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जुदा होना खुदा का, नुक्ते से- योगेंद्र यादव

लिखा तो था ‘खुदा’ मगर नुक्ते के फेर से बन गया ‘जुदा’. आशीष नंदी का ‘विवादास्पद बयान’ वाला मुद्दा कुल मिला कर उर्दू की इस कहावत जैसी बात थी, जिसका बतंगड़ बन गया है. जिंदगी भर समाज के हाशियाग्रस्त समूहों की हिमायत करनेवाले आशीष नंदी दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के पक्ष में एक बारीक तर्क गढ़ रहे थे. बात रखते-रखते एक वाक्य में जुबान फिसल गयी. और बस, सारा मीडिया उस वाक्यांश पर पिल पड़ा और हाशियाग्रस्त समुदायों के सिद्धांतकार आशीष नंदी पर यह तोहमत लग गयी की वे दलित, आदिवासी विरोधी हैं. और तो और, अब उन पर अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न कानून के तहत कार्रवाई की तैयारी चल रही है. एक प्रहसन अब त्रासदी में बदल रहा है.

आशीष नंदी के शब्द अकसर गुगली गेंद जैसे घुमावदार होते हैं. वे उक्ति-वैचित्र्य के प्रेमी हैं, अपनी बात अकसर अन्योक्ति और वक्रोक्ति में कहते हैं और अपने बुझौवलों से पाठक को चौंका देते हैं. बहुधा वे अपने तर्क को किसी दृष्टांत में बदल कर पेश करते हैं या फिर उसकी जगह कोई झनझनाता आंकड़ा या फिर चुटकुला ही छेड़ देते हैं. अपने मौलिक विचारों को पेश करने की इसी अदा ने नंदी को दुनिया के सिरमौर समाज-विज्ञानियों में एक बनाया है.

अपनी इसी शैली के कारण वे हमारे समय की सर्व-प्रचलित सहमतियों को चुनौती दे पाते हैं. उनकी कल्पना गरुड़ की तरह उड़ान भर कर ज्ञान के उस विशाल, मगर अज्ञात मैदान में अपनी पहुंच का झंडा गाड़ आती है, जिसके बारे में शेष समाज-विज्ञान अटकल-पच्चीसी से ही काम चला रहा होता है.

जयपुर में त्रसदीनुमा वह प्रहसन उनकी इसी शैली से अनभिज्ञता की वजह से घटित हुआ. उनका यह तर्क मैं उनके मुंह से पहले भी सुन चुका हूं. जब बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण घूस लेते कैमरे में कैद कर लिये गये और मायावती व लालू यादव के बारे में भी भ्रष्टाचार की बातें जोर-शोर से कही जा रही थीं, तब मध्यवर्गीय भद्रता को चुनौती देते हुए आशीष नंदी ने यह तर्क पेश किया था.

उन्होंने कहा कि अगड़ी जातिवाले, शहरी और अंगरेजी बोलनेवाले नेता और नौकरशाहों को तो निकृष्ट से भी निकृष्टतर भ्रष्टाचार करने के तरीके हासिल हैं, तो भी वे पाक-साफ दिखाई देते हैं. उनका सामाजिक ताना-बाना इतना बढ़ा-चढ़ा है कि उसमें उनकी काली कमाई छुप जाती है. उन्हें क्या जरूरत पड़ी है कि घूस में नकदी लेने का जोखिम उठायें, उनके लिए बस इतना भर इशारा करना काफी होता है कि अमेरिका में मेरा जो भतीजा पढ़ रहा है उसकी पढ़ाई के खर्चे को देख लीजियेगा.

पिछले कई बरसों से आशीष नंदी का यह कहना है कि पुराना सवर्ण अभिजन और अब तक वंचित रहे समुदायों के बीच से उभरने वाला नया अभिजन, दोनों ही भ्रष्ट हैं- लेकिन व्यवस्था ऐसी है कि सवर्ण अभिजन तो छुट्टा घूमता है, लेकिन वंचित समुदायों के बीच से आनेवाला नया अभिजन पकड़ा जाता है. वह यह भी कहते हैं कि समाज का वंचित तबका अतीत में अपने साथ हुई नाइंसाफी का हर्जाना भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी करके वसूल रहा है. समाज को समतोल करने और बराबरी पर लाने का एक तरीका यह भी है.

कमोबेश यही बात नंदी ने जयपुर-जलसे में कही. साथी वार्ताकार तरुण तेजपाल ने कहा कि भ्रष्टाचार समाज में बराबरी लानेवाले औजार की तरह काम कर रहा है. आशीष दा ने तेजपाल की बात पर हामी भरी और कहा-‘भले यह बात तनिक ओछी और अश्लील जान पड़े, लेकिन तथ्य यह है ज्यादातर भ्रष्ट ओबीसी और अनुसूचित जाति के हैं और अब इसमें अनुसूचित जनजाति के लोगों की संख्या भी बढ़ रही है.

