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टीवी ट्रायल : 'इंस्टैंट इंसाफ" के खतरे - कंदर्प

क्या आपने 'लिंचिंग" के बारे में सुना है? जब कोई भड़काई गई भीड़ किसी व्यक्ति को बिना कोई मुकदमा चलाए तुरंत सजा दे देती है। जैसे दीमापुर (नागालैंड) में 5 मार्च के दिन एक ऐसी ही गुस्साई भीड़ ने जेल तोड़कर रेप के आरोपी को निकाला और उसे मार-मार के मौत के घाट उतार दिया। क्या लगता है ऐसी घटनाओं को

पढ़कर या सुनकर? कि ये बर्बरताएं हैं, कि हम अभी तक भी सभ्य नहीं हुए? लेकिन लिंचिंग की इन घटनाओं के मूल गुण क्या हैं? एक, कि यह बिना मुकदमे का इंसाफ है। दो, कि यह सजा का एक सार्वजनिक स्पेक्टेकल रचता है। तीन, कि यह एक हिस्टीरिया है।

यदि ये तीनों गुणों वाली घटनाएं असभ्यता या बर्बरता की श्रेणी में आती हैं, तो जिसे ट्रायल बाय टेलीविजन कहते हैं, वह स्वयं क्या है? क्या वह स्वयं किसी न्यायिक प्रक्रिया का प्रतिस्थापन नहीं है? उसमें किसी व्यक्ति की हो रही 'ग्रिलिंग" क्या न्यायिक प्रक्रिया में किए जाने वाले प्रति-परीक्षण (क्रॉस-एक्जामिनेशन) का ही विद्रूप नहीं है? क्या इससे पक्षकारों या संभावित पक्षकारों पर अनुचित दबाव नहीं पैदा होता? क्या इसमें जो आरोप लगा रहा है, वही बहस करने वाले वकील की भूमिका का कैरीकेचर नहीं है? क्या वही इसमें जज के रूप में अंतिम फैसला सुनाने का नाट्य नहीं पैदा कर रहा?

दूसरे गुण सजा के सार्वजनिक स्पेक्टेकल पर आएं। क्या इसमें आरोपी व्यक्ति का देशभर की जनता के आगे सार्वजनिक तमाशा नहीं बनता? क्या इससे किसी एक व्याख्या के आधार पर किसी व्यक्ति के निरंतर तप से कमाई गई सार्वजनिक प्रतिष्ठा क्षणभर में धूल धूसरित नहीं हो जाती? क्या इसके जरिए राजनीतिक विरोधी को अपराधीकृत करने की कोशिशें नहीं दीख पड़तीं? जिन्हें 'वाटर कूलर गप्पें" कहा जाता है, क्या उन्हीं का इस्तेमाल इन कार्यक्रमों में 'गोस्पेल ट्रुथ" (धर्मानुमोदित सत्य) की तरह नहीं होता? इन चैनलों में जिस तरह से देश के प्रमुख औद्योगिक घरानों का पैसा लगा है, क्या ऐसे कार्यक्रमों के जरिए उसी पूंजी को हमने न्यायदान के अनौपचारिक अधिकार नहीं दे दिए हैं?

चार हितबद्ध लोग किसी मामले में चार कागज एंकर महोदय को थमा दें और बस आक्रमण की ब्रेकिंग तैयारी है। ब्रेकिंग न्यूज की तरह यह भी सर्वथा अनपेक्षित और अप्रत्याशित है। प्रभावित पक्ष सोचता ही रह जाता है कि यह मुसीबत कहां से आई और एक झटके में उसे सारे देश के सामने नंगा कर दिया जाता है। उसे भी, जो चल रहे मामलों में आरोपी की तरह नामजद भी ना हो। किसी टीवी चैनल को यह मौलिक अधिकार कबसे प्राप्त हो गया कि उसके सवालों का जवाब देने के दायित्वाधीन पूरी दुनिया है? भारत के प्रत्येक नागरिक का यह मौलिक अधिकार है (और सार्वजनिक पदों पर काम कर रहे लोग मात्र इस कारण से अनागरिक नहीं हो जाते कि वे सार्वजनिक पदों पर हैं) कि वे किसी टीवी चैनल या समाचार पत्र या पत्रिका को अपना वर्शन दें या ना दें और अपने इस अधिकार का उपयोग करने पर किसी चैनल के एंकर को उस पर व्यंग्य करने या उस पर दुराग्रहपूर्ण पूर्वानुमान करने का लाइसेंस नहीं मिल जाता। मैंने देखा है कि जिन्हें भारतीय दंड संहिता के विभिन्न् प्रावधानों की बुनियादी जानकारी नहीं है, वे जलते हुए प्रश्नों की बचकानी आग स्क्रीन पर दिखाते हुए प्रतिदिन अपना वर्डिक्ट पारित करते रहते हैं।

