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जीएसटी की जटिलताओं से बेचैन - संजय गुप्त

पिछले वर्ष आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब दीपावली के तुरंत बाद नोटबंदी का ऐलान किया था, तब एक बड़े व्यापारी वर्ग को यह लगा था कि सरकार के इस कदम से उसके समक्ष तमाम मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। नोटबंदी को लेकर व्यापारी वर्ग के असंतोष के बाद भी मोदी सरकार इसे लेकर आश्वस्त थी कि यह एक आवश्यक कदम है और आगे चलकर इसका आर्थिक लाभ मिलेगा। तमाम समस्याओं के बावजूद आम जनता के बीच नोटबंदी को लेकर यह धारणा भी बनी थी कि सरकार ने इसके जरिए कालेधन के कारोबारियों पर तगड़ी चोट की है। काफी हद तक ऐसा हुआ भी।


यह भी सही है कि भाजपा को इस फैसले का राजनीतिक लाभ भी मिला। कई राज्यों के निकाय चुनावों और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जबर्दस्त सफलता को नोटबंदी का ही असर माना गया। भाजपा को ऐसे जनसमर्थन के बाद जहां व्यापारी वर्ग शांत हो गया, वहीं धीरे-धीरे बाजार में नोटों की किल्लत भी समाप्त हो गई। नोटबंदी को सभी ने एक कड़वी गोली के रूप में स्वीकार किया था। खुद प्रधानमंत्री ने कई बार यह कहा था कि बड़े लक्ष्य को पाने के लिए कड़वी गोली आवश्यक होती है। लोगों ने उनकी इस बात को स्वीकार किया तो इसका एक बड़ा कारण यह था कि नोटबंदी के पीछे सरकार का नेक इरादा नजर आ रहा था। मोदी की अपनी छवि के कारण भी नोटबंदी को लोगों का व्यापक समर्थन मिला। नोटबंदी के आठ महीने बाद ही जीएसटी लागू हुआ। यह एक बड़ा और अहम आर्थिक सुधार का कदम था।


जीएसटी की कल्पना लगभग एक दशक पूर्व की गई थी, लेकिन उसे लागू करने में लंबा वक्त लग गया। इस कर सुधार का मकसद पूरे देश में टैक्स की एक समान प्रणाली लागू करना, दो नबंर के लेन-देन पर लगाम लगाना और अलग-अलग टैक्स के झंझट को खत्म करना था। जीएसटी जरूरी था, लेकिन उसके क्रियान्वयन संबंधी खामियों ने व्यापारियों की परेशानी बढ़ाने का काम किया है।


इसमें दो-राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक लोकप्रियता अभी भी सबसे अधिक है। कोई अन्य नेता उनके जितना लोकप्रिय नहीं। इसके बावजूद यह भी सही है कि जीएसटी के पेचीदा नियम-कानूनों से पीड़ित व्यापारियों के बीच मोदी की उद्योग-व्यापार को बल देने वाले कुशल प्रशासक की छवि प्रभावित होती दिख रही है। नि:संदेह जीएसटी का लक्ष्य देश में व्यापक आर्थिक बदलाव लाना है, लेकिन यह भी सच है कि तीन माह बाद भी उसके अनुपालन से जुड़ी जटिलताएं व्यापारियों को परेशान कर रही हैं। उन्हें कुछ राहत दी गई है, लेकिन जटिलताएं समाप्त होने का नाम नहीं ले रही हैं। जीएसटी के चार स्लैब, लंबी कागजी खानापूरी, रियायत संबंधी शर्तें व्यापारी वर्ग के लिए गंभीर समस्या बन गई हैं। बतौर उदाहरण अगर छोटे व्यापारी ऐसे व्यापारियों को माल बेचते हैं जो जीएसटी के तहत रजिस्टर्ड हैं तो उन्हें इनपुट क्रेडिट नहीं मिलता। जीएसटी के तहत रजिस्टर्ड व्यापारियों को अपना हिसाब-किताब दुरुस्त रखने के लिए भी अतिरिक्त कदम उठाने पड़ रहे हैं। जीएसटी के चार स्लैब होने के कारण उन व्यापारियों की कागजी लिखा-पढ़ी बहुत बढ़ गई है, जो हर तरह की सामग्री बेचते हैं। एक और समस्या निर्यातकों को रिटर्न मिलने में देरी की है। इस देरी के चलते उनके सामने पूंजी का संकट पैदा हो रहा है। कुछ को तो अपने ऑर्डर तक कैंसल करने पड़ रहे हैं। समझना कठिन है कि इन समस्याओं के बारे में समय रहते क्यों नहीं सोचा गया?


निश्चित रूप से व्यापारी वर्ग जीएसटी संबंधी जिन समस्याओं से दो-चार है, वे ऐसी नहीं जिनसे जीएसटी काउंसिल या वित्त मंत्रालय परिचित न हो, लेकिन उनके समाधान में देरी हो रही है और इसी कारण मोदी सरकार को आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। देखना है कि जीएसटी परिषद अगले कुछ दिनों में जीएसटी के अनुपालन से जुड़ी जटिलताओं का कोई ठोस समाधान कर पाती है या नहीं? मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जीएसटी से संबंधित जटिलताएं हिमाचल प्रदेश और गुजरात में पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर विपरीत असर न डालें। अगले कुछ दिनों में इन दोनों राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। इनमें गुजरात के चुनावों का कहीं अधिक राष्ट्रीय महत्व है। यहां के चुनाव नतीजे आगामी लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित करने का काम कर सकते हैं।


इन दोनों राज्यों में चुनाव प्रचार की तैयारियों के बीच भाजपा इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि जीएसटी से बने माहौल ने एक तरह से मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस में जान फूंक दी है। कांग्रेस अपने भविष्य को लेकर यकायक आशान्वित हो उठी है।


उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सक्रियता बढ़ गई है। कुछ समय पहले तक राहुल गांधी के लिए राजनीतिक हालात कठिन दिख रहे थे, लेकिन जीएसटी के चलते उभरी समस्याओं ने उन्हें उत्साहित कर दिया है। उनके सोशल मीडिया सेल में भी नई ऊर्जा नजर आ रही है, क्योंकि उसे बैठे-बिठाए एक अवसर मिल गया है।


जीएसटी के अनुपालन में आ रही समस्याएं मूलत: नौकरशाही की अकर्मण्यता का नतीजा हैं। अगर जीएसटी सही ढंग से लागू हुआ होता तो आज विपक्ष और व्यापारी मोदी सरकार पर निशाना नहीं साध रहे होते। वैसे भाजपा को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जीएसटी से केवल व्यापारी वर्ग ही प्रभावित है और उसने उनकी नाराजगी से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए नए वोट बैंक बना लिए हैं।


यह एक गलत सोच है, क्योंकि जो किसान और गरीब तबका भाजपा से जुड़ा है, वह कहीं न कहीं व्यापारी वर्ग से प्रभावित होता है। अगर व्यापारी और उद्योगपति खुश नहीं हैं तो इस तबके का भी कुछ न कुछ प्रभावित होना लाजिमी है। यह बात और है कि वह वोट का फैसला अपने हिसाब से लेता है और आम तौर पर भावनात्मक मसलों के आधार पर वोट देता है।


दरअसल इसीलिए अभी यह नहीं कहा जा सकता कि जीएसटी ने भाजपा के विरोध में कोई लहर पैदा कर दी है और व्यापारियों की बेचैनी चुनावी राजनीति पर व्यापक असर अवश्य डालेगी। एक तो आम आदमी के लिए अभी भी वे भावनात्मक मसले ज्यादा महत्व रखते हैं जो जीएसटी से परे हैं और दूसरे, किसानों को जीएसटी से कोई लेना-देना ही नहीं। आम जनता यह भी समझ रही है कि जीएसटी को लेकर कांग्रेस राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में ही ज्यादा शोर मचा रही है, जबकि जीएसटी काउंसिल के फैसलों में वह भी भागीदार है।


इस सबके अलावा इतिहास भी यह बताता है कि जब तक कोई बड़ा भावनात्मक मसला न उभर आए, तब तक जात-पात और अन्य स्थानीय अथवा क्षेत्रीय मसले ही चुनावी राजनीति पर हावी रहते हैं। गुजरात में तो कई बार स्थानीय मसलों ने ही चुनाव को प्रभावित किया है, जैसे गुजरात का गौरव, नर्मदा का पानी और सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई। स्पष्टत: इसमें संदेह है कि कांग्रेस जीएसटी को लेकर व्यापारियों के एक वर्ग के असंतोष के सहारे मोदी की छवि को प्रभावित करके कोई बड़ा चुनावी लाभ हासिल कर सकेगी।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)