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जैविक का व्यापार, एनजीओ और सरकार --- योगेश दीवान

 

कितना आश्चर्यजनक है कि अचानक मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री पानी बाबा की तर्ज पर ''जैविक बाबा'' हो जाते हैं और मुख्यमंत्री जैविक प्रदेश घोषित करने के लिये धन्यवाद के पात्र. ये वही मुख्यमंत्री और कृषि मंत्री हैं, जो कुछ दिन पहले तक और अभी भी प्रदेश की खेतिहर जमीन को बड़ी ही सामंती उदारता से बड़ी-बड़ी कंपनियों को बांटते हुए फोटो खिंचा रहे थे. इसे परंपरागत जैविक के एकदम खिलाफ ''एग्रो बिजनेस मीट'' कहा गया.



भोपाल, इंदौर, जबलपुर और खजुराहो में ऐसे ही एग्रो बिजनेस के बड़े-बड़े दरबार लगाये गये. अब इसमें कितने एमओयू पर काम बढ़ा और कितने को लाल फीते ने रोका ये समय ही बतायेगा. पर मुख्यमंत्री उस समय अचानक ही एग्रो बिजनेस के कारण कार्पोरेट घरानों के चहेते बन बैठे थे.

आने वाले महीने में फिर से प्रदेश की जमीनों की नीलामी का ऐसा उत्सव एग्रो बिजनेस मीट होने वाला है, जिसमें बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को न्यौता गया है. इतना ही नहीं, खेती को विकास का मॉडल बनाने के लिये म.प्र. विधानसभा का विशेष सत्र भी बुलाया गया है, जिसमें कंपनीकरण में बाधक नियम-कानून बदले जा सकें.

थोड़ा और पीछे जाये तो एईजेड यानी एग्रीकल्चरल इकॉनामिक जोन जो निर्यात योग्य खेती के लिये बनाये गये थे या एसईजेड यानी स्पेशल इकॉनामिक जोन भी बड़ी चर्चा में थे. जिसमें सीलिंग जैसे सभी कायदे-कानूनों को एक तरफ रखकर डंडे के बल पर किसानों की जमीन पर कब्जा किया गया.

जैविक ईंधन एक और हल्ला था, जिसमें प्रदेश की सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन को औने-पौने दामों और छोटे-छोटे अनुदान के लालच में किसानों से छीना गया. प्रदेश के कृषि विश्वविधालयों की जीनयांत्रिक अर्थात जीएम प्रयोगों के लिये भरपूर अनुदानों के साथ मोंसैंटो जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिये खोला गया.

अगर भाजपा की सत्ता के शुरूआती दौर में जायें तो 2003-04 का समय सोया चौपाल, मंडी कानूनों में परिवर्तन, ठेका खेती को बढ़ावा, पश्चिमी मध्यप्रदेश में बीटी कॉटन की शुरूआत, देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों को अनाज खरीदी में संरक्षण, इंडियन टोबेको कंपनी, ऑस्ट्रेलियन बीट बोर्ड अर्थात ए.डब्ल्यू.बी., रिलांयस, कारगिल, यूनीलीवर, महिन्द्रा, धानूका, महिको, मोंसैंटो जैसी भारी-भरकम और खतरनाक कंपनियों को पलक-पांवड़े बिछाकर गांव-गांव में पहुंचा दिया गया. सोया चौपाल, किसानी बाजार, रिलायंस फ्रेश, महिन्द्रा शुभ-लाभ, हरित बाजार जैसे लुभावने नारे दुकानों, सुपर मार्केट और चमाचम विज्ञापन लोगों को लुभाने और लूटने लगे.

इसके साथ ही तथाकथित विकास के नाम पर कई सारे पॉवर हाऊस थर्मल-हाईडल, परमाणु बिजलीघर, कारखाने (स्वंय मुख्यमंत्री के क्षेत्र में) सड़क, नेशनल पार्क, बांध, सेंचुरी आदि तो काफी तेज रफ्तार में बन ही रहे हैं, जिसमें न सिर्फ लोग उजड़ रहे हैं बल्कि उपजाऊ जमीन भी खत्म हो रही है. पर्यावरण और प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा भी निपट रही है.

