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टूटना चाहिए तीन तलाक का मिथक - रामिश सिद्दीकी

आज देशभर में एक चर्चा ने फिर से तेजी पकड़ ली है। चर्चा का विषय है समान नागरिक संहिता। देश में यह मुद्दा नया नहीं है। इसका लंबा इतिहास है। अनेक लोग समान नागरिक संहिता को भारतीय जनता पार्टी का आविष्कार समझते हैं, पर उन्हें यह जानकर हैरानी होगी कि समान नागरिक संहिता का सबसे पहला जिक्र 1928 में नेहरू रिपोर्ट में मिलता है। यह रिपोर्ट भारत के संविधान का रेखाचित्र थी, जिसे तैयार करने वाले कोई और नहीं, बल्कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिताजी मोतीलाल नेहरू थे, जो कि उस समय कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे। इस रिपोर्ट में मोतीलाल नेहरू ने ब्रिटिश सरकार को सुझाव देते हुए लिखा था कि स्वतंत्र भारत में शादी से संबंधित सभी मामलों को एक समान कानून के अंतर्गत लाने की जरूरत है। उस समय भी उलेमा ने इसका कड़ा विरोध किया था। यहां तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी इसे मानने से मना कर दिया था। वर्ष 1939 में लाहौर में कांग्रेस द्वारा बुलाई गई एक बैठक में भी इस महत्वपूर्ण विषय पर काफी चर्चा हुई थी।

बहरहाल, यह तो थी इतिहास की बात, पर इस चर्चा के बार-बार मुख्यधारा में आने की असल वजह कुछ और है। दरअसल समाज में एक आम धारणा है कि इस्लाम मजहब में पुरुष को इतनी आजादी है कि मात्र उसके मुंह से तीन बार तलाक निकलने से उसका और उसकी पत्नी का रिश्ता खत्म हो जाता है, जिससे एक स्त्री के मानवाधिकारों का हनन होता है। यहां पर यह बताना अनिवार्य होगा कि इस्लाम में शादी को एक पवित्र बंधन के रूप में माना गया है, जबकि तलाक को एक निंदनीय कार्य।

हजरत मुहम्मद साहब का एक कथन है कि विवाह मेरा ही एक तरीका है और जिसने इसका पालन नहीं किया, उसका मुझसे कोई संबंध नहीं। इस्लाम में तलाक का प्रावधान शुरू से है, लेकिन सिर्फ अंतिम विकल्प के रूप में। यहां मैं हजरत मुहम्मद साहब का एक और कथन बताना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने बताया कि जो सब चीजें खुदा ने करने की अनुमति दी है, उनमें से सबसे घृणित तलाक है।

जब एक पुरुष और स्त्री विवाह के बंधन में बंधते हैं और साथ रहना शुरू करते हैं तो यह स्वाभाविक है कि उनके बीच कुछ मामलों में असहमति होगी, जिसके कारण मतभेद भी पैदा होंगे। वैवाहिक जीवन जीने का सरल तरीका मतभेदों को दरकिनार करके जीने का है। हर मनुष्य में गुण और अवगुण होते हैं फिर चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी को एक-दूसरे के गुण देखने चाहिए, न कि अवगुण। पर यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जीवन में सब निर्विघ्न नहीं चलता और कई लोग वैवाहिक जीवन में ऐसी कगार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जब सब कुछ उथल-पुथल होता दिखता है।

कुरान में आता है- तलाक दो बार है, और फिर या तो प्रचलन अनुसार रख लेना है या अच्छे ढंग से विदा देना। (2:229) इसका अर्थ है कि जिस किसी पुरुष ने अपनी पत्नी को दो महीने की अवधि में दो बार तलाक दिया तो वह तीसरी बार तलाक देने से पहले खुदा को याद कर ले। फिर या तो वह सदिच्छा के भाव में साथ रह जाए या फिर पुरुष कोई अन्याय न करके स्त्री को विदा कर दे।

