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Resource centre on India's rural distress
 
 

जो महत्तम हैं, वे लघुत्तम क्यों!-- अनिल रघुराज

हर किसी का अपना-अपना आर्थिक जीवन है. वयस्क वर्तमान हैं, तो बच्चे भविष्य की तैयारी हैं. यहां तक कि बेरोजगारों का भी आर्थिक जीवन है, क्योंकि यहां सिर्फ कमाने या बनाने ही नहीं, खपत का भी योगदान है. हम अपने पास-पड़ोस के आर्थिक जीवन से भी वाकिफ रहते हैं. लेकिन, जब सारे देश की बात होती है, तो सब कुछ धुआं-धुआं हो जाता है. उसमें भी जब जीडीपी की चर्चा आ जाये, तो लगता है कि यह अर्थशास्त्र के जानकारों और सरकारी प्रवक्ताओं का ही काम है, हमारा नहीं.

तुलसीदास की चौपाई है- 'कोउ नृप होय हमैं का हानि, चेरी छोड़ि न बन बय रानी.' यह सोच भारतीय जनमानस पर अब भी हावी है. लेकिन, 8 नवंबर को आये सरकार के एक फैसले ने अटक से कटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक जिस तरह देश के सभी परिवारों को झकझोरा है, उससे लगता है कि हमें अब पांच सदी पुरानी इस सोच से मुक्ति पा लेनी होगी.

आज हर देशवासी के लिए यह समझना जरूरी हो गया है कि शरीर में बहते रक्त की तरह मुद्रा के प्रवाह के घटने या थमने से पूरे देश का आर्थिक जीवन कैसे प्रभावित होता है. अब इतना भर जान लेना काफी नहीं है कि जीडीपी का मतलब सकल घरेलू उत्पाद है, जिसकी गणना देश में कुल खपत, निवेश व सरकारी खर्च में निर्यात से आयात के अंतर को जोड़ कर की जाती है. हमें देखना होगा कि बीते पच्चीस दिनों में हमारी जेबों से लेकर, बैंक शाखाओं व एटीएम और सामान्य दुकानों व कारखानों तक जिस तरह का नोट-मंथन चला है, उसने बहुत सारे झाग के अलावा जीडीपी की तलहटी में बैठे तमाम सत्य सतह पर ला दिये हैं.

जिस कॉरपोरेट क्षेत्र को देश की अर्थव्यवस्था का पर्याय माना जाता है, उसका योगदान जीडीपी में मात्र 15 से 18 प्रतिशत है. वहीं, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में 10 करोड़ रुपये और सेवा क्षेत्र में पांच करोड़ रुपये तक के निवेश वाले सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यम (एमएसएमइ) क्षेत्र का सीधा योगदान ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2012-13 में 37.54 प्रतिशत रहा है, लेकिन उनके तार जिन आर्थिक गतिविधियों से जुड़े हैं, उनको मिला कर यह योगदान 63.43 प्रतिशत हो जाता है.

वैसे, सरकारी आंकड़ों में बड़ा झोलमझोल है. लेकिन, जनवरी 2013 से अप्रैल 2014 के दौरान की गयी छठी आर्थिक गणना के मुताबिक, देश में फसल उत्पादन, प्लांटेशन, सार्वजनिक प्रशासन, डिफेंस व अनिवार्य सामाजिक सेवाओं से भिन्न आर्थिक गतिविधियों में लगी कुल इकाइयों की संख्या 5.85 करोड़ है. आपको जान कर आश्चर्य होगा कि इनमें से 59.48 प्रतिशत इकाइयां गांवों और 40.52 प्रतिशत इकाइयां ही शहरों में हैं. कुल आर्थिक इकाइयों में से 3.62 करोड़ या 61.88 प्रतिशत इकाइयां एमएसएमइ क्षेत्र में हैं. इसमें से भी 3.46 करोड़ या 95.58 प्रतिशत इकाइयां पंजीकृत नहीं हैं. बाकी 15.64 लाख या 4.42 प्रतिशत इकाइयां ही सरकार के यहां पंजीकृत हैं. 

जो इकाइयां पंजीकृत नहीं हैं, उनका भी 94.6 प्रतिशत हिस्सा (3.27 करोड़ इकाइयां) प्रॉपराइटरी फर्मों का है. आंकड़ों में उतरते जाएं, तो साफ हो जाता है कि ये जो हमारे आसपास ठेले, खोमचे से लेकर मिठाई व किराना की दुकानें हैं, शहर की गलियों-कूचों में फैली थोक दुकाने हैं, शहर के भीतरी व बाहरी छोर पर छोटे-छोटे कारखाने हैं और गांवों में जो उद्यम हैं, उनका देश की अर्थव्यवस्था में अधिकतम योगदान है. आज देश के मैन्युफैक्चरिंग उत्पादन में एमएएसएमइ क्षेत्र का योगदान 45 प्रतिशत और देश से होनेवाले कुल निर्यात में 40 प्रतिशत है. इनमें 12.77 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है.

वैसे तो केंद्र सरकार ने बाकायदा इस क्षेत्र के लिए एक अलग मंत्रालय बना रखा है, जिसका नाम है सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यम मंत्रालय. लेकिन, इसकी कमान राजनीतिक रूप से ऐसे मुंहफट नेताओं को सौंपी गयी है, जिनकों अर्थनीति की सतही समझ तक नहीं हैं. कलराज मिश्र इसके कैबिनेट मंत्री हैं, जबकि गिरिराज सिंह और हरिभाई पार्थीभाई चौधरी इसके राज्य मंत्री हैं. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में महत्तम योगदान देनेवाले इस क्षेत्र पर कितना लघुत्तम ध्यान दिया जा रहा है. लगता नहीं कि ये नेता इस क्षेत्र में चाह कर भी कुछ खास कर सकते हैं. इसका छोटा-सा उदाहरण यह है कि मंत्रालय की वेबसाइट पर इस क्षेत्र के बजट आवंटन व वास्तविक खर्च का अद्यन आंकड़ा अप्रैल-जून 2015 की तिमाही का है, जबकि उसके बाद 17 महीने बीच चुके हैं.

हालांकि, खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस क्षेत्र की महत्ता को बार-बार दोहराया है. इन इकाइयों को काम-धंधे के लिए धन की कोई दिक्कत न हो, इसके लिए सरकार ने अलग से मुद्रा बैंक (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी बैंक) बना रखा है. लेकिन उद्योग संगठन सीआइआइ और रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार एमएसएमइ क्षेत्र की केवल 5.18 प्रतिशत इकाइयां ही बैंकों व अन्य संस्थाओं और 2.05 प्रतिशत इकाइयां गैर-संस्थागत स्रोतों से फाइनेंस लेती हैं, जबकि बाकी 92.77 प्रतिशत इकाइयों को या तो कहीं से उधार नहीं मिल पाता या वे सेल्फ-फाइनेंसिंग पर निर्भर हैं. कुछ महीने पहले रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर एसएस मुंदड़ा तक ने माना था कि एमएसएमइ क्षेत्र की कुल वित्तीय जरूरत 32.5 लाख करोड़ रुपये की है, जिसमें से 6.5 लाख करोड़ रुपये की इक्विटी और बाकी 26 लाख करोड़ रुपये के ऋण चाहिए, जबकि उसे वास्तव में 11.1 लाख करोड़ रुपये के ही ऋण मिल सके हैं.

फिलहाल नोटों की तंगी के दौर में कैश का इंतजाम न कर पाने के कारण ऐसी तमाम इकाइयों 20-30 प्रतिशत क्षमता पर काम कर रही हैं. लाखों मजदूरों को मजबूरन गांवों का रुख करना पड़ा है

उनसे जुड़े लोग बताते हैं कि नवंबर से पहले की स्थिति में लौटने में उन्हें करीब छह महीने लग जायेंगे. उधर, वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी से देश की अर्थव्यवस्था साफ हो जायेगी और उसकी विकास दर बढ़ जायेगी, तकरीबन 8 प्रतिशत! ताजा आंकड़ा बताता है कि सितंबर 2016 की तिमाही में जीडीपी 7.3 प्रतिशत बढ़ कर 29.63 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गयी है. हालांकि, इसमें कहीं नहीं बताया गया है कि अर्थव्यवस्था में महत्तम योगदान करनेवालों की स्थिति कितनी बेहतर हुई है.