस्मिताओं को जन्म देती है।

जनगणना में 1931 के बाद जातियों के आंकड़े संकलित करना बंद कर दिए गए थे। फिर अनेक राजनीतिक दलों के दबाव में 2011 में जातीय आंकड़ों के संकलन की प्रक्रिया शुरू हुई, पर 2011 में निर्णित ढांचे में संकलित आंकडे़ कई कारणों से सामने नहीं आ सके। अब सरकार ने फिर से पिछड़ा वर्ग की समूह आधारित गणना की नीति पर काम करने का संकेत दिया है। यह केवल अनेक राजनीतिक दलों के दबाव या प्रशासन की जरूरतों के कारण किया जा रहा है या इसकी कोई राजनीति भी है? इन आंकड़ों का सरकार क्या करेगी?

इन आंकड़ों के कई उपयोग हो सकते हैं। एक तो इनसे सरकार अपनी पिछड़ी जाति संबंधी नीतियों की समीक्षा कर सकती है। दूसरे, इनकी बढ़ती संख्या का आकलन हो सकता है। तीसरे, चुनाव प्रक्रिया में इन वर्गों की जनसंख्या के कारण सरकारी योजनाओं, परियोजनाओं और आरक्षण संबंधी दावों में और ज्यादा आक्रामकता आ सकती है। नीति निर्माता और शोधार्थी तो इन आंकड़ों का उपयोग कर ही सकते हैं। राजनीतिक दल और चुनाव विशेषज्ञ इन आंकड़ों से अपने आकलन को धार देंगे। अभी तक के ज्यादातर चुनावी आकलनों में 1931 के आंकड़े ही उपयोग में लाए जाते रहे हैं।

इन आंकड़ों से सबसे बड़ा फेरबदल चुनावी राजनीति में ही दिखेगा। इनके आधार पर विभिन्न जातियों को लामबंद करने की राजनीति चलेगी। वहीं दूसरी ओर, भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टी, जो क्षेत्रीय स्तर पर पिछड़ों के जनाधार वाली पार्टियों की चुनौती झेल रही है, इन जातियों में उपेक्षितों और अत्यंत पिछड़े समूहों का एक नया वर्ग बनाकर उन्हें लामबंद करने की कोशिश कर सकती है। उन्हें यह समझाया जा सकता है कि पिछड़ों के लिए मिली सरकारी सुविधाएं उनमें से कुछ जातियों तक ही सीमित रह गई हैं। ऐसे में, जरूरी है कि पिछड़ों में प्रभावी क्रीमी लेयर के अतिरिक्त शेष पिछड़े समाज को, जो कि बहुत बड़ा है, चिह्नित कर उसके मुद्दे उठाए जाएं। भले ये छोटी-छोटी संख्या में हों, पर ये गैर-प्रभावी अति पिछड़ी जातियां संयुक्त रूप से एक बड़ी संख्या में बदल जाती हैं, जो भारतीय चुनाव को गहरे प्रभावित कर सकती है। इनके लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की बात करके इन्हें एक राजनीतिक समूह में बदला जा सकता है। भाजपा यह दावा करती रही है कि वह ऐसी जातियों और समूहों के विकास और उनकी राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयास में लगी है। उसका मानना है कि ऐसी जातियों और समूहों के नेताओं को वह अपने दल और चुनावी प्रक्रिया में उचित शेयर देने की दिशा में आगे बढ़ रही है।

भाजपा सरकार ने 2017 में ‘नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड कास्ट' को एक सांविधानिक शक्ति से लैस कमीशन के रूप में आकार दिया है। साथ ही 2017 में ही दिल्ली हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस जी रोहिणी के नेतृत्व में बने आयोग की रिपोर्ट के आधार पर पिछडे़ वर्ग के और वर्गीकरण की जरूरत पर बल दिया है। ऐसी कोशिशों को सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ जोड़ा जा सकता है। यह तय है कि अगर भाजपा अन्य पिछड़े वर्ग में उपकोटि की राजनीति को अपने पक्ष में लामबंद कर लेती है, तो चुनावी राजनीति में वह अपने को और ज्यादा शक्तिवान बना सकती है। लेकिन इस राजनीति में जोखिम भी हैं। पिछड़े वर्गों की राजनीति करने वाले इसे पिछड़ों में फूट डालने की कोशिश के रूप में पेश करेंगे।

इसमें कोई शक नहीं कि जाति और सामाजिक समूह आधारित जनगणना से तरह-तरह की अस्मिता की राजनीति को और ज्यादा खाद-पानी मिलेगा। यह भी तय है कि इस प्रक्रिया में सरकार अपने तर्कों पर आधारित नई अस्मिताओं का सृजन कर सकती है। इसका एक नतीजा यह भी हो सकता है कि अन्य पिछड़े वर्ग में प्रभावी सामाजिक समूहों और गैर-प्रभावी सामाजिक समूहों में राजनीतिक व विकासपरक अवसरों पर कब्जे के लिए टकराव बढ़े। इससे आरक्षण कोटे को लेकर भी दावे, प्रतिदावे और टकराव बढ़ सकते हैं। किंतु आजादी के लगभग 70 वषार्ें के बाद जातियों के सही आंकडे़ प्रशासन, नीति-निर्माण और शोध के लिए सकारात्मक परिणाम भी दे सकते हैं। वही आंकडे़ राजनीति के हाथों में आते ही टकराव पैदा करने वाले नकारात्मक परिणाम में बदल सकते हैं। यह सच है कि भारतीय लोकतंत्र और समाज में हर चीज राजनीतिक हो जाती है। कई बार इसी प्रक्रिया से विकास का रास्ता भी खुलता है। यह प्रयास एक ही साथ अमृत और विष, दोनों पैदा करने वाला हो सकता है। देखना यह है कि इसका कौन सा रूप हमारे भविष्य को गढ़ता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)