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ठोस उपायों से ही बदलेगी तस्वीर - डॉ. भरत झुनझुनवाला

केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। सरकार की आय कम हो और खर्च ज्यादा हो तो अंतर को पाटने के लिए सरकार बाजार से ऋण लेती है। इस ऋण को वित्तीय घाटा कहा जाता है। वित्तीय घाटे को अच्छा नहीं माना जाता, ठीक वैसे ही जैसे ऋण लेकर फाइव स्टार होटल में भोजन करने वाले को जिम्मेदार नहीं माना जाता है। विदेशी निवेशक सोचते हैं कि सरकार को संयम नहीं है और वे पीछे हटते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने चेताया है कि विश्व के 20 बड़े देशों में भारत का वित्तीय घाटा अधिकतम है। बीते समय अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत की रैंकिंग में सुधार किया था, परंतु साथ-साथ कहा था कि अगर वित्तीय घाटा बढ़ा तो उसे पुनर्विचार करना पड़ सकता है। इस समय सरकार घिरी हुई है। आय घट रही है, जबकि खर्चे बढ़ रहे हैं। आय का प्रमुख स्रोत जीएसटी है। बीते दिनों जीएसटी की दरों में कटौती की गई है, जिससे वसूली कम हो रही है। दूसरी तरफ 2019 में आम चुनाव होने को हैं, इसलिए लोकलुभावन खर्चों की मांग बढ़ रही है। इस परिस्थिति में 'जैसे चल रहा है, वैसे चलने दो से बात नहीं बनेगी।


वित्तीय घाटा कम रखने के मंत्र के पीछे आर्थिक विकास की विशेष रणनीति है। आर्थिक विकास के लिए निवेश जरूरी है, जैसे किसान के विकास के लिए ट्यूबवेल में निवेश जरूरी है। इस निवेश के दो स्रोत हैं - घरेलू एवं विदेशी। घरेलू निवेश को बढ़ाने में वित्तीय घाटा मददगार हो सकता है, जैसे यदि सरकार ऋण लेकर हाईवे बनाए तो सीमेंट तथा तारकोल की मांग बढ़ती है और अर्थव्यवस्था चल निकलती है। साथ-साथ हाईवे के बनने से माल का ट्रांसपोर्ट सस्ता हो जाता है और पुन: अर्थव्यवस्था चल निकलती है। यही कारण है कि 2014-16 में वित्तीय घाटा चार प्रतिशत पर वर्ष 2017-18 के लक्ष्य 3.2 प्रतिशत से ऊंचा था और साथ-साथ उन्हीं दो वर्षों में आर्थिक विकास दर 7.6 प्रतिशत पर वर्ष 2017-2018 की अनुमानित 6.5 प्रतिशत से ऊंची थी। पूर्व में बढ़ा हुआ वित्तीय घाटा और बढ़ी हुई आर्थिक विकास दर साथ-साथ चल रही थी, जैसे बीपी बढ़े होने के साथ-साथ कोई व्यक्ति ज्यादा सक्रिय हो गया हो। स्पष्ट है कि 2014-16 की ऊंची विकास दर के पीछे बढ़ा हुआ वित्तीय घाटा था, लेकिन विदेशी निवेशक बढ़े हुए वित्तीय घाटे को अनुशासनहीनता के रूप में देखते हैं। इसलिए यदि विदेशी निवेश के भरोसे अर्थव्यवस्था को दौड़ाना हो तो वित्तीय घाटे को नियंत्रित रखना होता है। वर्तमान में विदेशी निवेश के आसार अच्छे नहीं हैं। अमेरिका में ब्याज दरों के बढ़ने से विश्व पूंजी का बहाव उस देश की ओर हो रहा है। इसलिए सरकार को वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने के मंत्र को ही त्यागने पर विचार करना चाहिए। सरकार द्वारा ऋण लेकर अधिकाधिक निवेश किया जाए तो अर्थव्यवस्था को घरेलू निवेश के भरोसे बढ़ाया जा सकता है।


