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टीवी चर्चाओं के अर्धसत्य और झूठ - मृणाल पाण्‍डे

शीत सत्र समाप्त हुआ और विपक्ष द्वारा ठप की गई संसद की कार्यसूची में दर्ज तीन तलाक का मुद्दा राज्यसभा में लटका रह गया। हो-हल्ले के चलते लगातार स्थगित किए जाने को मजबूर सदन में मुल्तवी हुई यह बहस, संसद के बाहर खबरिया चैनलों पर आयोजित हुई और दर्शकों का ध्यान खींचती रही। बहस-विमर्श से किसी को खास शिकायत नहीं, लेकिन हर दल, तथाकथित सिविल सोसायटी और बौद्धिक क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के बीच टीवी के नाटकीय माहौल में कराए जा रहे वाद-विवाद जिस तरह लगभग हर बार उजड्ड बकवासों में तब्दील होते जा रहे हैं, वह मसलों की गंभीर जटिलता नकारकर हर विषय को महज सफेद या स्याह रंगों तक सीमित कर रहा है। तीन तलाक मसले पर भी यही हुआ। हर चैनल में न्यौते गए अतिपरिचित 'टीवी फ्रेंडली किंतु कानून प्रशासन की सीमित समझ रखने वाले बड़बोले प्रतिनिधियों की मार्फत विषय के गहरे जानकारों पर स्कूली सवालों की बौछार कर, उनका जवाब पूरी तरह सुने बगैर, अपने प्रिय दल के सही होने की रणभेरी बजाई जाती रही। क्या हम यह मान लें कि बीसेक मिनट के इस तरह के शाब्दिक दंगल के बाद सिर्फ अपने हित-स्वार्थ के चश्मे से देश को देखने वाले राजनीतिक दल और सांसद हमारे तमाम समुदायों में पैठी हुई लिंगगत राजनीति, पहचान खोने के डर और मानवीय रिश्तों से जुड़ी तलाक सरीखी जटिल सामाजिक समस्या का हल चुटकी बजाते खोज सकते हैं? और क्या मोटे ब्योरों और विवादास्पद आंकड़ों से लैस बहसतलबों की निगाह में स्टूडियो में मौजूद या वहां से बाहर उनको सुनते खामोश लोग एक दर्शक समूह भर बन गए हैं, जिनकी कोई निजी राय या रुझान नहीं?


हमारे उपमहाद्वीप में विवाह और तलाक प्रथा का एक लंबा इतिहास, अलग संप्रदायों में उसके अलग-अलग रूप में है। और उनसे बने-बिखरे राजनीतिक-अराजनीतिक समीकरणों की भी भरमार है। इसलिए इस मुद्दे की बाबत महज सूचना नाकाफी है। जानकारी को ज्ञान बनाकर पेश करने से पहले वक्ता के लिए क्रमश: तीन चरणों से गुजरना जरूरी है। एक, इस विषय का उसका निजी अनुभव। दो, उस समुदाय के साथ ईमानदारी से चिंतन। तीन, तब जाकर वह इस लायक होता है कि आज की पृष्ठभूमि में उसका सही मूल्यांकन कर जनता के बीच अपनी राय विनम्रता से रख सके।


तर्कप्रिय जन कह सकते हैं कि इस लंबी कवायद से तलाक मुद्दे में साफ निष्कर्ष की बजाय निराशा और संशय के स्वर बोलने लगते हैं। अगर यह बात सही है तो भी क्या यह सच नहीं कि चुनावी स्वार्थ के तहत इस मसले को पहले उकसाकर, फिर दरी तले सरका देने की वजह से शाहबानो के जमाने से कई सामाजिक अंतर्विरोध हमारे सामने अनसुलझे खड़े हैं? प्रसिद्ध कथन है कि 'ईश्वर ने मनुष्य को सुनने के लिए जहां दो-दो कान दिए, वहीं जीभ सिर्फ एक ही दी कि इंसान जितना बोले, उससे दोगुना सुन सके"। लेकिन टू मिनट नूडल्स , फास्टफूड, टि्वटर, फेसबुक और हर मिनट ब्रेकिंग न्यूज पर पले चंचल युग में रायबहादुर गुटों में पूरे राज-समाज के गहरे जीवन सत्य सुनने, गुनने लायक समय या धीरज कहां बचा है? लिहाजा टीवी के पर्दे या जनसभाओं में दो अल्पसंख्य नुमाइंदों और बीस बहुसंख्य पत्रकारों, नेताओं और राजनीतिक दलों के नुमाइंदों के बीच करवाई जा रही नाटकीय नारेबाजी और बहसें, जिनकी पृष्ठभूमि में स्याह चादर में अवगुंठनवती बनी महिलाओं की एक भीड़ मूक प्रतिमा बनकर खड़ी रहती है, हमको कई सतहों वाली विवाह संस्था की ऊपरी सतह ही दिखलाती हैं। मसले को सही तरह से समझना हो, तो कई भीतरी स्तरों : जैसे कि महिलाओं की शैक्षिक दशा, उनकी आर्थिक परनिर्भरता, शरिया के अनुसार बच्चों की परवरिश और अभिभावकत्व, तलाक के बाद मेहर की रकम अदायगी वगैरा को समझने के लिए कई बार उन जानकारों को भी बुलाकर सादर सुनना जरूरी है, जो तालीपीट, आत्ममुग्ध फुर्सती चर्चाओं के परे चुपचाप खड़े रहते हैं। उधर, टीवी पर पैनल चर्चाओं में हर बहसकर्ता अपने ही गुट या दल की सोच को बेहद आक्रामकता से देश के सर्वमान्य नियम-कायदों के रूप में स्वीकृत करवाने पर तुला दिखता है। 'क्षमा करें, या 'पहले आपसरीखे फिकरों के बजाय 'अब जरा मुझे भी तो बोलने दीजिए या ( धमकी भरे सुर में) 'अब तक बस आप ही लगातार बोले जा रहे हैं, अब मेरी बारी है और मुझे अपनी बात कहने का पूरा हक है! जैसे वाक्य इन दिनों भजन की टेक की तरह तमाम टीवी बहसों का अविभाज्य हिस्सा बन रहे हैं। ऐसे में बहस लायक हर मुद्दा राष्ट्रीय कलह का विषय बनकर रह जाता है।


जहां तक आग में घी डालते राजनीतिक दलों की बात है, उनके दलीय प्रवक्ता तो लगता है, बहस में सिर्फ खुद को सुनाने आते हैं। दूसरों को सुनने और उनका पक्ष जानने में उनकी कोई रुचि नहीं। अंतत: इस तरह की कानफोड़ू इकतरफा जिरह स्टूडियो के वातावरण को ऐसे नक्कारखाने में बदलती है, जहां 'कृपया एक-एक कर बोलें कहते एंकर की आवाज अक्सर तूती बनकर रह जाती है। और वह 'खेद है, हमारे पास बिलकुल समय नहीं बचा, इसलिए इन मुद्दों पर चर्चा आगे भी जारी रहेगी, के साथ बिना स्पष्ट नतीजे के महान बहस का पटाक्षेप कर देता (या देती) है। जब मुद्दा नाटकीयता और जुमलेबाजी तक ही सिमट जाए तो जीवन और लोकतांत्रिक प्रणाली की सतही समझ रखने वाले चंद स्मार्ट लोग सहज ही चटकीली अंग्रेजी की तलवार लहराते हर विषय के जानकार पांडे बनेंगे ही। मजमेबाज वक्तृता भी निंदापरक भड़काऊ फब्तियों से चंचल चित्त जनता की रेटिंग्स देखते हुए अपना रुख बदलते हैं। और जब आम जन को भी गंभीर संसदीय बहसों के बजाय किसी जड़ी-बूटी से हर तरह के मर्ज के इलाज की तर्ज पर, एक ही बिल से मुल्क के तमाम रोगों के शर्तिया इलाज का ऐलान अधिक सुहा रहा हो, तो संयम भरे शब्दों में विवेचन पेश करने का क्या कोई मतलब रह भी जाता है?


गौरतलब है कि आज भारत अपने आंतरिक अनुशासन से जुड़े बुनियादी मुद्दों पर कई जरूरी और जटिल सवालों का सामना कर रहा है। उसका एक-एक पल कीमती है, और उससे उभरती बहसें भविष्य के लिए ऐतिहासिक नजीरें बनाएंगी। मगर दुर्भाग्य से कई राजनीतिक दल और जातीय गुट अपने दलीय स्वार्थ पोसाने में मशगूल हैं। वे कब समझेंगे कि खुले रिसते घाव को नासूर बनने तक इंतजार करना घातक हो सकता है।

 

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं)