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टीवी एंकरों की बढ़ती ताकत! --- आकार पटेल

क्या हमारे देश में टेलीविजन एंकर बहुत ज्यादा ताकतवर हो गये हैं? मैं तो हां कहूंगा, खासकर टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी जैसे अंगरेजी के एंकर. यहां टेलीविजन एंकरों को ताकतवर कहने से मेरा तात्पर्य है कि वे रोजाना की बहस और महत्वपूर्ण बातों को प्रभावित कर सकते हैं. 

यह ताकत प्रिंट और इंटरनेट के बड़े पत्रकारों के पास नहीं है. मेरा यह भी कहना है कि अर्नब गोस्वामी जैसे एंकरों का यह प्रभाव ज्यादातर नकारात्मक है, क्योंकि उनका फोकस सिर्फ उच्च वर्ग की चिंताओं से जुड़े मुद्दों पर ही होता है. करोड़ों भारतीयों को प्रभावित करने और स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, पोषण जैसे मुद्दों पर चर्चा नहीं होती. 

इसका मतलब यह नहीं है कि एंकर दुष्ट है या उसका इरादा नुकसान पहुंचाने का है. ऐसा होने के संरचनात्मक कारण हैं और इसमें आसानी से बदलाव भी नहीं होगा. 

पहला कारण यह है कि भाषा के लिहाज से भारत एक अजीब देश है. यह एकमात्र ऐसा बड़ा देश है, जिसके अभिजात्य की पहली भाषा विदेशी है. इसका हमारे देश में गंभीर सांस्कृतिक परिणाम हुआ है, जिन पर हम कभी बाद में बात कर सकते हैं. 

ऐसा माना जाता है कि करीब 10 फीसदी भारतीय अंगरेजी बोल सकते हैं. मेरी राय में इस हिस्से का एक-चौथाई या उससे भी कम की आबादी के लिए अंगरेजी पहली भाषा है. यह उच्च वर्ग भाषाई तौर पर भारत का एकमात्र जुड़ा हुआ हिस्सा है, क्योंकि अंगरेजी संपर्क की भाषा है. 

एक गरीब तमिल का कश्मीर या गुजरात के गरीब व्यक्ति से संपर्क करने का कोई अन्य माध्यम नहीं है. लेकिन वहीं, इन राज्यों के उच्च वर्गीय लोग अंगरेजी के जरिये आपस में संवाद बना सकते हैं. यही कारण है कि यह वर्ग निजी क्षेत्र की नौकरियों में आसानी से काम कर सकता है और दर्जनभर राजकीय भाषा वाले इस देश में कहीं भी पदस्थापित हो सकता है. 

दूसरा संरचनात्मक कारण यह है कि भारत में मीडिया को बहुत अधिक सब्सिडी मिलती है. अखबारों की कीमत करीब चार रुपये है. इस दाम में आपको 40 बड़े पन्नों का अंगरेजी अखबार मिलता है. अमेरिका, यूरोप और अन्य कई जगहों पर इसकी कीमत 70 रुपये होती. पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे हमारे पड़ोसी देशों में अखबारों का दाम भारत की तुलना में अक्सर चार गुना अधिक होता है. 

दुनियाभर में अखबारों की छपाई के लिए एक ही तरह के कागज का इस्तेमाल होता है. भारत के बड़े दैनिक अखबार कनाडा से डॉलर चुका कर यह कागज खरीदते हैं और मेरा अपना आकलन है कि अखबार की एक कॉपी में प्रयुक्त कागज का दाम 12 रुपये से अधिक पड़ता है. तो फिर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अखबारों के मालिक अपने उत्पाद को महज चार रुपये में कैसे बेच लेते हैं? आखिर पाठकों को यह सब्सिडी कौन दे रहा है? इसका सवाल का सीधा उत्तर है- विज्ञापनदाता.

इसी तरह से सेटेलाइट के द्वारा सेट टॉप बॉक्स के माध्यम से हमारे घरों में चैनल पहुंचानेवाला टाटा स्काइ पर 20 से अधिक अंगरेजी चैनलों का दाम मात्र 60 रुपये प्रतिमाह है. इसका अर्थ यह हुआ कि हम मात्र तीन रुपये में टाइम्स नाउ देख सकते हैं. वहीं दूसरी ओर, अमेरिका में फॉक्स न्यूज का खर्च इससे 20 गुना अधिक पड़ता है. इस मामले में भी हमारे अंगरेजी चैनलों को चलाने और एंकरों के वेतन का पैसा विज्ञापनदाताओं की तरफ से ही आता है. 

विज्ञापनदाताओं की रुचि उपभोक्ताओं के एक खास समूह में हाेती है. इस समूह के पास खर्च करने की क्षमता होती है. उपभोक्ताओं के इस वर्ग को आकर्षित करने और अपने चैनल के साथ जोड़े रखने के लिए टेलीविजन चैनलों को उनकी रुचि के मुताबिक खबरें और विश्लेषण पर विशेष ध्यान रखना होता है. इसीलिए कुपोषण या प्राथमिक स्कूलों को चलाने में सरकार की अक्षमता पर प्राइम टाइम में कोई विशेष बहस नहीं होती. इसी वजह से आतंकवाद और उग्रवाद जैसे उच्च वर्ग की रुचि के विषयों पर जरूरत से ज्यादा ही बहस होती है. 

हालांकि, यह भी सही है कि अक्सर टेलीविजन एंकर इन विषयों की लोकप्रियता के संरचनात्मक पहलुओं को अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा मान कर भ्रमित होते हैं. उन्हें अपने महत्व की खुशफहमी हो सकती है, और वे व्यक्तिगत हमले के खतरनाक दुष्चक्र में फंस सकते हैं. बरखा दत्त और अन्य पत्रकारों को पाकिस्तानी एजेंट कह कर हमला करने के मामलों में ऐसा होते हुए हमने देखा है. 

अंगरेजी चैनलों के एंकरों की यह ताकत तब तक कायम रहेगी, जब तक भाषा के कारण शक्ति का असंतुलन बना रहेगा. कुछ समय तक सरकार को अर्नब गोस्वामी जैसे एंकरों की मांग के अनुसार अपनी नीतियों और कार्रवाईयों में कांट-छांट करते रहना होगा. 

सरकार में कार्यरत एक समझदार व्यक्ति ने मुझे यह विश्लेषण बताया है- 'अर्नब गोस्वामी अब एजेंडा निर्धारित कर रहे हैं... चीन या पाकिस्तान से किसी के आने या जाने से पहले सीमा पर घुसपैठ के चित्र दिखाये जाते हैं, ताकि आधिकारिक दौरे को या तो रद्द कर दिया जाये या फिर इसके असर को कमजोर कर दिया जाये.' 

यह परिस्थिति एक गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि टेलीविजन एंकर को सबसे अधिक परवाह अपनी लोकप्रियता और रेटिंग की होती है. उसके लिए बाकी चीजें बहुत बाद में आती हैं. टेलीविजन एंकर भले यह माने कि उसकी लोकप्रियता राष्ट्रीय हित के साथ साझा है, पर कई मामलों में ऐसा नहीं भी हो सकता है. यह सोचने की बात है कि ऐसे मामलों में हमें किस हद तक नुकसान होता है? लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि इस विषय पर हमारे टेलीविजन चैनलों पर कभी कोई बहस नहीं होगी.