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जीवन चाहिए, मृत्युदंड नहीं- रुचिरा गुप्ता

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की वर्षगांठ पर मुझे एक बात याद आयी. उनकी विधवा, सोनिया गांधी, ने राष्ट्रपति को एक खत में लिखा था कि वे और उनके दोनों बच्चे- राहुल और प्रियंका- राजीव की मृत्यु से अत्यंत पीड़ित हैं, पर वे नहीं चाहते कि राजीव के हत्यारों को मृत्युदंड दिया जाये. सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकर राजीव के हत्यारों को उम्र कैद की सजा दी.

इंदिरा गांधी भी मृत्युदंड के खिलाफ थीं. उन्होंने लोकसभा में मृत्युदंड के खिलाफ बिल पेश किया था. हालांकि प्रधानमंत्री होकर भी वे यह बिल पास नहीं करवा पायीं. समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस भी संसद में मृत्युदंड के खिलाफ दो बार बिल पास करवाने में असफल रहे. भाजपा के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मृत्युदंड के लायक अपराधों की संख्या को कम करने की कोशिश की. लेकिन वे भी असफल रहे.

हालांकि भारत की परंपरा अहिंसा है! यहां जैन मुनि, कीड़े कीटाणु को मरने से बचाने के लिए अपने मुंह को कपड़े से ढकते हैं और आम इंसान बंदूक नहीं रखते. गांधीजी ने अंगरेजी हुकूमत के खिलाफ एक सफल अहिंसापूर्ण आंदोलन चलाया. ज्यादा भारतीय मानते हैं कि मृत्युदंड अंगरेजी हुकूमत की विरासत है. दो लंबे अर्सों के लिए आजाद भारत में हमने किसी व्यक्ति को फांसी पर नहीं चढ़ाया. पर, आजकल कुछ लोग जो सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, बलात्कार और हत्या के लिए मृत्युदंड मांग रहे हैं. उनका प्रभाव हमारे नेताओं और आम जनता पर इतना ज्यादा पड़ रहा है कि हाल में भाजपा के मंत्री किरण रिजिजू ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी राजा के मृत्युदंड के खिलाफ प्रस्ताव को नाकारते हुए कहा कि भारत को अभी मृत्युदंड की जरूरत है.

इसका कारण है कि आम सांसद को भी लगता है कि मृत्युदंड के डर से भयानक अपराध कम हो जायेंगे. इस महीने ज्योति सिंह के बलात्कार और हत्या के मामले में जजों ने चारों अपराधियों को मृत्युदंड देते समय कहा कि शायद इस सजा से भावी बलात्कारी डर के मारे बालात्कार और हत्या नहीं करेंगे.

लेकिन, आंकड़े कुछ और कहते हैं. धनंजय चटर्जी को 2004 में एक बच्ची के बालात्कार के लिए बंगाल में फांसी पर चढ़ा दिया गया था. उसके बाद बंगाल में बलात्कार कम होने के बजाय दोगुने हो गये. 2004 में 1,475 बालात्कार हुए और 2012 में 2,046. एशियाई सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स का शोध कहता है कि जिन सालों में मृत्युदंड और फांसी ज्यादा हुई है, उन्हीं सालों में बलात्कार और हत्याएं भी बढ़ी हैं. शोधकों ने पता लगाया कि मृत्युदंड की तुलना में अपराधी जेल के एकाकीपन और कठोर परिस्थितियों से ज्यादा डरते हैं. लॉ कमीशन ने इन आंकड़ों की रिपोर्ट सांसदों और न्यायिकों को पेश की है.

आखिर हमारे जज और नेता इन आंकड़ों को नजरअंदाज़ क्यों कर रहे हैं? हर काल के अलग कारण हैं. आजादी के तुरंत बाद अंगरेजों के पढ़ाये हुए अफसर अंगरेजों की तरह सोचते थे. विक्टोरियन न्याय को ही न्याय का तरीका मानते थे. बाद के सालों में, जो नेता सामंती वफादारी के कारण चुनाव जीत कर संसद में आये, उनके विचार और मूल्य, आजादी आंदोलन में भाग लेनेवाले नेताओं से बिलकुल अलग थे. ये नेता यथापूर्व स्थिति में विश्वास करते थे. उन्हें लगता था कि गांधीजी, नेहरूजी, जयप्रकाश नारायण और डॉ राम मनोहर लोहिया का मृत्युदंड के खिलाफ आग्रह, पुराने मूल्यों पर प्रहार है.

आज एक नया कारण है- जो नेता हत्या को एक नियंत्रण का तरीका मानते हैं, उन्होंने पब्लिक रिलेशंस कंपनियों के जरिये सोशल मीडिया में झूठ और नफरत का प्रचार करवाया है, जिससे कि वे हत्या का माहौल बनवा सकें. भारत में एक खून की प्यासी संस्कृति को पैदा करने का प्रयत्न है. इस तरह के प्रचार करनेवाले लोग चुनाव जीत रहे हैं. और जो नेता मृत्युदंड के खिलाफ भी हैं, वे दबी आवाज में बोल रहे हैं.

नेता, पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता सब ज्योति के बलात्कारी हत्यारों के मृत्युदंड की प्रशंसा ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि बिलकिस बानो के बलात्कारी और उनकी तीन बेटियों के हत्यारों के लिए मृत्युदंड भी मांग रहे हैं. ये ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जो कुछ सालों पहले तक मृत्युदंड के खिलाफ थे. सच्चाई यह है कि बिलकिस बानो खुद मृत्युदंड के खिलाफ हैं. उनका कहना है कि कड़ी सजा ही उनके लिए काफी है. नारीवादी आंदोलन भी मृत्युदंड के खिलाफ है. हमें जब भी खून, फांसी, मृत्युदंड और जीवन में से किसी एक को चुनना पड़ता था, तो हम जीवन ही चुनते थे.

आज आंदोलन के नाम पर खून के प्यासे लोग एक खूनी संस्कृति बनाने की कोशिश कर रहे हैं. नारीवादी आंदोलन मृत्युदंड और फांसी के खिलाफ है. हम जीवन चाहते हैं, बेखौफ जिंदगी जीना चाहते हैं, मृत्युदंड वाली संस्कृति नहीं.