फिर जैविक खेती के लिये भी तो कंपनियों के गले में ही गलबैंया डाली जा रही हैं. पिछली एग्रो मीट में आयी कई कंपनियां जैविक खेती का प्रस्ताव लेकर घूम रही ही थीं. कई कंपनियां पिछली कांग्रेस सरकार के दौर से ही प्रदेश में जैविक खेती का धंधा कर रही हैं.

स्वतंत्रता के एकदम बाद नारू रोग को बहाना बनाकर कुंए, बाबड़ी, पोखर और तालाब को निपटाने का काम भी कभी फंडिंग के चक्र में फंसी एनजीओ रूपी बिरादरी ने किया था. आज परंपरागत स्रोतों को बचाने की नारेबाजी और हायतौबा भी यही कर रहा है.


असल में आज प्रदेश में ही नहीं देश और दुनिया में भी जैविक खेती अथवा उससे पैदा हुआ खाद्य पदार्थ मुनाफे का धंधा है. इसलिये चाहे कंपनी हो, व्यापारी हो बड़ा किसान हो, सिविल सोसायटी ग्रुप हो या सरकारें, सभी जैविक की नारेबाजी में लगी हैं. हालांकि अभी भी जैनेटिक या आधुनिक खेती के मुकाबले जैविक का धंधा कमजोर ही है. पर यूरोप-अमरीका में बढ़ती जैविक खाद्य पदार्थों की मांग और जैनेटिक के खिलाफ खड़े आंदोलन जैविक खेती की संभावना को बढ़ाते ही हैं. इसलिये सिविल सोसाईटी, एनजीओ अथवा सामाजिक-धार्मिक संगठन भी इस समय बढ़-चढ़कर जैविक के प्रचार-प्रसार में लगे हैं.

उनकी दाता संस्थाओं की तिजोरी जैविक की टोटकेबाजी के लिये खुली हुई हैं. उनको परहेज नहीं है किसी तरह के विचार, सोच और समझ से. उनको अपने मुद्दे पर किसी भी सत्ता या संगठन की दलाली करने से जरा भी संकोच नही है.

वे किसी भी कट्टरवादी, फासिस्ट, साधु-संत और संघ के गले में हाथ डालकर घूम सकते हैं. तभी तो बाबा रामदेव जैसों की जैविक के लिये अपील उन्हें ''मास अपील'' लगती है. महेश भट्ट (जैविक पर ''पायजन आन द प्लेटर'' नामक फिल्म बनाकर) की बंबईया फिल्मी चकाचौंध उन्हें अपने मुद्दे के हक में खड़ी दिखती है. पश्चिम से घूम फिर कर आई देशी बीज बचाने और परंपरागत खेती की समझ की माला जपने से अघाते नही हैं.

असल में ऐसे तथाकथित् सिविल सोसाईटी या एनजीओ की प्राथमिकता फंड होती है. वो किस मुद्दे, क्षेत्र और काम के लिये हैं, उनके लिये ये ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है. तभी तो हरित क्रांति के दौर में फंडिंग के माध्यम से ऐसे एनजीओ (उस समय के सामाजिक-स्वंयसेवी संगठन) हाईब्रिड बीज और केमिकल बंटवाकर आधुनिक खेती के हित और पक्ष में खड़े थे. बाद के दौर में जापान के कृषि वैज्ञानिक ''मासानेव फुकुओका'' की ''वन स्टार रेव्यूलेशन'' (एक तिनके की क्रांति) को गीता/बाईबिल मानकर ढेर सारे एनजीओ ऋषि खेती करने लगे थे. जिसके लिये बहुत सारा फंड आने लगा था.

स्वतंत्रता के एकदम बाद नारू रोग को बहाना बनाकर कुंए, बाबड़ी, पोखर और तालाब को निपटाने का काम भी कभी फंडिंग के चक्र में फंसी एनजीओ रूपी बिरादरी ने किया था. आज परंपरागत स्रोतों को बचाने की नारेबाजी और हायतौबा भी यही कर रहा है.

