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डिजिटल मीडिया का सच-- अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी

भारतीय लोकतंत्र की व्यापक परिधि में आज भी वह परिपक्वता नहीं है, जो किसी स्वस्थ समाज और लोक कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक है। समाज में गरीबी, कम शिक्षा दर, सांप्रदायिक सोच, जातीय उन्माद, जेंडरगत कुंठा, व्यक्तिगत स्वार्थपरता और पूंजी के शातिराना खेल ने जिस परिवेश को बढ़ाया है, उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों का लगातार क्षरण हो रहा है। जबकि देश में मीडिया के प्रति विश्वसनीयता की लंबी परंपरा रही है। मीडिया में संक्रमण एक वैश्विक चिंता है। विश्व के सबसे बड़े और परिपक्व अमेरिकी लोकतंत्र के हाल के राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव में वहां के मीडिया घरानों का अपने-अपने उम्मीदवारों के प्रति खुलेआम समर्थन वहां के प्रतिष्ठित चिंतक चाम्स्की के ‘प्रचार-तंत्र' से आगे की चिंता है, जिसे देखना दरअसल मीडिया की तटस्थ भूमिका के आकांक्षियों को परेशान करने वाला होना चाहिए। बल्कि इससे पहले पश्चिमी मीडिया की निष्पक्षता तो इराक में अमेरिकी हमलों के कवरेज में बेनकाब हो चुकी है। अगर पश्चिमी मीडिया और भारतीय परिप्रेक्ष्य की तुलना की जाय, तो यह अंतर जरूर करना पड़ेगा कि वहां शिक्षा का स्तर ऊंचा है और मीडिया द्वारा परोसे गए तथ्यों को जनता में आद्यंत सच स्वीकार करने की प्रवृत्ति कम है, जबकि भारत में एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जो मीडिया में छपे हुए को शत प्रतिशत सच और दिखाए हुए को शत प्रतिशत विश्वसनीय मानता है।


मुख्यधारा मीडिया के विचलन और संक्रमण के बीच डिजिटल मीडिया को नई उम्मीद से देखा गया है। सूचनाओं के बिना पहरेदारी के प्रसार और रचनात्मकता को पहचान देना इसकी अद्वितीय शक्ति रही है। वैकल्पिक मीडिया के रूप में इसने अपनी उपयोगिता सिद्ध भी की है और आज भी रही-सही उम्मीद इसी से है, लेकिन इन सबके बावजूद वर्तमान में डिजिटल मीडिया की उपस्थिति पर विचार करने की आवश्यकता है। बिना किसी निगरानी तंत्र के इसकी परिधि में अनेक ऐसे शातिर तत्त्व सक्रिय हैं, जो देश के इतिहास और भूगोल से खेल रहे हैं और समाज की साझी विरासत और प्रतीकों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। पाठ, आॅडियो, वीडियो और तस्वीरों को तोड़-मरोड़ कर अपने एजेंडे के तहत पेश करने की प्रवृत्ति को लोकतंत्र के इस ‘पांचवें स्तंभ' ने खूब सहारा दिया है। इस संदर्भ में सबसे चिंताजनक यह है कि ऐसे तत्त्वों को हतोत्साहित करने के बजाय पढ़े-लिखे लोग भी लगातार प्रोत्साहित कर रहे हैं, कभी अज्ञानतावश तो कभी अपने राजनीतिक उद्देश्यों के तहत। ऐसे में घृणा, दुष्प्रचार और कुंठित मानसिकता को स्वर के लिए आवश्यक ऊर्जा किसी फोटो या वीडियो को संपादित करने वाले सॉफ्टवेयर से मिनटों में मिल जा रही है। डिजिटल मीडिया के नियंताओं को ऐसी चीजों से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि उनके लिए सबसे फायदेमंद है कि उनके ऐसे प्लेटफॉर्म पर कुछ भी हो, सक्रियता बनी रहे। ऐसे में यह जिम्मेदारी जनता की है कि वह इन विष-व्यापी सामग्रियों को स्वीकार करे या रोके।


