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जेलों पर बढ़ते बोझ के मायने-- पंकज चतुर्वेदी

इरफान फरवरी 2007 में समझौता एक्सप्रेस से दिल्ली आया था, वापसी में उसमें बम फटा और उसका पूरा सामना जल गया। पुलिस ने उसे अस्पताल से उठाया व बगैर पासपोर्ट के भारत में रहने के आरोप में अदालत में खड़ा कर दिया। उसे चार साल की सजा हुई। तब से वह जेल में है यानी आठ साल से। वहां मिली यातना व तनहाई से वह पागल हो गया। पाकिस्तान में उसके घर वाले मरा समझ रहे थे तो भारत की जेल में उसका कोई रिकार्ड नहीं मिल रहा था।
 
 
ऐसे न जाने कितने ‘इरफान' बगैर आरोप, बगैर रिकार्ड के भारत की जेलों में बंद हैं। जहां मजलूमों, गरीबों और कमजोर लोगों के लिए भारतीय जेल यातनागृह है तो कुछ लोगों के लिए निरापद, आरामगाह भी। कुख्यात बदमाश छोटा राजन पूरे अट्ठाईस साल बाद भारत लौटा, हालांकि उसका मूल अपराध क्षेत्र बंबई था, लेकिन वहां की जेल उसके लिए सुरक्षित नहीं मानी गई, सो उसे दिल्ली में रखा गया। भारतीय जेल अत्याचार, मार-पीट, पैसे छुड़ा लेने, गरीब लोगों के बगैर माकूल न्यायिक मदद के लंबे समय तक जेल में रहने, रसूखदारों की आरामगाह व निरापद स्थली के तौर पर जानी जाती हैं। दूसरी तरफ देखें तो हमारी जेलें निर्धारित क्षमता से कई-कई गुना ज्यादा बंदियों से ठुंसी पड़ी हैं।
 
 
दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के मेरठ मंडल की जेलों के ताजा आंकड़े जरा देखें। मेरठ जेल की क्षमता 1707, निरुद्ध बंदी 3357; गाजियाबाद की क्षमता 1704 व बंदी 3631; बुलंदशहर में बंद हैं तेईस सौ, जबकि क्षमता है 840। भारत की जेलों में बंद लोगों के बारे में सरकार के रिकार्ड में दर्ज आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। अनुमान है कि इस समय कोई चार लाख से ज्यादा लोग देश भर की जेलों में बंद हैं जिनमें से लगभग एक लाख तीस हजार सजायाफ्ता और कोई दो लाख अस्सी हजार विचाराधीन बंदी हैं। देश में दलितों, आदिवासियों व मुसलमानों की कुल आबादी चालीस फीसद के आसपास हैं, वहीं जेल में उनकी संख्या दो तिहाई यानी सड़सठ प्रतिशत है। इस तरह के बंदियों की संख्या तमिलनाडु और गुजरात में सबसे ज्यादा है। दलित आबादी सत्रह फीसद है जबकि जेल में बंद लोगों का बाईस फीसद दलितों का है। आदिवासी लगातार सिमटते जा रहे हैं व ताजा जनगणना उनकी जनभागीदारी नौ प्रतिशत बताती है, लेकिन जेल में नारकीय जीवन जी रहे लोगों का ग्यारह फीसद वनपुत्रों का है। मुसलिम आबादी चौदह प्रतिशत है लेकिन जेल में उनकी मौजूदगी बीस प्रतिशत से ज्यादा है। एक और चौंकाने वाला आंकड़ा है कि पूरे देश में प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियों जैसे धारा 107,116,151 या ऐसे अन्य कानूनों के तहत बंदी बनाए गए लोगों में से आधे मुसलमान होते हैं। गौरतलब है कि इस तरह के मामले दर्ज करने के लिए पुलिस को वाहवाही मिलती है कि उसने अपराध होने से पहले ही कार्रवाई कर दी। दूरदराज के क्षेत्रों में ऐसे मामले न्यायालय नहीं जाते हैं, इनकी सुनवाई कार्यपालन दंडाधिकारी यानी नायब तहसीलदार से लेकर एसडीएम तक करता है और उनकी जमानत पूरी तरह सुनवाई कर रहे अफसरों की अपनी मर्जी पर निर्भर होती है।
 
 
पिछले साल बस्तर अंचल की चार जेलों में निरुद्ध बंदियों के बारे में सूचना के अधिकार के तरह मांगी गई जानकारी पर जरा नजर डालें- दंतेवाड़ा जेल की क्षमता डेढ़ सौ बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ तीन सौ सतहत्तर बंदी हैं जो सभी आदिवासी हैं। कुल छह सौ उनतीस कैदियों की क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में पांच सौ छियालीस लोग बंद हैं, इनमें से पांच सौ बारह आदिवासी हैं। इनमें तिरपन महिलाएं हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा समय से बंदी हैं और आठ लोगों की बीते एक साल में किसी भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में एक सौ चौवालीस लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं; इनमें से एक सौ चौंतीस आदिवासी व छह औरते हैं। इस जेल की कुल बंदी क्षमता पचासी है। दुर्ग जेल में तीन सौ छियानवे बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित सत्तावन ‘नक्सली' बंदी हैं, इनमें से इक्यावन आदिवासी हैं। केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो संख्या पांच हजार से पार पहुंचेगी। नारायणपुर के एक वकील बताते हैं कि कई बार तो आदिवासियों को सालों पता नहीं होता कि उनके घर के मर्द कहां गायब हो गए हैं। बस्तर के आदिवासियों के पास नगदी होता नहीं है। वे पैरवी करने वाले वकील को गाय या वनोपज देते हैं।
 