पीपीपी यानी पब्लिक-प्राईवेट-पार्टनरशिप यानी सार्वजनिक निजी-भागीदारी के तहत जल-जंगल-जमीन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण की ओर ढकेलने का काम भी यही चतुर-चालाक हमारे एनजीओ भाई ही कर रहे हैं.
अब जैविक खेती के लिये भी ऐसी ही भागीदारी की बात की जा रही है. सवाल उठता है, जैविक के लाभ-लागत और उत्पादन का जिसका कोई आंकड़ा तथ्य-तर्क किसी के पास नही है. आज के दौर में अगर हम एक या दो-ढाई एकड़ के किसान को जैविक खेती करने लिये प्रेरित करते हैं तो क्या वह अपना और अपने परिवार का जीवन इस पद्धति से चला सकता है ? और बडे मझले किसानों के लिये जैविक या देशी खेती या तो शगल है या मुनाफे का धंधा. जो किसान 20 रूपये रोज भी न कमा सकता हो, उससे जैविक की बात करना या उससे जैविक उत्पाद खाने की बात कहना बेमानी ही है.

एक वैश्विक जानकारी के अनुसार सन् 2000 में जैविक उत्पादों का सलाना विश्व बाजार 18 अरब डॉलर का था, जो एक साल पहले सन् 2009 में 486 अरब डॉलर का हो गया. यूरोप, अमेरिका और जापान में इसका व्यापार बढ रहा है.

असल में साजिश वही है, जो अभी तक होती आई है. यानि मांग सात समुन्दर पार होगी और उत्पादक भारत जैसे देश या तीसरी दुनिया के छोटे और गरीब किसान क्योंकि यहां की भौतिक और प्राकृतिक परिस्थितियां इस तरह खेती के अनुकूल है.

जैविक खेती की मार्केटिंग करने वाले संगठन “'इंटरनेशनल कार्पोरेट सेंटर फार आर्गेनिक एग्रीकल्चर” के अनुसार 2007-2008 में इस खेती का रकबा 15 लाख हेक्टेयर तक पहुच गया है और जैविक उत्पादों का निर्यात भी इस दौरान चार गुना हो गया है. वहीं हमारे देश में महज पांच साल में ही इसका रकबा सात गुना से भी ज्यादा हो गया है. ऐसा माना जाता रहा है कि भविष्य में जैविक उत्पादों के मामले में भारत, चीन, ब्राजील जैसे देश सबसे आगे होंगे पर उपभोग के मामले में कोई और होगा.

सिर झुका कर, हाथ जोडे सत्ता की तारीफ में नारे लगाते, मुख्यमंत्री के दरबार में पहुंची एक बड़ी संख्या इसी एनजीओ रूपी दलाल की थी, बाकी संघ के सिपाही थे. क्योंकि मुख्य आयोजन आरएसएस के संगठनों का ही था. बैनर, पोस्टर, प्रेस कटिंग, मिनिट्स, रिपोर्ट आदि से दाता संस्था को साधनेवाले एनजीओ के लिये शायद ये एडवोकेसी या जन-अदालत का एक तरीका था.

कभी-कभी 25-50 लोगों के साथ सड़क पर आने को ''राईट बेस'' लड़ाई (अधिकार आधारित) भी कहा जाता है. इनसे थोड़ा कड़वा या कर्कश सवाल पूछने का मन भी होता है कि यदि खुदा न खास्ता (भगवान न करे यदि है! तो) कल मध्यप्रदेश में भी कुछ साल पहले का मोदी का गुजरात दोहराया जाता है तो ये चतुर-चालाक चहेते (संघी विचार के) एनजीओ कहां खड़े होंगे?

आज बड़ी जरूरत है जैविक और जैनेटिक, देशी विदेशी या परंपरागत खेती के नारों विवादों को प्रोजेक्ट फंडिंग या धंधे के चश्मे से बाहर निकल कर देखने की.