देश में एक तबका आज सोशल मीडिया के प्रयोग-बाहुल्य का शिकार है, जो कई प्रसंगों में नशा की तरह है। इसका दुष्प्रभाव यह है कि संबंधित व्यक्ति अकेलेपन के कारण अवसाद और निराशा का शिकार हो रहा है। इसी क्रम में सामाजिक स्तर पर हम हिंसा और जघन्य अपराधों के प्रति भी उदार या निर्विकार होते जा रहे हैं और इसका सबसे भयानक पक्ष यह है कि आज जब पूरी भीड़ किसी समूह के रूप में एक व्यक्ति को प्राणांतक प्रताड़ित कर रही है, तो भी वहां उपस्थित लोग सिर्फ मूक दर्शक बने रह रहे हैं। आज लोग दुर्घटना की सिर्फ वीडियो बनाते पाए जाते हैं। डिजिटल मीडिया ने समाचारों के कलेवर को नए सिरे से प्रभावित करना शुरू किया है। इसमें दुखद यह है कि अपने आरंभ के कुछ ही वर्षों में बहुसंख्य समाचार वेबसाइटों में वह विकार आ चुका है, जो टेलीविजन में टीआरपी के कारण पहले से मौजूद था। इस प्रकरण में समाचार वेबसाइटों का समाज के प्रति बर्ताव महज उत्पाद और उपभोक्ता का हो चुका है, जिसने भाषाई संरचना को प्रभावित करना भी शुरू कर दिया है। यही कारण है कि किसी समाचार का शीर्षक अपने अंतर्गत निहित सामग्री का प्रतिनिधि नहीं, बल्कि एक उलझाऊ वाक्य या पदबंध होता जा रहा है, जो पाठकों को क्लिक करने को विवश करे। इसमें समाचार-लेखन के पारंपरिक नियम भी बदल रहे हैं। इस क्रम में सूचनाओं के तीव्र प्रसार और अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचने के लक्ष्य के लिए अधकचरी सूचनाओं की भरमार सामने आ रही है। इसमें किसी सूचना को अपने अनुसार परोस कर किसी का मान-मर्दन से लेकर किसी मुद्दे को भड़काने तक का काम इन वेबसाइटों के मॉडरेटर सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि उनकी हिट संख्या बढ़ जाए।


देश-समाज में निहित समाचारों से परत हटे यह तो ठीक है, लेकिन इस क्रम में किसी बड़ी घटना या व्यक्तित्व के प्रति झूठ या तथ्यों को छिपा कर एक लोकप्रिय किस्म के सच को परोसने का काम ही प्राय: वेबसाइटों का प्राथमिक कर्म बनता जा रहा है। इसमें देश-विदेश के प्रभावशाली लोगों के ट्विटर, फेसबुक आदि खातों से गलत सूचनाओं तक को बिना किसी पड़ताल के धड़ल्ले से संदर्भित किया जा रहा है। गौरतलब है कि ऐसे समाचारों को एक बार सार्वजनिक होने के बाद वापस लेना संभव नहीं होता। क्योंकि इसका प्रसार इतनी तेजी से होता है कि एक सर्वर से लेकर दूसरे प्लेटफॉर्म तक साझा किया जाता है और मूल स्रोत से समाचार वापस लेने की कड़ी बीच में समाप्त हो जाती है। इस बीच संबंधित समाचार अपने मिथ्या-प्रचार के उद्देश्य को पूरा कर लेता है और वर्तमान तकनीकी ढांचे में उसके प्रति जिम्मेदार व्यक्ति आसानी से पकड़ में भी नहीं आ पाता।


वर्तमान मीडिया मुख्यालय केंद्रित होती जा रही है, जिसमें किसी समाचार के स्रोत-स्थल का परीक्षण और विश्लेषण लगातार कम होता जा रहा है। सूचनाओं का स्रोत ट्विटर, फेसबुक, यू-ट्यूब, इन्स्टाग्राम और वाट्स-ऐप जैसे प्रमुख सोशल नेटवर्क होने लगे हैं, जबकि इनमें पहले से ही मनमानी सूचनाओं का अंबार है और इस तरह मुख्यधारा मीडिया के बड़े हिस्से में इन्हीं सोशल नेटवर्क की पहुंच बढ़ती जा रही है। यहां ईमानदार समाचार-प्रतिष्ठानों को विश्लेषण करना चाहिए कि देश की जनसंख्या में ऐसे कितने लोग हैं, जो सोशल नेटवर्क में मौजूद हैं? अगर इससे वंचित आबादी की संख्या अधिक है, तो उनके दुख-दर्द के प्रति मीडिया की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या कोई दूरस्थ समाज सिर्फ इसलिए इस मीडिया का अंग नहीं बन पाएगा कि उसके पास सोशल नेटवर्क के लिए आवश्यक साधन नहीं हैं?


सत्य का कोई समय और काल नहीं होना चाहिए। ‘आभासी सत्य' से परे एक ‘आत्यंतिक सत्य' होता है, जिसको खोजना किसी जिम्मेदार मीडिया की प्राथमिकता होनी चाहिए। इससे परे आज का मीडिया एक भीड़तंत्र को विकसित करने में व्यस्त है, जो किसी स्वस्थ समाज और लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। मीडिया को अपने अनुरूप गढ़ना सत्ता की पुरानी महत्त्वाकांक्षा है, लेकिन मीडिया द्वारा पूरी तरह समर्पण प्राय: आधुनिक प्रचलन है। इसमें डिजिटल मीडिया का शामिल होना किसी युद्ध में अंतिम हथियार को खो देने जैसा है। इस पूरे प्रकरण में जन-माध्यमों में फैली विकृतियों के प्रति एक सजग समाज आगे नहीं आएगा, तो खतरा पूरे समाज पर बढ़ेगा।