जबतक यह बात है, तबतक मैं अपने देश के गणतंत्र के प्रति आशावान हूं.’ यदि आप सिर्फ पहले वाक्य को पढें तो असत्य, आघातजनक और जातिवादी आग्रहों से भरा जान पड़ेगा, लेकिन उसे दूसरे वाक्य से जोड़ कर और एक संदर्भ के साथ पढ़ें, उन बातों की रोशनी में पढ़ें जो वे पहले से कहते आ रहे हैं, तो आप एक नितांत अलग निष्कर्ष पर पहुंचेंगे.

अगर जुबान की फिसलन को भूल कर उनकी बात को खोल कर रखा जाता, तो उसे इस रूप में भी पढ़ सकते हैं- ‘भले ही यह तनिक ओछी और अश्लील बात जान पड़े, पर यह तथ्य है कि जो पकड़े और मीडिया द्वारा सार्वजनिक निंदा का पात्र समझे जाते हैं, उनमें ओबीसी व अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या अनुपात से ज्यादा है और इसमें अब अनुसूचित जनजाति के लोगों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है.

इस तरह, भ्रष्टाचार अनजाने में ही सही लेकिन एक बड़ी भूमिका निभा रहा है. यह भूमिका है वंचित तबके के साथ अतीत में हुई नाइंसाफी का हर्जाना चुकाने की. जबतक हर्जाना चुकाने का यह औजार बरकरार है, मैं अपने गणतंत्र के प्रति आशावान हूं.’ यही बात नंदी ने अपने स्पष्टीकरण में भी कही है. आहत भावनाओं के लिए वे माफी भी मांग चुके हैं.

आप उनसे असहमत हो सकते हैं. मैं खुद असहमत हूं ही. भ्रष्टाचार के बारे में यह तर्क कि वह अतीत में हुए अन्याय के लिए हर्जाना चुकाने का औजार है, दरअसल दलित-चिंतक चंद्रभान प्रसाद के सोच के करीब बैठता है, जो कहते हैं कि पूंजीवाद और अंगरेजी के आने से दलितों की मुक्ति का रास्ता खुला. यह तर्क न तो तथ्यसंगत है और न ही युक्तिसंगत. लेकिन, यह कहना कि नंदी का सोच अनुसूचित जाति/ जनजाति/ ओबीसी के विरुद्ध है, या इससे भी आगे बढ़ कर यह कहना कि नंदी ने वंचित तबके के ऊपर अपने जातिवादी आग्रहों के कारण लांछन लगाया है- दरअसल उनकी बातों का भयानक कुपाठ करना है.

आप कह सकते हैं कि उनके वक्तव्य की बनावट ही ऐसी थी कि उसका कुपाठ हुआ. लेकिन फिर आपको यह भी कहना होगा कि सार्वजनिक जीवन में वक्रोक्ति के लिए कोई जगह नहीं है. आपको समकालीन मीडिया के इस चलन से भी सहमत होना होगा कि एक जटिल तर्क के तंतुओं में से किसी एक को सुविधानुसार अलगा लो और फिर उसे सार्वजनिक वक्तव्य बता कर सामूहिक भोज की पंगत में परोस दो.

अफसोस की बात यह है कि प्रवंचना का यह अभियान दलित, आदिवासी एवं ओबीसी के नाम पर हो रहा है. जिन्हें सदियों तक सामाजिक-सेंसरशिप झेलनी पड़ी, अब वे ही सामाजिक-सेंसरशिप को अपना औजार बना रहे हैं. व्यंग्य, वक्रोक्ति और ताना-उलाहना कमजोर तबकों के समयसिद्ध हथियार रहे हैं- और अब इन्हें ही सामाजिक न्याय के नाम पर सार्वजनिक जीवन से विदा करने की मांग हो रही है.

इस बात की वजह से यह प्रकरण बहुत त्रासद बन पड़ा है. असल त्रासदी यह नहीं कि हमारे मूर्धन्य विद्वानों में से एक अपने तर्क के कुपाठ के कारण पचड़े में पड़ा, असल त्रासदी यह है कि दलित-बहुजन समाज के नेताओं और हमदर्दो के लिए अपने दोस्त और दुश्मन में भेद कर पाना, कौन सी बात उनके हित में काम कर सकती है और कौन सी बात उनके हितों के विपरीत जा सकती है- इसे अलगा पाना कठिन होता जा रहा है. बकौल आशीष नंदी सामाजिक रूप से वंचित होने का सबसे बड़ा अभिशाप तो यही है.