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ज्यादा अहम क्या : बदला या सुधार? -एनके सिंह

झारखंड के बोकारो में स्थित एक गांव गुलगुलिया ढोरा में एक बलात्कार हुआ। मामला पंचायत में गया। मुखिया ने फैसला सुनाया कि बलात्कार की शिकार महिला का पति बलात्कार आरोपी की 14 वर्षीया बहन से बलात्कार करे। यही हुआ। पूरे गांव के सामने। लड़की के मां-बाप गुहार लगाते रहे पर कोई बचाने नहीं आया। संबंधित थाने में भी शुरू में रिपोर्ट नहीं लिखी गई। उधर मद्रास हाई कोर्ट के एक जज ने अपने फैसले में ईरान में चोरों की उंगलियां काटने वाली मशीन का जिक्र करते हुए कहा, अदालत मानती है कि जालसाजी के लिए भी ऐसी सजा दी जानी चाहिए। जज महोदय ने आगे कहा, पर 'दुर्भाग्य" से हमारे यहां ऐसे कठोर कानून नहीं हैं कि फर्जी कागजात बनाने वालों के हाथ काट लिए जाएं, नहीं तो अपराधियों के हौसले बुलंद नहीं होते।

पंचायत या मुखिया के फैसले को समझना मुश्किल नहीं है। वे रिट्रीब्यूटिव जस्टिस (प्रतिशोध से न्याय) ही जानते हैं। उन्हें पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी नहीं, पति पीड़ित नजर आता है और दंड की योग्य आरोपी की बहन नजर आती है, बलात्कारी पुरुष नहीं। यानी खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर, कटेगा खरबूजा ही। वे इस न्याय-दर्शन से ऊपर नहीं सोच पाते। उन्हें यह भी नहीं मालूम कि आपराधिक न्याय में पीड़ित व्यक्ति होता है और जुर्म भी व्यक्ति ही करता है, परिवार नहीं। लिहाजा सजा अपराधी की निर्दोष बहन को नहीं दी जा सकती। उनकी समझ नई तार्किक व युक्तियुक्त व्यवस्था को लेकर अभी नहीं बनी है।

लेकिन जब उच्च न्यायालय का एक जज हाथ काटने की बात विधि द्वारा स्थापित औपचारिक संस्था के प्रतिनिधि के रूप में कहता है और यह कह देता है कि अदालत मानती है कि जालसाजी के लिए भी उंगलियां काटने की सजा दी जानी चाहिए, पर दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसे कठोर कानून नहीं हैं, तब कई गंभीर प्रश्न उठ खड़े होते हैं। यह बात जज द्वारा अपने ड्राइंग रूम में या किसी सेमिनार में भारतीय आपराधिक न्याय-शास्त्र की विवेचना करते हुए नहीं कही गई थी, बल्कि उन्होंने ऐसा भरी अदालत में कहा था। क्या यह कथन अदालत, न्याय-व्यवस्था या संविधान की अवमानना नहीं है? अदालत की अवमानना कानून, 1971 में अदालत की अवमानना की परिभाषा में कहा गया है कि कोई ऐसा कृत्य, जो अदालत की गरिमा का हनन करता हो, इस कानून के तहत अपराध है। इसकी व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने डीसी सक्सेना बनाम भारत के प्रधान न्यायाधीश मामले में 1996 में अपने फैसले में कहा था कि ऐसा कोई कृत्य जो अदालत की गरिमा का हनन करता हो या न्याय प्रशासन में जनता के विश्वास को घटाता हो, अदलत की अवमानना है।

भारतीय संविधान की अनुसूची 3 के खंड 8 में हाई कोर्ट के जजों के लिए पदभार ग्रहण करते वक्त ली जाने वाली शपथ का प्रारूप दिया गया है। हर जज को संविधान के प्रति निष्ठा की ही नहीं, बल्कि संविधान और कानून को बनाए रखने की भी शपथ लेनी होती है। ऐसे में भरी अदालत में यह कहना कि दुर्भाग्य से हमारे यहां हाथ काटने का कानून नहीं है, क्या यह तस्दीक नहीं करता कि हमारे कानून में जबरदस्त कमी है और अदालत इस कमी को दुर्भाग्य मानती है? क्या यह अपनी ही शपथ का उल्लंघन नहीं है? क्या यह अदालतों और न्याय-प्रक्रिया के प्रति जनता में दुर्भावना नहीं पैदा करता? उच्च न्यायालय के जज का मुकाम भारतीय न्याय व्यवस्था में काफी ऊपर रखा गया है। वह फांसी के मामले में अपील सुनता है। अगर शपथ में उसने यह वादा किया है कि बगैर दुर्भावना के वह कानून की हिफाजत करेगा तो उसी कानून को दुर्भाग्यपूर्ण मानना क्या संकेत देता है?

यहां दो बातें और। जज अपनी मर्जी से न्यायमूर्ति का पद ग्रहण करता है। उसे यह भी सुविधा है कि वह जज न बने या जब भी लगे कि कानून दुर्भाग्यपूर्ण है तो इस्तीफा दे दे। लेकिन कानून या संविधान शायद उसे यह इजाजत नहीं देता कि वह पद, वेतन, ऊंची और सम्मानित कुर्सी का उपभोग करे और जिस व्यवस्था से यह सब कुछ हासिल किया है, उसी व्यवस्था को औपचारिक तौर पर और औपचारिक अवसर पर (अदालत की कार्यवाही) इतना गलत बताए कि जनता को लगे कि काश हमारी भी व्यवस्था ईरान जैसी होती तो बलात्कार और जालसाजी जैसे जघन्य अपराध हमारे यहां न होते। यहां प्रश्न यह भी नहीं है कि जज ने यह बात प्रसंगोक्ति के रूप में कही है या मूल फैसले के अंश के रूप में या फिर ऑब्जर्वेशन के भाव में। इसका संदेश पूरे देश में यह गया है कि एक हाई कोर्ट के जज का मानना है कि हमारे कानून में कमी की वजह से जालसाज और बलात्कारी पैदा हो रहे हैं।

फिर यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय अपराध न्याय-शास्त्र का पूरा ढांचा ही सुधारवादी दर्शन पर आधारित है, जिसमें अपराध को एक रोग मानकर उस रोगी को ठीक करने का प्रयास होता है। प्रश्न है कि अगर जज को प्रतिशोधात्मक न्याय व्यवस्था में विश्वास है तो फिर वह सुधारवादी सिस्टम में काम ही क्यों कर रहा है? और ऐसे में क्या यह डर हमेशा नहीं बना रहेगा कि ऐसी विचारधारा वाले जजों का फैसला प्रतिष्ठापित अवधारणा से कम या अधिक सख्त होगा?

अगर अण्णा हजारे के पास धरना देकर लोकपाल लाने के लिए दबाव डालने का विकल्प था तो क्या उन जज के पास अपने पद से इस्तीफा देकर व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन करने का विकल्प नहीं था? क्या जनता को ऐसे जज से ऐसे साहस की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए? संभव है कानून दुर्भाग्यपूर्ण हो, लेकिन क्या किसी सिस्टम का उपभोग करते हुए और उसी की लानत-मलानत करते हुए हम नैतिक स्तर पर उस नक्सली से भी नीचे नहीं चले जाते, जो कम से कम सिस्टम का उपभोक्ता तो नहीं है, बल्कि उससे बहिष्कृत है?

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं