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जेल सुधार का इंतजार-- पीयूष द्विवेदी

भारतीय समाज में जेल को लेकर अमूमन यही धारणा देखने को मिलेगी कि वह एक यंत्रणा-स्थल है, जहां अपराधी को उसके अपराधों के लिए तकलीफदेह तरीके से रख कर दंडित किया जाता है। इस धारणा को एकदम गलत तो नहीं कह सकते, मगर यह पूरी तरह सही भी नहीं है। निस्संदेह जेल में व्यक्ति को कठिन परिस्थितियों में ही रहना होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह यंत्रणा-स्थल है। अगर है, तो वैसा होना नहीं चाहिए। वास्तव में, जेल का उद्देश्य किसी भी अपराधी को उसके अपराध के लिए दंडित करने के साथ-साथ उसे स्वयं में सुधार लाने का एक अवसर देना भी होता है। इसी मकसद को ध्यान में रख कर जेलों में कैदियों को पढ़ने-लिखने से लेकर उनका कौशल-विकास करने तक के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं।


अभी पिछले दिनों ही खबर आई कि मथुरा के केंद्रीय कारागार में ग्रेटर नोएडा के एक शिक्षण संस्थान ने पुस्तकालय खोलने का निर्णय लिया है। बिड़ला इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट ने उस जेल में पंद्रह सौ पुस्तकें देते हुए पुस्तकालय स्थापित करने का फैसला किया है। इससे पूर्व यह संस्थान आगरा, मेरठ, गौतमबुद्ध नगर, गाजियाबाद, लखनऊ और अलीगढ़ की जेलों में भी पुस्तकालय स्थापित कर चुका है। निस्संदेह यह एक सार्थक कदम है। इस प्रकार के और भी कदमों की जानकारी जब-तब सामने आती रहती है। पर इस तरह के छिटपुट प्रयासों के बरक्स भारत की अधिकतर जेलों की स्थिति किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है, और इसके मद््देनजर जेल सुधार की मांग उठती रहती है। विडंबना यह है कि जेल सुधार के मकसद से कई समितियां जब-तब गठित की गर्इं, पर उनकी सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं।


पिछले वर्ष सितंबर में सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों की बाबत, 2013 में दाखिल एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जेल सुधार की खातिर निर्देश जारी किए गए थे। याचिका में कहा गया था कि देश भर की 1382 जेलों में बंद कैदियों की स्थिति बेहद खराब है, ऐसे में जेल सुधार के लिए निर्देश जारी किए जाने चाहिए। प्रश्न यह है कि आखिर जेलों की दुर्दशा का कारण क्या है? जेलों की दुर्दशा के मुख्य कारणों को समझने के लिए इस आंकड़े पर गौर करना आवश्यक होगा। देश की सभी जेलों में कुल मिला कर 3,32,782 लोगों को रखने की क्षमता है, जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार इनमें 4 लाख 11 हजार से ज्यादा लोग बंद हैं। यह 2015 का आंकड़ा है। ज्यादा संभावना यही है कि कैदियों की संख्या कम होने के बजाय और बढ़ी ही होगी। मगर मोटे तौर पर स्थिति यही है कि भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से बहुत अधिक कैदी भरे हुए हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह अदालतों की कछुआ चाल है। मुकदमे लंबे समय तक घिसटते रहते हैं और इसके चलते काफी संख्या में विचाराधीन कैदी फैसले के इंतजार में जेल में रहने को अभिशप्त रहते हैं।


ऐसे में, अगर जेलें और बदहाल होती हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी। तिस पर गजब यह कि जेलों में मौजूद कुल कैदियों में से लगभग दो तिहाई कैदी विचाराधीन हैं। यानी तो तिहाई फीसद कैदी ऐसे हैं, जिनके मामलों में अभी कुछ भी सिद्ध नहीं हुआ है, लेकिन उनको भी जेल में रखा गया है। इनमें तमाम कैदी निर्दोष भी हो सकते हैं, साथ ही, बहुत-से कैदी ऐसे भी हो सकते हैं, जो अपने ऊपर लगे आरोप के लिए संभावित सजा की अधिकतम अवधि से अधिक समय जेल में बिता चुके हों। पर ऐसे लोगों का दर्द सुनने वाला कोई नहीं है। समझा जा सकता है कि जेलों में कैदियों की यह ठूसमठूस कितनी बड़ी और व्यापक समस्या है। इस समस्या से कैदी और कारागार, दोनों की दुर्दशा हो रही है, जिसके समाधान की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखाई देती।

किसी भी व्यवस्था पर जब उसकी क्षमता से अधिक भार डाल दिया जाता है, तो वह अव्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है। भारतीय जेलों की दुर्दशा का मूल कारण यही है। अब जिस जेल में उसकी क्षमता से अधिक कैदी रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से उसकी खान-पान से लेकर सुरक्षा तक, सारी व्यवस्थाओं पर सीमा से अधिक बोझ पड़ेगा और परिणामस्वरूप ये व्यवस्थाएं चरमराने लगेंगी। यही कारण है कि अकसर जेल में खराब खाने से लेकर शौच आदि से संबंधित अव्यवस्थाओं की बातें सामने आती रहती हैं। उनमें कैदी नारकीय जीवन जी रहे हैं। स्थितिजन्य कारणों से आए दिन उनके बीच लड़ाई-झगड़े भी होते हैं। विभिन्न जेलों से कैदियों के संदिग्ध स्थितियों में मरने, उनके हंगामा मचाने और भागने की खबरें आती रहती हैं। इनके पीछे मूल वजह अव्यवस्था ही होती है। पर जेल अधिकारियों और कर्मचारियों का उत्पीड़न भरा व्यवहार भी कई बार ऐसी घटनाओं का कारण बनता है।


कहना न होगा कि जेल सुधार की पहली सीढ़ी यही है कि न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त किया जाए, जिससे कैदियों की ठूसमठूस भीड़ में कमी आए। इसके बाद ही जेल से संबंधित अन्य सुधारों पर बात करना उपयुक्त होगा।

इस संबंध में पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए जेल सुधार के निर्देश काफी हद तक कारगर हो सकते हैं। न्यायालय द्वारा निर्देशित जेल सुधारों में प्रमुखत: कैदियों के परिजनों और वकीलों से उनकी बात-मुलाकात को बढ़ावा देने, हिंसक प्रवृत्ति के कैदियों की काउंसलिंग की व्यवस्था करने, पुलिस अधिकारियों को कैदियों के प्रति उनके दायित्वों के बारे सुशिक्षित करने, कैदियों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं पर ध्यान देने आदि बातें शामिल हैं। निस्संदेह ये हिदायतें जेल सुधार की दिशा में कारगर सिद्ध हो सकती हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इन निर्देशों से पूर्व न्यायिक प्रक्रियाओं की सुस्ती दूर करने के लिए भी निचली अदालतों को कुछ निर्देश देने चाहिए थे।
जेल सुधार की खातिर अब तक कोई ठोस कदम भले न उठाया गया हो, लेकिन देश में आजादी के बाद जेल सुधार से संबंधित सुझावों के लिए समय-समय पर समितियों का गठन जरूर किया गया। इनमें वर्ष 1983 की मुल्ला समिति, 1986 की कपूर समिति और 1987 की अय्यर समिति प्रमुख हैं। इन समितियों ने अपने-अपने स्तर पर जेलों की हालत की पड़ताल कर सुधार के लिए विविध सुझाव भी दिए। लेकिन इन सारी समितियों की सिफारिशें धूल खा रही हैं। यह भी एक बड़ा कारण है कि जेलों की हालत बद से बदतर होती गई है।


आज जेल सुधार के लिए एक चरणबद्ध योजना पर काम करने की आवश्यकता है।

इसमें सबसे पहले तो जेलों में जमी कैदियों की अनावश्यक भीड़ को कम करने के कदम उठाए जाने चाहिए। इसका असल समाधान तो न्यायिक तंत्र के दुरुस्तीकरण से ही होगा, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऐसे कैदियों को चिह्नित करके जमानत पर रिहा किया जा सकता है जिन पर किसी संगीनअपराध का अभियोग न हो या जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा से ज्यादा वक्त जेल में बिता लिया हो। जेलों में भीड़ कम होते ही अव्यवस्था संबंधी बहुत-सी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाएंगी। फिर, कैदियों की मानसिकता बदलने, उन्हें कोई कौशल सिखाने, सत्साहित्य के प्रति उनमें रुचि जगाने और रिहाई के बाद एक बेहतर इंसान के रूप में जीवन की नई पारी के लिए तैयार करने जैसी गतिविधियों पर ध्यान दिया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों का लिहाज करने का दम भरने वाले देश में जेल सुधार से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता।