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डाकिया डाक लाया- रस्किन बांड

देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों और एकांत पहाड़ों पर, जहां ऐसी सड़कें नहीं हैं कि गाड़ियां आ-जा सकें, वहां आज भी डाकिए पैदल चलकर डाक पहुंचाने जाते हैं। वे प्रतिदिन पांच-छह मील पैदल चलते हैं। सच है कि वे पुराने हरकारों की तरह दौड़ते नहीं और रास्ते में कभी-कभार चाय पीने या ताश खेलने के लिए रुक भी जाते हैं, लेकिन ये डाकिए आज भी पुराने जमाने के हरकारों की याद दिलाते हैं।

डाकियों ने हमेशा मेरे जीवन में बहुत सच्ची और अहम भूमिका निभाई है और अब तक निभा रहे हैं। हर दोपहर डाकिया मेरे घर की इक्कीस सीढ़ियां चढ़ता है, जोर से दरवाजा खटखटाता है, गिनकर तीन थाप देता है, जिससे मुझे पता चल जाए कि यह डाकिया ही है, उत्सुकता का मारा कोई घुमंतू नहीं आ टपका है।



वह आता है और मुझे मेरी रजिस्टर्ड डाक, स्पीड पोस्ट वगैरह थमा जाता है, एक हल्की सी मुस्कराहट और उस इलाके की चटपटी खबरों के साथ - किसकी शादी हो रही है, कौन चुनाव में खड़ा हो रहा है, कौन हेडमास्टर की बीवी के साथ भाग गया, किसकी अंतिम यात्रा निकल रही है। इन तमाम सूचनाओं के लिए डाकिया अतिरिक्त बोनस पाने का हकदार है।



डाकिए के उलट कूरियर लाने वाला लड़का सड़क से ही आवाज लगाता है और मुझे उतरकर उसके पास जाना पड़ता है। उसे कुत्तों से बड़ा डर लगता है और हमारी बिल्डिंग में तीन-तीन कुत्ते हैं। डाकिए को कुत्तों से डर नहीं लगता। वह हर मौसम में आता है।



पैदल चलकर आता है, सिर्फ उन मौकों को छोड़कर जब कोई उसे लिफ्ट दे देता है। जब बर्फ पड़ती है, जब बारिश होती है, जब गर्म हवाएं चलती हैं, वह तब भी आता है। वह इन चीजों के बारे में बड़े दार्शनिक अंदाज में बात करता है। वह तरह-तरह के लोगों से मिलता है। लोगों के घरों मंे उसने खुशियां देखी हैं और तकलीफें भी। वह जिंदगी के बारे में कुछ-कुछ जानता है। शुरू में भले ही वह दार्शनिक न रहा हो, लेकिन एक दिन होगा जरूर। जब वह रिटायर हो जाएगा।



बेशक हरेक डाकिया गुणों और आदर्शो का नमूना नहीं होता। कुछ साल पहले एक डाकिया था। वह उस इलाके के बाजार वाली दारू की दुकान से आगे कभी गया ही नहीं। जब तक उसे होश आता और वह चिट्ठियों को ठिकाने पहुंचाने की मेहरबानी करता, तब तक वहां चिट्ठियों का ढेर-पर-ढेर जमा होता रहता था। कुछ समय के लिए उसे एक दूसरे ही इलाके में भेज दिया गया था, जहां कोई दारू की दुकान नहीं थी।



आजकल हम डाकिए को ज्यादा महत्व नहीं देते, लेकिन आज से सौ साल पहले एक जमाना था, जब डाक लाना-ले जाना बहुत मुश्किलों भरा काम हुआ करता था। उस समय संदेश पहुंचाने वाले या जिन्हें हरकारा भी कहते थे, वे अपने पास तलवार और बरछियां रखते थे।



चमड़े के बड़े-बड़े झोलों में खत भेजा जाता था। धावक खत लेकर जाते। हर आठ मील पर धावक बदल जाते थे। रात के समय जंगली इलाकों में धावकों के साथ मशाल थामे लोग और जंगली जानवरों को भगाने के लिए नगाड़ा बजाने वाले भी होते थे। उस समय भारी संख्या में बाघ हुआ करते थे।



उन बाघों से यात्रियों और अपने गांव-देस से दूर यात्रा पर जाने वालों को सचमुच खतरा होता था। डाक पहुंचाने वाले हरकारे अकसर मानव भक्षी बाघों का शिकार हो जाते थे। हालांकि उनके पास तीर-कमान हुआ करते थे, लेकिन वे भी कभी-कभार ही उपयोगी साबित होते।



कलकत्ता से इलाहाबाद खत पहुंचाने के लिए जिस हजारीबाग से होकर गुजरना पड़ता था, वहां भारी संख्या में मानव भक्षक बाघ थे। उस पूरे जिले में चार घाटियां थीं, जो ऐसे बाघों से भरी हुई थीं। १८१क् में विलियमसन लिखते हैं कि घाटी में बाघों का इस कदर आतंक था कि वहां की सड़कों से गुजरना लगभग नामुमकिन होता था।