तो यह कहना गलत है कि एक झटके में तीन बार तलाक बोल देने से तलाक हो जाता है। इस्लाम में इसके लिए तीन महीने की समयावधि निर्धारित की गई है। यह तीन महीने का निर्धारित काल स्थापित कर देता है कि यह सोच-समझकर लिया हुआ फैसला है, न कि जल्दबाजी में उठाया गया कदम। इस्लाम में जब एक पुरुष और स्त्री का विवाह होता है, तब सिर्फ एक बार कहने से विवाह हो जाता है, पर तलाक की औपचारिकता को पूरा होने में तीन महीने लगते हैं। निकाह एक समय में कुबूल कहने से होता है, पर उस बंधन को तोड़ने के लिए तीन महीने के अंतराल में इसे बांधा गया है। इस अंतराल की वजह से पति-पत्नी को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करने का मौका मिलता है और साथ ही अपने हितैषियों से परामर्श करने का। इन तीन महीनों में घर के बड़ों को भी हस्तक्षेप का समय मिलता है, जिसमें वे दोनों पक्षों की बातें सुनते हैं और फैसला अगर आवेश में किया होता है तो उसे रोकने की पुरजोर कोशिश होती है। अगर यह अंतराल न हो तो इसमें से कुछ भी संभव नहीं है। इसलिए तलाक की कार्रवाई इस लंबे समय में बांटी गई है।

बावजूद ऐसे प्रतिबंधात्मक मापदंडों के तलाक होते हैं और मजहब के कम जानकारों में यह अधिकतम पाया जाता है, जहां पति रोष में आकर तीन बार तलाक बोल देता है और समझता है कि तलाक हो गया। अगर मोहल्ले के किसी आलिम से भी पूछा जाता है तो कई बार वहां से भी यही जवाब मिलता है कि हां तलाक हो गया।

ऐसा ही एक किस्सा हजरत मुहम्मद साहब के सामने आया। मामला था रुकना इबन अबु यजीद का और इसे बताने वाले इमाम अबु दावूद थे। रुकना इबन अबु यजीद ने अपनी बीवी को एक बार एक ही झटके में तीन मर्तबा तलाक बोल दिया। उन्हें बाद में इस पर बेहद दुख हुआ कि उन्होंने ऐसा क्यों कर दिया? तब वह हजरत मुहम्मद साहब के पास गए। हजरत साहब ने उनसे पूछा कि उन्होंने तलाक कैसे दिया। इस पर रुकना इबन अबु यजीद बोले कि उन्होंने एक साथ तीन बार तलाक बोल दिया। यह सुनकर हजरत मुहम्मद साहब बोले कि तीनों एक ही समझे जाएंगे और तुम चाहो तो अपनी बात को वापस ले लो।

इस्लामिक इतिहास में ऐसे उद्धरण उमर फारुक के जीवन में भी देखने को मिलते हैं, जो इस्लाम के दूसरे खलीफा थे और हजरत मुहम्मद साहब के करीबी अनुयायियों में भी थे। जब कभी उनके पास किसी ऐसे इंसान का मामला आता जिसने एक झटके में तीन बार तलाक कहकर अपनी बीवी को अलग कर दिया हो तो वह ऐसे व्यक्ति को विद्रोही के समान समझते और उसे कोड़े पड़वाते।

आज देशभर में सभी इस्लामिक जमातें और विद्वान इस मुद्दे पर जोर-शोर से बोल रहे हैं। हम समझते हैं कि सरकार के प्रति आक्रोश दिखाने से बेहतर होगा कि वे अपने मुस्लिम भाइयों को सच्चाई से अवगत कराएं, जहां लोग आज भी तीन तलाक के विषय को ठीक से नहीं समझते। आज जगह-जगह यह कहा जा रहा है कि सरकार को मजहब में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं, लेकिन यह भी तो सच है कि सरकार को अपने नागरिकों को शोषण से बचाने का पूरा अधिकार है।

कुछ दिनों पहले ही भारत सरकार के एक मंत्री ने इस विषय के बारे में कहा था कि इस पर चर्चा होनी चाहिए। हम समझते हैं कि चर्चा बिल्कुल होनी चाहिए, पर चर्चा से ज्यादा जरूरी है कि समाज में जहां-जहां तीन तलाक के नाम पर महिलाओं का शोषण हो रहा है, उसे रोका जाए और ऐसी महिलाओं की मदद के लिए मुस्लिम समाज की अग्रिम पंक्ति के लोग आगे आएं।

(लेखक इस्लामिक विषयों के जानकार हैं और उन्होंने 'द ट्रू फेस ऑफ इस्लाम नामक किताब लिखी है। ये उनके निजी विचार हैं