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जातीय संघर्ष के ज्वालामुखी--- सतीश पेडणेकर

इन दिनों महाराष्ट्र में जो हो रहा है वह अद्भुत है। महाराष्ट्र महारैलियों का प्रदेश बन गया है। राज्य के जिलों में भी मराठाओं की विशाल रैलियां निकल रही हैं, जिनमें लाखों लोग जुट रहे हैं। कुछ समय पहले तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि जिले-जिले में ऐसी महारैलियां निकल सकती हैं। ये महारैलियां इस बात की प्रतीक हैं कि राज्य की एक तिहाई आबादी वाली मराठा जाति में जबर्दस्त गुस्सा है। यहां बता दें कि मराठा और उससे मिलते-जुलते मराठी माणुस में फर्क है। महाराष्ट्र के सभी मराठी मराठी माणुस कहलाते हैं, जबकि मराठा एक जाति है, जो खेती से जुड़ी हुई है। उसके गुस्से की सबसे बड़ी मिसाल तो यह है कि महाराष्ट्र का शेर कही जाने वाली शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना' के रैलियों के बारे में अपमानजनक कार्टून छापने पर सामना के दफ्तर पर मराठा संगठनों ने हमला किया। अब वे संपादक उद्धव ठाकरे और संजय राऊत से माफी की मांग कर रहे हैं।

इन रैलियों से एक बात स्पष्ट है कि महाराष्ट्र मराठा और दलितों के जातीय संघर्ष के मुहाने पर खड़ा है। ओबीसी जातियां भी कभी भी इसके चपेट में आ सकती हैं। भाजपा की सरकार अब भी पड़ोसी गुजरात में पाटीदार आंदोलन से निपटने की कोशिश कर रही है कि महाराष्ट्र की प्रभु जाति मराठा जाति का आंदोलन उग्र रूप लेता जा रहा है। राज्य के विभिन्न जिलों में जिस तरह शांतिपूर्ण, गैर-राजनीतिक, मगर विशाल मराठा रैलियां हो रही हैं, उसने राज्य के राजनेताओं की नींद उड़ा दी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि राज्य के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से ताकतवर मराठा इतने गुस्सा क्यों हैं। वैसे उनकी कुछ मांगों को देख कर लगता है कि वे दलितों के रवैए से नाराज हैं। मगर बात अब वहीं तक सीमित नहीं रही। अब देश के अन्य राज्यों की जाट, गूजर और पटेल जैसी अन्य सवर्ण जातियों की तरह उन्हें भी आरक्षण चाहिए।

इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के कोपर्डी गांव से, जहां एक किशोरी 14 जुलाई को अपने दादा-दादी को देखने गई और लौटी ही नहीं। बाद में गांव के एक खेत में उसका शव मिला। बलात्कार के बाद उसकी गला घोंट कर हत्या कर दी गई थी। वह एक मराठा थी और बलात्कार और हत्या के आरोपी दलित। यह मुद्दा मराठा समाज में अंदर ही अंदर गरमाता रहा। सवाल उठने लगे कि अगर यही वाकया किसी दलित के साथ होता और आरोपी सवर्ण होते, तो क्या इस मामले में ऐसी उदासीन प्रतिक्रिया होती। इसके साथ मराठाओं में आक्रोश सुलगने लगा और रैलियों के रूप में उभर कर आया। राज्य के कई शहरों में शांतिपूर्ण और मूक प्रदर्शन होने लगे। अब मराठा समूह राज्य के हर जिले में ऐसी रैलियां आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। आखिरी रैली मुंबई में होगी, जिसमें पच्चीस से पचास लाख मराठाओं के आने का अनुमान है।

मराठाओं की तीन मांगें हैं- कोपर्डी बलात्कार के आरोपियों को फांसी की सजा हो। दूसरी, एट्रोसिटी एक्ट में बदलाव हो और मराठाओं को आरक्षण दिया जाए। इनमें से दो मांगें दलितों को लेकर हैं। एक बलात्कार के आरोपियों को फांसी हो और दूसरी एट्रोसिटी कानून में बदलाव हो। महाराष्ट्र में दलितों की आबादी काफी मुखर है। वर्षों के दमन और सक्रियता ने दलितों को सिखा दिया है कि अपने पक्ष में चीजों का प्रयोग कैसे करना है। एट्रोसिटी एक्ट राष्ट्रीय अधिनियम है, जो दलितों के खिलाफ कदम को संज्ञेय अपराध बनाता है। इसके तहत अगर कोई गैर-दलित किसी दलित की काम के दौरान कटु आलोचना भी करता है, तो वह उस व्यक्ति के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा सकता है और पुलिस उसे पकड़ कर बंद कर सकती है।

मराठाओं का कहना है कि राज्य में ऐसे दुर्भावनापूर्ण मामले बड़ी संख्या में होते हैं। इस कानून का प्रयोग ब्लैकमेल और उगाही करने और दुश्मनी निकालने के लिए किया जाता है। लेकिन दलितों का इस बारे में अलग ही कहना है। वे कहते हैं कि एट्रोसिटी एक्ट का दुरुपयोग तब होगा, जब पहले उसका उपयोग हो। हकीकत यह है कि राज्य प्रशासन पर अब भी सवर्ण हावी हैं और वे एट्रोसिटी एक्ट लागू ही नहीं होने देते। दलित बलात्कारियों को फांसी की मांग को लेकर प्रदर्शन किए जाने के खिलाफ नहीं हैं। उनका कहना है कि यह अधिकार बाबासाहब के संविधान ने लोगों को दिया है। लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे कि बलात्कार के मामले और एट्रोसिटी कानून में बदलाव का क्या ताल्लुक है। दलितों के खिलाफ शुरू हुआ यह आंदोलन अब आरक्षण की मांग पर आ पहुंचा है। राज्य की पिछले पचास वर्षों से सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पर एकछत्र रूप से हावी रही मराठा जाति में पिछले कुछ वर्षों से आरक्षण की मांग जोर पकड़े हुए है। राज्य की कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने विधानसभा चुनावों से पहले मराठाओं को सोलह प्रतिशत और मुसलिमों को चार प्रतिशत आरक्षण दे दिया। मगर अदालत ने उसे खारिज कर दिया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है।