प्राय: इन तथाकथित बहस-प्रहसनों में याची (प्लेंटिफ) के पक्ष में पूर्वधारणा पहले ही बना ली जाती है और उसके बाद कल्पना और सेंशेनलिज्म के अश्व को खुला छोड़ दिया जाता है। रिस्पोंडेंट या उत्तरदाता का काम वे कर रहे होते हैं, जिन्हें मामले के कई पहलुओं का कोई अता-पता नहीं रहता। जल्दी-जल्दी फोन के ऊपर ली गई ब्रीफिंग और कुछ ईमेल किए गए कागजों के आधार पर 'डिफेंस" में बड़े अकबकाए और भौंचक प्रवक्ता वाणी देते हैं। फिर फैसला सुनाने की अधीरता तो कार्यक्रम को आवंटित अवधि के अनुपात में है। मात्र आधे घंटे में या हद से हद एक घंटे में वे सब कुछ तय कर देंगे। यह ठीक है कि पीढ़ियों तक चलने वाले मुकदमे- अपील/ रिवीजन/ रिव्यू की हरिकथा अनंता भी अपने आप में त्रासद है, लेकिन ये टेलीविजन ट्रायल तो हड़बड़ी की गड़बड़ी हैं।

लेकिन इनके द्वारा रचे जाने वाले उन्माद की एक अलग कहानी है। वे एक प्लास्टिक क्रोध का एपिडेमिक पैदा करना चाहते हैं। मैं ऐसा कहकर उन मुद्दों की अवमानना नहीं करना चाहता जो इन कार्यक्रमों में उठाए जाते हैं। प्लास्टिक क्रोध मैं सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि जुमलेबाजी और सतही आलोचना से गुस्से की कृत्रिम विनिर्मिति ही होती है। यहां एक छूत लगने की संघटना है, जहां कभी-कभी तो लगभग जमूरों की तरह श्रोताओं को बरते जाने के दृष्टांत सामने आते हैं, जहां मुद्दे को ज्यादा से ज्यादा नाटकीय तरह से पेश करने के कला-कौशल लेकर ये चैनल प्रस्तुत होते हैं। यह सिर्फ कॉपीकैट-कौशल ही नहीं है, बल्कि एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की जद्दोजहद भी है, जिसमें उस व्यक्ति को जिसे तलवार की नोक पर रखा गया है, इनके द्वारा किए जा रहे साधारणीकरण के सारे सदमे झेलने हैं।

'राइट टू साइलेंस" (चुप रहने के अधिकार) को भले ही संविधान के अनुच्छेद 20(3) में निहित किया गया हो, यहां तो पूर्वानुमान संबंधित व्यक्ति की कायरता और संलिप्तता का ही है। यदि वह व्यक्ति सार्वजनिक पद पर है तो न्यायालय में यह संभव है कि वह 'आवश्यक पक्षकार" के रूप में अपने को शामिल किए जाने के लिए विरुद्ध आवाज उठा ले, लेकिन इन कंगारू अदालतों में तो दूसरों के द्वारा किए गए कुकर्मों का बोझ उस सार्वजनिक व्यक्ति को ही ढोना पड़ेगा। तब यह वह लिंचिंग है, जो बहुत नफासत पसंद लोगों द्वारा बहुत ग्लानिहीन तरह से बड़े आराम के साथ प्रतिदिन की जाती है।

ऐसे में उपाय क्या है? क्या ऑस्ट्रेलिया के कुछ राज्यों की तरह 'अनुचित मीडिया ट्रायल" के विरुद्ध अधिनियम बनाया जाए? विधि आयोग के प्रतिवेदन को लागू किया जाए? या फिर चुप बैठकर दिनन के फेर को देखा जाए?