गुजरात का अनुभव तो काफी डरावना और कंपकपी पैदा करनेवाला है. जहां गांधीयन संस्थाओं तक के दरवाजे सांप्रदायिक सद्भाव की आवाज उठाने गई मेधा पाटेकर के लिये बंद हो जाते हैं और उसे पिटने के लिये अकेला छोड़ दिया जाता है. जहां आठवले का पानी बचाने और जैविक खेती करनेवाला स्वाध्याय संगठन या सेल्फ-हैल्प ग्रुप बनानेवाली इला भट्ट की 'सेवा' या कई सारे छोटे-बड़े गांधीयन एनजीओ संस्थाएं सद्भाव की नहीं, किसी और दिशा में खड़े दिखाई दिये थे. पूछने का मन होता है कि आखिर इनकी जैविक खेती, वाटर शेड, स्वंय सहायता समूह या तथाकथित विकास आधारित काम किसके लिये है? क्या उस हत्यारे समाज-विचार या सत्ता के लिये, अगर हां, तो मुझे कुछ नहीं कहना.

ये सही है कि अपने फंड के कारण एनजीओ तो हमेशा वर्तमान में जीते हैं, पर सरकार का तो इतिहास को जाने बिना काम नहीं चलता. अगर जैविक बाबा (कृषि मंत्री) या जैविक राज्य के लिये धन्यवाद बटोरने वाली शिवराज सरकार अपने पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कागज-पत्तर पलटें तो जैविक का राज वहां छुपा हुआ मिलेगा. और फिर शिवराज की पदवी छिन भी सकती है. क्योंकि जैविक की जिस बादशाहत का दावा वे आज कर रहे हैं, वो काम दिग्विजय सिंह ने कई साल पहले हर जिले में जैविक गांव बनाकर कर दिया था और ऐसे ही तात्कालिक वाहवाही लूटी थी. एनजीओ और कंपनियां उस समय भी उनके पीछे थीं.

खंडवा जिले के छैगांव माखन ब्लाक का मलगांव जैविक के लिये चर्चित ऐसा ही एक गांव था. जहां नीदरलैंड की बहुराष्ट्र्र्रीय कंपनी स्काल इंटरनेशनल ने अपनी देशी कंपनी 'राज ईको फार्म्स' के माध्यम से किसानों के साथ उत्पादन से खरीदी तक का समझौता किया था. कंपनी का पूरा मॉडल ढेर सारी शर्तों के साथ कॉर्पोरेट खेती या ठेका खेती के आधार पर ही था.

किसान इस जैविक खेती में एक तरह से बंधुआ बन चुका था. कीमत में या लाभ में किसान को बीटी कॉटन की अपेक्षा भले ही थोड़ा ज्यादा मूल्य मिले पर उसके जैविक कपास से बने टी-शर्ट की कीमत (विदेशी बाजार) 25 हजार रूपये होती थी, जो कंपनी के हिस्से का लाभ था. म.प्र. में ऐसे और भी कई उदाहरण हैं.

अगर इन्हें जाने बिना हमारी सरकार, तथाकथित एनजीओ अपने देशी-स्वदेशी, स्थानीय या जैविक प्रेम को प्रदेश के भोले-भाले किसानों पर थोपते हैं तो निश्चित ही प्रदेश की खेती के कंपनीकरण को कुपोषित बच्चों की मौतों को (जिसमें प्रदेश कई सालों से सबसे उपर है) और बढती हुई किसानों की आत्महत्या (इसमें प्रदेश तीसरे पायदान पर है) को कोई नहीं रोक सकता.

शायद आज बड़ी जरूरत है जैविक और जैनेटिक, देशी विदेशी या परंपरागत खेती के नारों विवादों को प्रोजेक्ट फंडिंग या धंधे के चश्मे से बाहर निकल कर देखने की. लोगों की जमीन -झोपडी के हक में उसके तर्क तथ्य, आंकड़े और विज्ञान को जनता के हित में सोचने की. सिर्फ विदेशी पैसे और कंपनी के कहने पर विदेश के लिये निर्यात हमारे छोटे-सीमांत निरीह किसानों को हांकना निश्चित ही एक बड़ा सिन या पाप है.