हालांकि इस आंदोलन का नेतृत्व न तो कोई बड़ा मराठा नेता कर रहा है और न ही कोई राजनीतिक पार्टी। रणनीति के तहत मराठा समुदाय के लोग एक योजनाबद्ध तरीके से सड़कों पर उतर रहे हैं, जिनमें युवा, महिलाएं और युवतियां खासतौर से शामिल हो रही हैं। एट्रोसिटी कानून रद्द करने की मांग से शुरू हुए इस आंदोलन के मंच का उपयोग मराठा आरक्षण की मांग के लिए भी किया जाने लगा है। राज्य सरकार की मुश्किल यह है कि मराठाओं की तीनों मांगों के बारे में वह सीधे कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। बलात्कारियों को सजा देने का फैसला कोर्ट को करना है, सरकार को नहीं। एट्रोसिटी एक्ट राष्ट्रीय कानून है, जो कश्मीर को छोड़ कर सारे देश में लागू होता है। उसके बारे में केंद्र सरकार ही कुछ कर सकती है। आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ही पचास प्रतिशत की सीमा तय की हुई है, इसलिए गूजर, जाट और पटेलों की तरह ही मराठा को आरक्षण का फैसला सुप्रीम कोर्ट में रद्द हो जाएगा।

तब मराठा यह मांग कर सकते हैं कि उन्हें ओबीसी के तहत आरक्षण दिया जाए, तब मराठा और ओबीसी के बीच जातीय तनाव पैदा हो सकता है। वैसे यहां हम बता दें कि मराठाओं की एक उपजाति कुनबी को ओबीसी आरक्षण मिला हुआ है। इस तरह एट्रोसिटी एक्ट को लेकर मराठा और दलित तनाव और आरक्षण को लेकर ओबीसी और मराठा तनाव पैदा हो सकता है। अभी से लोगों को यह लग रहा है कि इन रैलियों के दौरान असामाजिक तत्त्वों ने दलित बस्तियों की तरफ पत्थर फेंका तो राज्य भर में दंगे भड़क सकते हैं। राज्य के मराठवाड़ा में दलित और मराठा संघर्ष का इतिहास रहा है, मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामांतरण के वक्त ये संघर्ष पूरे राज्य ने देखा था। अब मराठा आंदोलन की एक मांग एट्रोसिटी एक्ट में बदलाव की है, कुछ दलित नेता इसका विरोध कर रहे हैं। कुछ दलित संगठनों ने इस मांग के खिलाफ प्रदर्शन करने की तैयारी शुरू की थी, मगर दलित नेताओं ने उन्हें समझाया कि अभी तक मराठा आंदोलन सीधे दलितों के खिलाफ नहीं है, इसलिए उन्हें जवाबी रैली निकालने से बचना चाहिए। लेकिन एक बात तो साफ है कि लाखों मराठाओं के सड़क पर उतरने से महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया भूचाल आ गया है। मामला जातिगत होने के कारण कभी भी गंभीर रूप ले सकता है। लोगों के सामने सवाल है कि कहीं इस आंदोलन की वजह से मराठा और दलितों- ओबीसी में संघर्ष तो नहीं भड़क उठेगा। मराठाओं और ब्राह्मणों का झगड़ा तो सदियों पुराना है।

मराठा आंदोलन के पीछे कौन है? इसका सच क्या है? कोई इसके पीछे एनसीपी मुखिया शरद पवार का दिमाग बता रहा है, तो कोई आध्यात्मिक गुरु भैय्यू जी महाराज को वजह बता रहा है, तो कोई इसे फडणवीस सरकार के विरोधियों का काम बता रहा हैं। सवाल यह भी है कि मराठा आंदोलन का महाराष्ट्र की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? क्या यह आंदोलन फडणवीस सरकार के लिए खतरे की घंटी है? कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस आंदोलन की वजह से मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को घेरने का मौका पार्टी के भीतर के और बाहर के विरोधियों को मिल रहा है। दरअसल, भाजपा ने गलती यह की है कि उसने मराठा वर्चस्व वाले इस राज्य में एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बना दिया है, जिनकी आबादी राज्य में मुश्किल से तीन प्रतिशत है। महाराष्ट्र के निर्माण के बाद मराठा मुख्यमंत्री हो या न हो फिर भी सत्ता की नकेल अपने हाथ में रखने वाले मराठाओं को नई सरकार रास नहीं आ रही। इसलिए फडनवीस सरकार की डगर आसान नहीं है। भाजपा के हलकों में यह भी चर्चा है कि भाजपा आलाकमान मराठा आंदोलन को शांत करने के लिए फडणवीस की जगह किसी मराठा नेता को मुख्यमंत्री बनाने पर विचार कर रहा है। हालांकि अभी तक किसी ने फडणवीस को हटाने की मांग नहीं की है।