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ज्ञान बांटने वालों के साथ ऐसी बेदिली-- बृंदा करात

हेमलता ने इसी जनवरी में अपने पति खेमचंद को दुखद परिस्थितियों में खो दिया। वह चांदनी चौक के एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे। उत्तरी दिल्ली नगर निगम के अधीन आने वाले इस स्कूल में वह 1997 से पढ़ा रहे थे। जो आखिरी सैलरी उनके हाथों में आई थी, वह 58,000 रुपये थी। खेमचंद पर अपनी विधवा मां, पत्नी हेमलता, पांच बच्चे और एक बहन का भार था। वह मूल रूप से राजस्थान के अलवर जिले के एक भूमिहीन दलित परिवार से थे। घर के ऐसे पहले सदस्य थे, जिन्हें सरकारी नौकरी मिली थी। इतना ही नहीं, वह परिवार के एकमात्र कमाने वाले शख्स भी थे, और उनके पास आमदनी का कोई दूसरा जरिया नहीं था।


पिछले तीन वर्षों से उन्हें नियमित तौर पर वेतन नहीं मिल रहा था। तीन-चार महीनों तक सैलरी नहीं आती, और फिर एक महीने की पगार हाथ में थमा दी जाती। नतीजतन, वह कर्ज में डूबते चले गए थे। सरकार पर उनका लाखों रुपये बतौर ‘एरियर' बकाया है, फिर भी वह कर्ज लेने को मजबूर थे। बीते अक्तूबर में तो वेतन पूरी तरह से बंद हो गया। इन तीन महीनों में उन्होंने बिना एक पैसा लिए काम किया। वह अवसाद में डूबते रहे, रातों को नींद नहीं आती थी, पर अध्यापन का अपना कर्म नहीं छोड़ा। अपनी मौत से कुछ दिनों पूर्व ही उन्हें एक अदालती नोटिस मिला, जो उस सहकारी बैंक की ओर से आया था, जिसका उन पर कर्ज था। ब्याज के साथ वह रकम बढ़कर 4.5 लाख हो चुकी थी। उनके एक सहकर्मी बताते हैं कि उन दिनों खेमचंद काफी तनाव में आ गए थे। नोटिस मिलने के बाद उन्हें गिरफ्तारी का डर सताने लगा था, जो जाहिर तौर पर अपमान जैसा था। यह आशंका उन पर इस कदर हावी हो गई कि 17 जनवरी को दिल के दौरे ने उनकी सांसों की डोर तोड़ दी।


घर में फूटी कौड़ी तक न थी। आसपास के सहकर्मियों ने ही मिल-जुलकर उनके अंतिम संस्कार का बंदोबस्त किया। दिल्ली में शिक्षक कल्याण कोष नाम से एक फंड की व्यवस्था है, जिसमें सभी शिक्षक अपना योगदान करते हैं। इसके लिए उनके मासिक वेतन से अनिवार्य रूप से कटौती की जाती है। यदि किसी शिक्षक की सेवाकाल में मृत्यु होती है, तो इसी फंड के तहत उनके परिवार वालों को तत्काल पांच लाख रुपये का अनुदान दिया जाता है। हेमलता को यह मदद नहीं मिली, जबकि उनके पति इसमें योगदान करते रहे थे। इतना ही नहीं, न तो उन्हें उनका बकाया दिया गया है, और न ही पेंशन को लेकर साफ तौर पर कुछ कहा गया है।