लगभग हर पखवारे किसी-न-किसी हरकारे को बाघ घाटी में घसीट ले जाता था। लेकिन इन सब बाधाओं और विपदाओं के बावजूद किसी हरकारे को कलकत्ता से मेरठ पहुंचने में १२ दिन लगते थे। अगर आप स्पीड पोस्ट का इस्तेमाल न कर रहे हों तो आज भी इतना ही समय लग जाता है।



उस जमाने में ग्रामीण इलाकों में भू-राजस्व अधिकारी ही पोस्टमास्टर भी हुआ करता था। मेरे पिताजी बहुत उत्साह से डाक टिकटें जमा करते थे। जब मैं छोटा बच्च था तो उन्हें देर तक बैठकर अपने टिकट संग्रह को निहारते देखा करता था। उनके संग्रह में बहुत पुराने और मूल्यवान टिकट शामिल थे।



वे बहुत पुराने काले और मटमैले डाक टिकटों को देखकर बुदबुदाते रहते थे। उन टिकटों पर से महारानी विक्टोरिया की तस्वीर पूरी तरह मिट गई थी। उस जमाने में टिकट पर लगाए जाने वाले ठप्पों में इस्तेमाल स्याही की वजह से ऐसा हुआ था।



उस वक्त में खत बांटने वाले डाकिए बड़ी सज-धज के साथ निकलते थे। लाल रंग की पगड़ी, हल्के हरे रंग की अचकन, छाती और दाहिने बाजू पर छोटा चमड़े का पट्टा, जिस पर एक बिल्ला लगा होता था। बिल्ले पर डाकिए का नंबर और अंग्रेजी और दो देशी भाषाओं में ‘पोस्ट ऑफिस प्यून’ लिखा रहता था।



उसके बाएं बाजू पर से लगी एक घंटी लटकती रहती थी। आज के डाकिए अपने पहरावे में ज्यादा अनौपचारिक हैं। फिर भी मुझे लगता है कि डाकियों का अब भी एक विशिष्ट पहनावा होना चाहिए। आम लोगों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि डाकिए कौन-सा कपड़ा पहनते हैं या किस तरह तैयार होते हैं। वे डाक लेकर आते हैं, जिसके अंदर राखी होती है या किसी फौजी बेटे या पति का भेजा मनीऑर्डर लाते हैं। यही वह बातें हैं, जहां डाकिए फैक्स या ई-मेल से भी कहीं ज्यादा मूल्यवान हो जाते हैं।



चिट्ठियां पहुंचाने वाले हरकारों पर फिर से लौटते हैं। बहुत समय बाद इन हरकारों के स्थान पर डाक घर होने लगे थे और वहां टट्टू डाक पहुंचाने का काम करते थे। मेरी एक परनानी थीं लिलियन, जो १९४क् तक जीवित थीं। वह बताती थीं कि उन्नीसवीं सदी के आखिरी समय में अगर देहरादून जाना हो तो डाकघरों के टट्टुओं के साथ ही जाया जा सकता था।



तब तक रेलवे की शुरुआत नहीं हुई थी। डाकघर के टट्टू बड़े बिगड़ैल जानवर हुआ करते थे। उन्होंने मुझे बताया कि वे टट्टू बार-बार अपना सामान लेकर साथ चल रहे यात्रियों की ओर चले आते थे। लेकिन एक बार वे चलना शुरू कर देते तो फिर रुकते नहीं थे। यात्रा के पहले चरण में वे सरपट-सरपट दौड़ते जाते थे, जब तक कि पहला पड़ाव न आ जाता। वहां पर टट्टुओं को बदला जाता था।
बिल्कुल डिकेंस के उपन्यासों वाले अंदाज में टट्टू पर सवार व्यक्ति तुरही बजाता और फिर टट्टू बदले जाते। १९क्क् के बाद मेरी परनानी लिलियन ट्रेन से सफर करने लगीं, लेकिन सहारनपुर से मसूरी डाक लेकर आने वाली बस आज भी शिवालिक के पुराने रास्तों से होकर ही आती है।



देश के सुदूर इलाकों और एकांत पहाड़ों पर, जहां ऐसी सड़कें नहीं हैं कि गाड़ियां आ-जा सकें, वहां आज भी डाकिए पैदल चलकर डाक पहुंचाने जाते हैं। वे प्रतिदिन पांच-छह मील पैदल चलते हैं। सच है कि वे कभी दौड़ते नहीं और रास्ते में कभी-कभार चाय पीने या ताश खेलने के लिए रुक भी जाते हैं, लेकिन ये डाकिए हमारी डाक व्यवस्था के पुराने अग्रदूतों की याद दिलाते हैं, उन हरकारों की याद दिलाते हैं।