अर्थव्यवस्था को बढ़ाने का दूसरा कदम सरकारी इकाइयों तथा सरकारी बैंकों का निजीकरण हो सकता है। चालू वर्ष 2017-2018 के बजट में सरकार ने 75,000 करोड़ रुपए की रकम सरकारी इकाइयों के विनिवेश से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा था। इस लक्ष्य के हासिल होने में संदेह है, परंतु यह अलग विषय है। जरूरत विनिवेश की नीति पर ही पुनर्विचार करने की है। निवेश में सरकारी इकाइयों के अल्पसंख्यक शेयरों को पब्लिक को बेचा जाता है। इकाई का मूल स्वामित्व और नियंत्रण मंत्री एवं सचिव महोदय के हाथ में ही बना रहता है। इन्हीं महानुभावों की कृपा से सरकारी इकाइयां घाटा खाती रही हैं। इसलिए निवेशकों की अल्पसंख्यक शेयरों को खरीदने में रुचि नहीं बन रही है और सरकार इस मद में वांछित रकम शेयर बाजार से नहीं उठा पा रही है। उपाय है कि इन इकाइयों के बहुसंख्यक शेयरों को किसी विशेष निजी उद्यमी को बेच दिया जाए, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में बाल्को तथा बीएसएनएल के शेयरों को बेचा गया था। इस प्रक्रिया को निजीकरण कहा जाता है, जबकि अल्पसंख्यक शेयरों को बेचने को विनिवेश कहा जाता है। सरकार को चाहिए कि विनिवेश के स्थान पर सरकारी इकाइयों एवं बैंकों का निजीकरण कर दे। ऐसा करने से दो लाभ होंगे। एक, सरकार को ज्यादा रकम मिलेगी, जिससे वित्तीय घाटा कम होगा। दूसरे, इन इकाइयों का कायाकल्प होगा और अर्थव्यवस्था को पुन: गति मिलेगी।


अर्थव्यवस्था को बढ़ाने का तीसरा कदम जीएसटी का रूप बदलना हो सकता है। सरकार द्वारा जीएसटी के माध्यम से दो उद्देश्य एक साथ हासिल करने के प्रयास किए जा रहे हैं। पहला उद्देश्य टैक्स व्यवस्था को सरलीकृत करना है। जीएसटी के माध्यम से एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स तथा चुंगी आदि करों को आपस में विलय किया गया है। इससे पूरे देश में व्यापार करना आसान हो गया है। सोच थी कि व्यापार की इस आसानी से कारोबार बढ़ेगा, लोग टैक्स अधिक देंगे और वित्तीय घाटा नियंत्रित होगा। सरकार का दूसरा उद्देश्य है कि टैक्स की वसूली में वृद्धि हो। इस वृद्धि का दूसरा नाम टैक्स की चोरी पर अंकुश लगाना है। चोरी कम होगी तो वसूली बढ़ेगी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार ने व्यापारियों को माह में तीन बार अपने कार्य की जानकारी को पोर्टल पर अपलोड करना अनिवार्य बना दिया है। अब सरकार ई-वे बिल को लागू करने जा रही है। इस व्यवस्था में हर माल जो सड़क पर जाएगा, उसकी पूरी जानकारी जीएसटी पोर्टल पर डालनी होगी। यूं समझिए कि गृहिणी को दाल बनाने के पहले जीएसटी पोर्टल पर बताना होगा कि कितने ग्राम दाल, कितना पानी, कितना नमक, कितनी हल्दी डाली जाएगी और कितनी गैस का उपयोग किया जाएगा। फिर जीएसटी पोर्टल पर बताना होगा कि किचन से डाइनिंग टेबल तक दाल की ढुलाई बेटे द्वारा की जाएगी, बहू द्वारा अथवा स्वयं गृहिणी द्वारा। व्यवस्था तो ठीक है। गृहिणी चावल-दाल की चोरी नहीं कर सकेगी, परंतु गृहिणी द्वारा दाल पकाना लोहे के चने चबाने जैसा हो जाएगा। किचन की गति मंद पड़ जाएगी। यही हाल जीएसटी और अब ई-वे बिल का है। सरकार का प्रयास चोरी रोकने का है, लेकिन उसे इस बात की सुध नहीं है कि इस कागजी झंझट में व्यापार ही मंदा पड़ जाएगा। ऐसा भी कहा जा रहा है कि सरकारी अधिकारियों द्वारा यह व्यवस्था भ्रष्टाचार के अवसर बढ़ाने के लिए लागू की जा रही है।


ऊपर बताए गए विकल्पों से अर्थव्यवस्था गति पकड़ सकती है, परंतु तीनों विकल्पों को लागू करने से मंत्री तथा सचिवों के व्यक्तिगत हितों पर आघात होगा। वित्तीय घाटा बढ़ने देने और घरेलू निवेश बढ़ाने में घूस लेना कठिन होता है। वहीं विदेशी निवेशकों से डॉलर में घूस लेना आसान होता है, इसलिए सरकार घरेलू निवेश के प्रति उदासीन है। सार्वजनिक इकाइयों तथा बैंकों का निजीकरण करने से मंत्रियों तथा अधिकारियों के पर कट जाते हैं। जीएसटी का सरलीकरण करने से मंत्रियों व अधिकारियों के लिए घूस वसूलने के अवसर कम हो जाते हैं। सरकार को इनके व्यक्तिगत स्वार्थों पर ध्यान न देते हुए अर्थव्यवस्था को साधना चाहिए।