Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/जाति-जनगणना-का-क्या-हुआ-दिलीप-मंडल-12042.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | जाति जनगणना का क्या हुआ --- दिलीप मंडल | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

जाति जनगणना का क्या हुआ --- दिलीप मंडल

जातिवार जनगणना की मृत्यु हो चुकी है और बिना किसी रुदाली के उसे दफना भी दिया गया है। इसकी कब्र पर अब रोने वाला भी कोई नहीं है। यह सब बेहद चुपचाप हुआ। 2017 के जुलाई महीने की छब्बीस तारीख को दिल्ली में केंद्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बैठक हुई। समिति की इस बैठक में फैसला किया गया कि सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी-2011) के लिए हुए 4893 करोड़ रुपए के खर्च को मंजूरी दी जाए। पहले इस पर 4,000 करोड़ रुपए खर्च आने का अनुमान था। साथ ही, मंत्रिमंडल की इस समिति ने कहा कि यह जनगणना 31 मार्च, 2016 को संपन्न हो चुकी है और इस परियोजना के सभी लक्ष्य पूरे हो चुके हैं। सरकार ने न सिर्फ यह फैसला किया, बल्कि बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी करके इसकी जानकारी सार्वजनिक भी कर दी।


यह भारत की संसद के साथ की गई बहुत गंभीर वादाखिलाफी है। जाति जनगणना लोकसभा में बनी सर्वदलीय सहमति के बाद हो रही थी। खुद सरकार ने माना है कि सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के तीन लक्ष्य थे। एक, सामाजिक-आर्थिक हैसियत के अनुसार परिवारों का बंटवारा करना। दूसरा, ऐसा विश्वसनीय आंकड़ा जुटाना, जिससे देश में जाति आधारित गिनती की जा सके। और तीसरा, विभिन्न जातियों और सामाजिक समूहों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के बारे में आंकड़े जुटाना।सरकार खुद बता रही है कि इस परियोजना के दूसरे और तीसरे लक्ष्य के आंकड़े उसके पास नहीं हैं। ऐसे में केंद्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की समिति यह कैसे कह रही है कि सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के ‘सभी लक्ष्य पूरे' हो चुके हैं? जाति जनगणना कराना केंद्र सरकार का कोई मामूली फैसला नहीं था। भारत की आजादी के बाद कभी जाति जनगणना हुई नहीं थी। आखिरी जाति जनगणना 1931 में हुई। वर्ष 1941 में जातियों की गिनती होनी थी, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के कारण आंकड़े जुटाए नहीं जा सके। आजादी मिलने के बाद बनी सरकार ने जाति की गिनती नहीं करने का फैसला किया। इसके लिए उस समय कोई कारण नहीं बताया गया, लेकिन समझा जा सकता है कि नेहरूवादी आधुनिकता ने जाति के प्रश्न को सामने न लाने का फैसला किया होगा। संभवत: यह माना गया होगा कि जाति का जिक्र न करने और आंकड़े न जुटाने से जाति खत्म हो जाएगी। लेकिन न तो ऐसा होना था और न ऐसा हुआ।

 

मंडल आयोग ने आजादी के बाद पहली बार इस बात पर जोर दिया कि जाति भारतीय समाज की सच्चाई है और इसके आंकड़े जुटाए बिना सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान मुश्किल है। मंडल आयोग ने जाति जनगणना कराने की सिफारिश की थी। वर्ष 1997-1998 में संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 2001 की जनगणना में जाति को शामिल करने का फैसला मंत्रिमंडल की एक बैठक में किया था। लेकिन इसके बाद आई अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पिछली सरकार के इस कैबिनेट नोट को रद््दी की टोकरी में डाल दिया और 2001 की जनगणना बिना जाति गिने पूरी हो गई। इसके बाद वर्ष 2011 की जनगणना की बारी थी। इस समय तक शायद देश भी इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि जाति नहीं गिनने का जाति के खत्म होने या न होने से कोई रिश्ता नहीं है। इसलिए जब जनहित अभियान समेत कई सामाजिक व राजनीतिक संगठनों ने 2011 की जनगणना में जाति को गिनने का सवाल उठाया, तो इसे राष्ट्रीय स्तर पर काफी समर्थन मिला। यह मामला बार-बार संसद में उठा, आखिरकार 6 मई और 7 मई, 2010 को लोकसभा में इस पर लंबी बहस चली। सदन में मौजूद हर दल के सांसदों ने इसमें हिस्सा लिया। सत्तापक्ष पहले तो टालमटोल का हर जतन करता रहा, लेकिन संसद के भीतर और संसद के बाहर भी जाति जनगणना को लेकर ऐसा माहौल बना कि कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों से लेकर समाजवादी पार्टी और दक्षिण भारत से लेकर पूर्वोत्तर तक के दल जाति जनगणना कराने पर सहमत हो गए। सदन में बनी सहमति को देखते हुए, 7 मई को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जाति जनगणना कराने की घोषणा कर दी।


इसके बाद जाति जनगणना का मामला हमेशा के लिए सुलझ जाना चाहिए था। लेकिन, इस बिंदु पर आकर नौकरशाही और कार्यपालिका के जातिवादी तत्त्वों ने साजिश रच दी। उन्होंने कहा कि 2011 की दस वर्षीय जनगणना में जाति को शामिल करने की जगह अलग से जाति जनगणना करा ली जाए। यह एक बड़ा घोटाला था। 2011 के फरवरी माह में दस वर्षीय जनगणना होनी थी और उसके फॉर्म में जाति का एक कॉलम जोड़ने से जाति की गिनती हो जाती। सन 1931 से पहले यह काम इसी तरह होता था। अलग से जाति गिनने में सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि यह काम जनगणना अधिनियम, 1948 के तहत नहीं होता। इस वजह से इस काम में सरकारी शिक्षकों को शामिल करना मुश्किल हो गया। शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत जनगणना के अलावा किसी भी और कार्य में सरकारी शिक्षकों को लगाने की मनाही है। जाति जनगणना को मनमोहन सिंह सरकार ने दसवर्षीय जनगणना से अलग करके, सामाजिक-आर्थिक जनगणना के साथ जोड़ दिया, जिसका मकसद गरीबी रेखा से नीचे के यानी बीपीएल परिवारों की पहचान करना था। इस काम में निजी कंपनियों के कर्मचारी और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के कार्यकर्ता लगा दिए गए। नतीजा यह रहा कि जाति जनगणना के आंकड़ों में भयंकर गलतियां हुर्इं। तब तक दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार आ चुकी थी। मोदी सरकार ने इन गलतियों को सुधारने के लिए नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया के नेतृत्व में एक समिति बना दी। यह आश्चर्यजनक है कि जिन पानगड़िया को जाति और समाजशास्त्र की कोई समझ नहीं थी और जो कि अर्थशास्त्री हैं, उनको जाति के आंकड़ों की गलतियां निकालने का जिम्मा सौंप दिया गया।


आज स्थिति यह है कि पानगड़िया अपना काम छोड़ कर अपनी पुरानी नौकरी यानी पढ़ाने के काम में लौट चुके हैं। आज तक सरकार ने पानगड़िया समिति के बाकी सदस्यों को नियुक्त नहीं किया। यानी वह समिति कभी बनी ही नहीं, जिसे जाति जनगणना के आंकड़े दुरुस्त करके अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी थी।


इस तरह जाति जनगणना के नाम पर कांग्रेस पार्टी ने जिस घपले की शुरुआत की, उसे भारतीय जनता पार्टी ने मुकाम तक पहुंचाया। जाति जनगणना एक ऐसा शिशु साबित हुआ, जिसका जन्म हो ही नहीं पाया। इस पूरी कवायद में भारतीय राजकोष के लगभग पांच हजार करोड़ रुपए खर्च हो गए। जाति जनगणना के लिए जो हैंडहेल्ड मशीनें आई थीं, उनका एक ही बार इस्तेमाल हुआ। 200 करोड़ रुपए में चीन से खरीदी गई उन मशीनों का अब क्या होगा, इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है। 5,000 करोड़ की इस गिनती से कोई रिपोर्ट नहीं बनी, लेकिन इस नाकामी के लिए किसी पर गाज नहीं गिरी। जाति जनगणना 2011 शुरुआत से ही अभिशप्त थी। बहुत बेमन से इसे कराया गया और ऐसे हालात बना दिए गए कि जाति जनगणना की मांग करने वाले और संसद को इसके लिए मजबूर कर देने वाले भी भूल गए कि ऐसी कोई जनगणना कभी हुई थी।