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जॉब मार्केट का बदलता चेहरा-- संदीप मानुधने

हाल ही में, एक बड़ी रोचक घटना हुई. भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थान आइआइएम अहमदाबाद ने कड़ा ऐतराज जताते हुए फ्लिपकार्ट नामक एक बड़ी ऑनलाइन कॉमर्स कंपनी से अपने कैंपस से चयनित छात्रों को देरी से 'ज्वॉइनिंग' कराने पर तुरंत नौकरी पर रखने एवं बकाया वेतन देने की मांग कर डाली! देखने में यह एक संस्थान और एक निजी कंपनी के बीच का मामला लगता है, लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर बहुत कुछ स्पष्ट नजर आने लगता है.

आइये देखें कुछ ऐसे दृश्य और अदृश्य पहलू, जो हमारी अर्थव्यवस्था और पूंजीवाद के बारे में काफी कुछ कहते हैं.नंबर एक : जितने भी व्यापार या कंपनियां तकनीक व इंटरनेट-आधारित हैं, उनके भाग्य बदलते देर नहीं लगती. कुछ ही महीनों पहले, ये ऑनलाइन कॉमर्स कंपनियां पूरी तरह से सुरक्षित और बाजार पर हावी दिख रही थीं. कोई सोच नहीं रहा था कि अचानक से कॉस्ट-कटिंग (व्यय नियंत्रण) इतना शीघ्र अपना रंग दिखाने लगेगा. जब इन कंपनियों ने सबसे प्रतिष्ठित कैंपसों से थोक में ऊंचे पैकेज पर अनेकों प्रतिभाशाली छात्रों को ऑफर दिये थे, तो सभी अखबारों की सुर्खियां यही थीं. लेकिन 2016 आते-आते, बहुत सी कंपनियों ने या तो कर्मचारियों की छटाई शुरू कर दी है, या टारगेट और कठिन कर काम के घंटे बहुत बढ़ा दिये हैं. कई नयी कंपनियां भी तेजी से आ रही हैं. तो सबक यह रहा कि आधुनिक टेक्नोलॉजी कंपनियों के व्यापार में कुछ भी पहले से तय नहीं है.

नंबर दो : भारत में ऐसा लगता है कि हर कोई- बिना अपवाद के हर कोई- जब एक मुकाम पर पहुंच जाता है या ब्रांड बन जाता है, या फिर ताकत हासिल कर लेता है, तो वह खुद को सिस्टम से ऊपर और 'हर-हाल-में-सम्माननीय' समझने लगता है. जब फ्लिपकार्ट ने अहमदाबाद आइआइएम के छात्रों को कैंपस से चुना, तब सब खुश थे- छात्र (होना ही चाहिए), कंपनी (सबसे होनहार कर्मचारी मिल रहे हैं), और संस्थान (ब्रांड जो ठहरा!). लेकिन गलती या तो कंपनी से हुई, जिसने आनेवाली तिमाहियों में खुद के राजस्व (हजारों करोड़ों) और मुनाफे (जो शंकास्पद है इन स्टार्टअप्स के साथ) का बेहद गलत आकलन कर लिया और अब खर्च कम करने में लग गयी है, या फिर छात्रों और संस्थान से, जिन्होंने अवसर का गलत आकलन कर लिया, जो उनकी प्रबंधन क्षमता और समझ दर्शाता है!

जो भी हुआ, सवाल दोनों पर ही उठेंगे, और खासकर तब जब कड़ी प्रतिक्रियाओं का आदान-प्रदान सार्वजनिक रूप से हो रहा है. हमारे शीर्ष संस्थानों को पहली बार उस मार्केट-व्यवस्था का पूरा स्वाद चखने को मिला है, जिसका गुणगान करते वे थकते नहीं हैं! यहां सबक है- मार्केट में यदि आप ग्राहक नहीं हैं, तो आप हक से कुछ नहीं मांग सकते. मार्केट पंथ-निरपेक्ष है, निराकार है, सतत चलायमान है, किसी का मोहताज नहीं है, और किसी का लिहाज नहीं करता.