खेमचंद की यह दीन-दशा राजधानी के प्राइमरी स्कूलों के उन 13,000 शिक्षकों की दास्तान है, जो दिल्ली के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में पढ़ा रहे हैं। इन सबको अक्तूबर से वेतन नहीं मिला है। दक्षिण दिल्ली के शिक्षक संभवत: इनसे बेहतर हैं, क्योंकि उस नगर निगम की वित्तीय सेहत ठीक है। हालांकि इन शिक्षकों पर सिर्फ अध्यापन का दायित्व नहीं है। उन्हें तमाम ऐसे काम भी करने पड़ते हैं, जिनका पठन-पाठन से कोई वास्ता नहीं होता। उन कामों में ज्यादातर शिक्षकों को स्कूली वक्त के अलावा छुट्टियों के कई घंटे खर्च करने पड़ते हैं। मसलन, प्राइमरी स्कूल का शिक्षक ‘बूथ लेवल ऑफिसर' भी होता है। उस पर यह सुनिश्चित करने का दायित्व है कि क्षेत्र के तमाम वयस्कों के पास वोटरकार्ड हों। वह बच्चों का आधार कार्ड भी बनवाता है, जो लगातार चलने वाली प्रक्रिया होती है। इसके लिए उसे हर महीने आधार केंद्र के 10-12 चक्कर लगाने पड़ते हैं। बच्चों का बैंक अकाउंट खुलवाने और आधार से उसे लिंक कराने की जिम्मेदारी भी इन्हीं शिक्षकों की है। हर तीन महीने के बाद उन्हें पोलियो ड्रॉप पिलाने के काम में भी जुटना पड़ता है। मंत्रियों व मंत्रालयों द्वारा बुलाई गई बैठकों में शिरकत करना भी इनके लिए अनिवार्य है। जाहिर है, काम का कोई ओर-छोर नहीं।


घंटों शिक्षण का मूल कर्तव्य निभाने के बाद उन्हें ये तमाम काम करने पड़ते हैं, और वह भी नि:शुल्क। यह दशा उन शिक्षकों की है, जो देश की राजधानी में नियुक्त हैं। ये वही शिक्षक हैं, जिन पर शिक्षा के अधिकार को बखूबी जमीन पर उतारने का दायित्व है। दिल्ली की 49 फीसदी आबादी स्लमों में रहती है, और करीब नौ लाख बच्चे इन्हीं प्राइमरी स्कूलों में अपना भविष्य संवारते हैं। शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर, बुनियादी ढांचे की कमी जैसे मसलों पर तो खूब चिंता जताई जाती है। मगर जब बात इन शिक्षकों के हितों की आती है, तो सरकारें (केंद्र और राज्य सरकार, दोनों) आरोप-प्रत्यारोप में जुट जाती हैं। इसका नुकसान शिक्षकों व विद्यार्थियों, दोनों को होता है।


दिल्ली में प्राइमरी स्कूल के ये शिक्षक अब केंद्र सरकार व आम आदमी पार्टी की सूबाई सरकार के बीच चल रही जंग में नया मोहरा बन गए हैं। आप सरकार का आरोप है कि नगर निगमों को केंद्र जरूरी फंड नहीं जारी कर रहा। शिक्षकों की भी मानें, तो पहले उन्हें वेतन मिलने में इस कदर देरी नहीं होती थी। मगर वेतन के प्रति दिल्ली की आप सरकार का अगंभीर रवैया भी उतना ही बड़ा सच है। पिछले साल ही पूर्वी दिल्ली नगर निगम के सफाई कर्मचारियों को महीनों तक वेतन नहीं मिला था, और उन्हें कुछ हद तक राहत तब मिली, जब हाईकोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप किया।


शिक्षकों के मामले में भी एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिस पर गत 5 जनवरी को फैसला सुनाते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश सी हरिशंकर ने सभी 13,000 शिक्षकों को मौजूदा महीने का वेतन एक हफ्ते में और पिछला बकाया एक महीने के अंदर देने का आदेश दिया था। हेमलता कहती हैं कि खेमचंद को इस फैसले की जानकारी नहीं थी। होती, तो शायद उनका तनाव कुछ कम होता। हालांकि अवमानना का आलम देखिए कि डेढ़ महीने होने को है, लेकिन यह आदेश अब तक लागू नहीं किया गया है। इसके खिलाफ फिर अदालत में जाने पर विचार किया जा रहा है। यहां पर एक ही सवाल कौंधता है। इस दिल्ली को भला कैसे ‘स्मार्ट सिटी' माना जाए, जब यहां ज्ञान बांटने वालों के साथ ही इस कदर बेदिली होती हो? (ये लेखिका के अपने विचार हैं)