 
कई मामले तो ऐसे हैं कि घर वालों ने जिसे मरा मान लिया, वह बगैर आरोप के कई साल से जेल में था। ठीक यही हाल झारखंड के भी हैं। अपराध व जेल के आंकड़ों के विश्लेषण के मायने यह कतई नहीं है कि अपराध या अपराधियों को जाति या समाज में बांटा जाए, लेकिन यह तो विचारणीय है कि हमारी न्याय-व्यवस्था व जेल-व्यवस्था उन लोगों के लिए ही अनुदार क्यों हैं जो कि ऐसे वर्ग से आते हैं जिनका शोषण या उत्पीड़न करना आसान होता है। ऐसे लोग जो आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं, कानून के शिकंजे में ज्यादा फंसते हैं। जिन लोगों को निरुद्ध करना आसान होता है, जिनकी ओर से कोई पैरवी करने वाला नहीं होता, या जिस समाज में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत नहीं होती, वे कानून के आसान शिकार होते हैं। यह आए रोज सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में दस साल या उससे अधिक साल जेल में रहा और उसे अदालत ने ‘बाइज्जत बरी' कर दिया।
 
 
इन फैसलों पर इस कोण से कोई विचार करने वाला नहीं होता कि बीते दस सालों में उस बंदी ने जो बदनामी, तंगहाली, मुफलिसी व शोषण सहा है, उसकी भरपाई किसी अदालत के फैसले से नहीं हो सकती। जेल से निकलने वाले को समाज भी तिरस्कार की नजर से देखता है और ऐसे लोग आमतौर पर न चाहते हुए भी उन लोगों की तरफ चले जाते हैं जो आदतन अपराधी होते हैं। यानी जेल सुधार के नहीं, नए अपराधी गढ़ने के कारखाने बन जाते हैं। इस बीच जब लक्ष्मणपुर बाथे या हाशिमपुरा में सामूहिक हत्याकांड की बाबत तीन दशक तक न्याय की उम्मीद लगाए लोगों को खबर आती है कि अदालत में पता ही नहीं चला कि उनके लोगों को मारा किसने था, दोषियों को अदालतें बरी कर देती हैं, तो भले ही उनसे सियासी हित साधने वालों को कुछ फायदा मिले, लेकिन समाज में इसका संदेश विपरीत ही जाता है। मुसलमानों के लिए तो कई धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक संगठन कभी-कभार आवाज उठाते भी हैं, लेकिन आदिवासियों या दलितों के लिए संगठित प्रयास नहीं होते हैं। विशेष तौर पर आदिवासियों के मामले में अब एक नया रुझान चल गया है कि उनके हित में बात करना यानी नक्सलवाद को बढ़ावा देना। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि नक्सलवादी विचारधारा को मानना गैर-कानूनी नहीं है, हां, उसकी हिंसा में लिप्त होना जरूर अपराध है।
 
 
विडंबना है कि यदि आदिवासियों के साथ हो अन्याय पर विमर्श करें तो उसे भी गुनाह मान लिया जाता है। दलितों में भी राजनीतिक तौर पर सशक्त कुछ जातियों को छोड़ दिया जाए तो उनके आपसी झगड़ों में शामिल लोगों या कई बार बेगुनाहों को भी किसी संगीन आरोप में जेल में डाल देना आम बात है। मसला गंभीर है क्योंकि ऐसी कार्रवाइयां लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ न्यायपालिका के प्रति आम लोगों के भरोसे को कमजोर करती हैं। हालांकि इसका निदान पहले शिक्षा या जागरूकता और उसके बाद आर्थिक स्वावलंबन ही है, और जरूरी है कि इसके लिए कुछ प्रयास सरकार के स्तर पर और अधिक प्रयास समाज के स्तर पर हों। यह भी जरूरी है कि आम लोगों को पुलिस का कार्यप्रणाली, अदालतों की प्रक्रिया, वकील के अधिकार, मुफ्त कानूनी सहायता जैसे विषयों की जानकारी दी जाए। जेलों में बढ़ती भीड़, अदालतों पर भी बोझ है और हमारे देश की असल ताकत ‘मानव संसाधन' का दुरुपयोग भी। जेल में लंबे समय तक रहने वाले लोग वापस आकर समाज में भी उपेक्षित रहते हैं। ऐसे में आज जरूरी है कि कम सजा वाले या सामान्य प्रकरणों को अदालत से बाहर निबटाने, पंचायती राज में न्याय को शामिल करने, जेलों में बंद लोगों से श्रम-कार्य लेने आदि सुधार जरूरी हैं। पुलिस सुधार की तरह जेल सुधार की भी बात लंबे समय से उठती रही है। इसके लिए कई समितियां भी बनीं, लेकिन उनकी रिपोर्टें धूल फांक रही हैं। न पुलिस सुधार की दिशा में कोई बड़ी पहल हुई न जेल सुधार की बाबत। यह स्थिति हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खामी की ओर इंगित करती है। आखिर पुलिस और कारागार, इन दोनों महकमों की कार्यप्रणाली आज भी बहुत कुछ वैसी ही क्यों है जैसी औपनिवेशिक जमाने में थी? भारत को गणतंत्र बने साढ़े छह दशक हो गए हैं, मगर आज भी हम अपनी बहुत-सी संस्थाओं को जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप ढाल नहीं पाए हैं। लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव नहीं होता, यह भी होता है कि मानवाधिकारों का कितना खयाल रखा जाता है, न्याय देने की व्यवस्थाएं कितनी कारगर, सक्रिय और सुलभ हैं। इन कसौटियों पर हमारा लोकतंत्र कहां खड़ा है!