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जीने के मौलिक अधिकार की रक्षा-- अनूप भटनागर

अनुसूचित जाति और जनजाति (उत्पीड़न से रोकथाम)कानून के तहत शिकायत होने पर तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान को लचीला बनाने और जांच के बाद ही किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने संबंधी उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था के बाद राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया उनके नजरिये को ही दर्शाती है। राजनीतिक दलों के नेताओं की प्रतिक्रिया को देखते हुए एक सवाल उठता है कि यदि बलात्कार और यौन उत्पीड़न की झूठी शिकायत दर्ज कराने पर अदालत ऐसी महिला के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का आदेश या पीड़ित व्यक्ति को उचित कार्रवाई करने की छूट देती है तो एससी-एसटी कानून के तहत झूठी शिकायत करने वालों के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जा सकती।


देश की शीर्ष अदालत ने उक्त कानून के अंतर्गत अनेक झूठे मामले दर्ज कराये जाने का जिक्र अपने फैसले में किया है। गिरफ्तारी से पहले आरोपों की जांच कराने का मकसद यह पता लगाना है कि कहीं किसी व्यक्ति को फंसाने के इरादे से तो मामला दर्ज नहीं कराया गया है। इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा गया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा 2016 में संकलित अपराध के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जाति से संबंधित जांच के दायरे में आये मामलों में से 5347 झूठे पाये गये जबकि अनुसूचित जनजाति के मामलों में 912 फर्जी निकले।


रिपोर्ट का हवाला देते हुए न्यायालय को बताया गया कि 2015 में अदालतों ने ऐसे 15638 मुकदमों का फैसला किया और इनमें से 11024 की परिणति आरोप मुक्त करने या बरी करने के रूप में हुई जबकि 495 मामले वापस लिये गये और सिर्फ 4119 मामलों में ही दोष सिद्धि हो सकी। शायद इन्हीं आंकड़ों को देखते हुए न्यायालय ने कहा है कि यह कानून इसलिए बना कि शोषित वर्ग पर अत्याचार नहीं हो लेकिन यह भी देखना होगा कि बेवजह किसी निर्दोष व्यक्ति का शोषण नहीं हो।


ऐसी घटनाओं के मद्देनजर ही न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमापूर्ण तरीके से जीने के अधिकार के आलोक में इस कानून के तहत तत्काल गिरफ्तारी की अनिवार्यता के प्रावधान में थोड़ी ढिलाई देकर इसमें अग्रिम जमानत देने की व्यवस्था की है। यही नहीं, न्यायालय ने गिरफ्तारी से पहले आरोपों की जांच और पहली नजर में आरोप सही पाये जाने पर लोकसेवक के मामले में उनकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकार और गैर लोकसेवक के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी से मंजूरी लेने के निर्देश दिये हैं। पहली नजर में न्यायालय की इस व्यवस्था में कोई विसंगति नजर नहीं आती लेकिन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की प्रतिक्रिया काफी चौंकाने वाली है। इसकी वजह, झूठी शिकायत के कारण किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की वजह से उसकी प्रतिष्ठा को पहुंचने वाली ठेस और ऐसे मामले में शिकायतकर्ता के खिलाफ कार्रवाई के बारे में इन दलों और इनके नेताओं की चुप्पी है। इस विशेष कानून के प्रावधानों के मद्देनजर न्यायालय से यह अनुरोध किया गया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा के साथ जीने के मौलिक अधिकार को संरक्षित करने के लिये उचित दिशा निर्देशों की आवश्यकता है।


इसी संदर्भ में अनुसूचित जाति और जनजाति संशोधन विधेयक पर सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामले में संसद की स्थाई समिति की 19 दिसंबर, 2014 को पेश छठी रिपोर्ट की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया गया था। इस रिपोर्ट में संसदीय समिति ने सामाजिक न्याय मंत्रालय के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार कर दिया था कि इस कानून में झूठ अथवा बदनियति से आरोप लगाने वाले के खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई करने का प्रावधान करने की जरूरत नहीं है। समिति का मानना था कि इसमें उन व्यक्तियों के लिये भी न्याय प्राप्त करने का प्रावधान अंतर्निहित होना चाहिए, जिन्हें झूठा फंसाया गया है।


शीर्ष अदालत की मदद के लिये नियुक्त न्याय मित्र वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेन्द्र शरण ने इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकर्षित किया कि इस मामले में अपीलकर्ता के 20 जनवरी, 2011 के आदेश के पांच साल बाद 28 मार्च, 2016 को प्राथमिकी दर्ज करायी गयी। ऐसी स्थिति में किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने से पहले निष्पक्ष, तर्कसंगत और न्यायोचित प्रक्रिया का पालन जरूरी है।


न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति उदय यू. ललित की दो सदस्यीय पीठ के इस फैसले के खिलाफ सरकार ही नहीं बल्कि कुछ राजनीतिक दल भी पुनर्विचार याचिका दायर करने की तैयारी में हैं। यदि ये याचिकायें खारिज हो जाती हैं तो इस फैसले से प्रभावित पक्ष सुधारात्मक याचिका दायर कर सकता है, जिसमें इन दो न्यायाधीशों के साथ ही दो अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश भी हो सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान में प्रदत्त गरिमापूर्ण तरीके से जीने के मौलिक अधिकार की संरक्षा के लिये यह अत्यधिक महत्वपूर्ण न्यायिक व्यवस्था है।