नंबर तीन : हमारे देश में किसी भी चीज की आंधी बड़ी तेजी से चलती है, और ऐसा लगता है कि सब कुछ रातों-रात बदल जानेवाला है. जब स्टार्टअप्स की आंधी चली, तो उस कहानी को सबके द्वारा ऐसे पेश किया गया, मानो कॉलेज छोड़ कर अपनी कंपनी शुरू करना दुनिया का सबसे क्रांतिकारी काम है और जो कॉलेज में पढ़ रहे हैं, वे तो मूर्ख हैं. लेकिन कोई यह नहीं बताता कि बिजनेस के हर उभरते क्षेत्र में बड़े विजेता पहले से नहीं घोषित किये जा सकते और हर नये क्षेत्र को स्थिरता मिलते-मिलते साल लग जाता है, और उस दौरान बहुत उतार-चढ़ाव आते हैं. नये उभरते क्षेत्रों में नवाचारी उद्यम सबसे अधिक जोखिम-भरे होंगे, जहां यदि इनाम बड़ा हो सकता है, तो काम के घंटे और दबाव बेहद जटिल होंगे.

मैंने देखा कि अनेकों कॉलेजों में उद्यमिता सेल्स (जहां एंटरप्रेन्योरशिप सिखाई जाती है) की बाढ़ आ गयी. अनेक शिक्षक जिन्हें कंपनियां बनाने और चलाने का कोई अनुभव ही नहीं है, वे सब इस दौड़ मे कूद पड़े. माहौल ऐसा बन गया, मानो अब नौकरियां तो करनी ही नहीं है, बस नये-नये उद्यम ही खड़े करने हैं. यहां सबक है- हमारे शिक्षा संस्थान कृपया सही तस्वीर छात्रों को पेश करें, जिससे वो सोच-समझ कर रिस्क लें.

नंबर चार : विश्व-भर में, जॉब मार्केट में उथल-पुथल है. विकसित देशों में (यूरोप, जापान आदि) नयी नौकरियों का सृजन तमाम मौद्रिक सहूलियतों के बावजूद ठीक से नहीं हो रहा है और भारत जैसी विशाल आबादी वाले विकासशील (अब निम्न-मध्यम आय देश) में युवाओं की संख्या इतनी विशाल है कि शायद संगठित क्षेत्र में उतनी नौकरियां बन ही नहीं सकतीं और उद्यमिता (छोटे स्तर पर) बेहद आवश्यक है. सरकारों और शिक्षण संस्थानों को युद्ध स्तर पर कौशल निर्माण और उम्मीदों को यथार्थवादी बनाये रखने में पुरजोर मेहनत करनी होगी. यहां सबक है- अचानक से सब कुछ नहीं बदलेगा, यह बात युवा भी जान लें और कमरतोड़ मेहनत के लिए तैयार हो जायें.

नंबर पांच : इन सब बातों पर गौर करते-करते हमें व्यापक चित्र भी दिखने लगता है. आबादी के मामले में भारत आज 130 करोड़ पार कर चुका है और 150 करोड़ तक हम अगले 20 वर्षों में पहुंच जायेंगे. हमारी पूरी अर्थव्यवस्था में हमें गावों से शहरों की ओर का पलायन कम करना ही होगा, क्योंकि उतने अवसर शहरों में बन पाना बेहद कठिन है. इसके लिए कृषि की उत्पादकता लगातार बढ़ाने और कृषक आय संवर्धन करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है.

लोगों को समझना होगा कि शहरों में आकर गरीब और संसाधन-हीन बन जाने से गावों में समृद्धि का जीवन कहीं बेहतर है. वर्तमान सरकार जिस प्रकार अनेक नयी योजनाओं और व्यय नियंत्रण हेतु कोशिशें कर रही है, यदि वे कोशिशें सफल रहीं, तो बहुत सुधार आ सकता है.

उम्मीद करें कि हमारे प्रतिभाशाली युवाओं को कंपनियां अपने वादे के मुताबिक अवसर प्रदान करती रहें. संस्थान भी यथार्थ के धरातल पर अपेक्षाओं को विकसित करें. नयी वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था में हक से नौकरियां नहीं मांगी जा सकतीं, केवल सही वक्त और अवसर का लाभ उठाया जा सकता है.